क्या गजब की फिजां बनाने की मुहिम शुरू हुई है इस मुल्क में कि संसद से लेकर सड़क तक जुल्म की इश्तहारबाजी इस तरह हो रही है कि इंसानियत को ही हैवानियत की पनाह में भेजने के रोजनामचे लिखे जा रहे हैं मगर कितने बदहवास हैं वे लोग जो भारत को हिन्दू-मुसलमान की जहनियत में धकेल कर अपने नापाक इरादों को पूरा करना चाहते हैं। यह सनद रहनी चाहिए कि जब 1967 के करीब जनसंघ ने गोहत्या विरोधी आन्दोलन चलाया था तो संसद का घेराव कर रहे लोगों को नियन्त्रित करने के लिए पुलिस को गोली चलानी पड़ी थी और उसमें कुछ साधु-संतों की भी मृत्यु हो गई थी। जिसके बाद तत्कालीन गृहमन्त्री श्री गुलजारी लाल नन्दा को इस्तीफा देना पड़ा था। इसके बाद गोहत्या निषेध को लागू करने के लिए इन्दिरा गांधी सरकार ने एक समिति बनाई थी जिसमें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के तत्कालीन सरसंघ चालक गुरु गोवलकर को भी रखा गया था। तभी यह बात साफ हो गई थी कि गोहत्या निषेध राज्यों का विषय है क्योंकि इसका सम्बन्ध कृषि क्षेत्र से है मगर आज पूरे देश में इस मुद्दे पर जो माहौल बनाया जा रहा है उससे यह लगता है कि भारत अचानक सात सौ साल पीछे चला गया है जिसमें राजा-महाराजा और नवाब व सुल्तान अपनी हुकूमतें बनाये रखने के लिए गाय का इस्तेमाल करते थे।
21वीं सदी के भारत में 14वीं सदी की मानसिकता रखने वाले लोगों ने ठान लिया है कि वे इसे वहां ले जाकर छोड़ेंगे जहां से अंग्रेजों ने उसे पकड़ा था चाहे इसके लिए लोकतन्त्र को ही तमाशा क्यों न बनाना पड़े और पुलिस को भी कान पखही भेड़ ही क्यों न बनाना पड़े। यह सनद रहनी चाहिए कि किसी भी मुगल बादशाह के जमाने में संस्थागत बूचड़खाने नहीं बनाए गए थे जिनमें गोहत्या की जाती हो। पहला बूचड़खाना बंगाल के नवाब को तख्त से उतार कर 1776 में लार्ड क्लाइव ने स्थापित किया था जिसमें गायों की हत्या का इंतजाम था। इसकी वजह यह थी कि ईस्ट इंडिया कम्पनी की फौज के अफसर बीफ ( गोमांस) के शौकीन थे मगर बाद में इसका इस्तेमाल उन्होंने हिन्दू-मुसलमानों को आपस में बांटने के लिए इस कदर किया कि 1947 में पाकिस्तान ही बनवा डाला। वह भी तब जबकि आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के शहजादों के सिर थाली में सजा कर शहंशाह के सामने तोहफे के तौर पर यह कह कर पेश किए गए कि कम्पनी की तरफ से हुजूर के लिए यह ‘तरबूजों’ का तोहफा है मगर किसी मुल्क के लोगों को अगर अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारते देखना है तो वह हिन्दोस्तान आए और खुद नजारा करे कि किस तरह कुछ लोग अंग्रेजों की बनाई गई रवायतों पर अमल कर रहे हैं और इस मुल्क का अमन-चैन खत्म कर देना चाहते हैं।
जो देश पूरी दुनिया में इसलिए जाना जाता हो कि यहां सिर्फ कानून का राज चलता है और संविधान के रास्ते से यह देश अपनी तरक्की की राह ढूंढने में माहिर रहा है, वहां अगर चन्द लोग खुद ही सड़क पर मुंसिफ बनकर इंसाफ सुनाने लगे तो यह बेशक आठ सौ साल पहले का दौर हो सकता है जिसमें राजा या नवाब की जबान से निकला लफ्ज कानून होता था मगर आज बहस इस बात पर पूरी बेशर्मी के साथ हो रही है कि गौरक्षक का चोला ओढ़कर कानून को अपने हाथों में लेने वाले लोगों को किस तरह कानूनी इमदाद पहुंचाई जाये? सरकार तक में बैठे मन्त्रियों के अलावा संसद में चुनकर आए एक सांसद तक यह काम कर रहे हैं और डंके की चोट पर इसका इजहार भी कर रहे हैं और एेसे लोगों के गले में फूलमालाएं पहना रहे हैं और उनका अभिनन्दन तक कर रहे हैं। यदि आज प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जीवित होते तो वह भी आंसू बहा रहे होते क्योंकि उन्होंने स्वयं कहा था कि हिन्दुओं को मुसलमान समाज का सम्मान करना चाहिए जो गोपालक या दुधारू पशु पालक के रूप में अपनी आजीविका भी चलाता है और गोवंश की वृद्धि में जिनका अमूल्य योगदान रहा है। प्रभुदत्त ब्रह्मचारी 1967 के गोहत्या विरोधी आन्दोलन के प्रणेताओं में से एक थे मगर हम तो एेसी हैवानियत का माहौल बना देना चाहते हैं कि गायों की खरीद-फरोख्त तक करने वालों को शक की नजरों से देख कर उसकी उसी समय सड़क पर ही हत्या कर देने में भी संकोच नहीं करते और किसी के भी घर में घुस कर उसके फ्रिज में रखे गए मांस की तसदीक करते हैं और गोमांस के शक के आधार पर ही उसकी हत्या भी कर देते हैं।
आखिरकार इसकी वजह क्या है कि अचानक कभी भी गोहत्या निषेध का राग शुरू हो जाता है और कभी भी बैठ जाता है? इसमें ज्यादा दिमाग लड़ाने की जरूरत नहीं है क्योंकि भारत का बच्चा-बच्चा वाकिफ है कि क्यों एेसे कारनामों को करके छलावे का संसार रचा जा रहा है? नादान हैं वे लोग जो इस हकीकत को नहीं जानते कि गाय को सर्वाधिक संरक्षण ग्रामीण क्षेत्रों में ही मिलता है और यहां पर गोपालकों में मुसलमान नागरिकों की संख्या हिन्दू नागरिकों से किसी भी पैमाने पर कम नहीं है। गाय का सम्बन्ध सीधे गरीबी से है और गरीबी ग्रामीण क्षेत्रों में पसरी पड़ी है (रवांडा जैसे गरीब मुल्क को दो सौ गायों का तोहफा प्रधानमन्त्री ने देकर इस हकीकत को खुद स्वीकार किया है) मगर गाय के बहाने इन्हीं गरीबों को आपस में बांटने का जो नुस्खा कुछ लोग आजमा रहे हैं वह 21वीं सदी के ‘नौजवान’ भारत में कामयाब होने वाला नहीं है क्योंकि आज हर युवक रोजगार मांग रहा है और पूछ रहा है कि ये खुदाई खिदमतगार कौन हैं जो विदेशी आक्रान्ताओं की तरह गाय को आगे रखकर इस मुल्क में लूट मचा देना चाहते हैं।
नहीं भूलना चाहिए कि 21वीं सदी के भारत में इन्हीं लोगों के वोट से अब सरकारें बनती और बिगड़ती हैं। इन लोगों में इतनी सलाहियत ईश्वर ने दी हुई है कि वे समझ सकें कि पर्दे के पीछे से इन नए ‘खुदाई खिदमतगारों’ को कौन ताकत दे रहा है। सितम यह है कि खुद बेरोजगार होने की वजह से ही खुदाई खिदमतगार का चोला पहनने को मजबूर हो रहे हैं। चाहे मन्त्री जयन्त सिन्हा हों या अर्जुन मेघवाल, उन्हें सबसे पहले सोचना होगा कि वे संविधान के साथ हैं या अराजकता के? टी.वी. न्यूज चैनलों में होने वाली बहसों में बात-बात पर विरोधी राय प्रकट करने वालों को पाकिस्तान जाने की सलाह देने वाले भाजपा प्रवक्ताओं की इन मन्त्रियों के बारे में क्या राय होगी क्योंकि ये तो खुल्लम-खुल्ला पाकिस्तानी कठमुल्लाओं की सियासत के अन्दाज में नमूदार हो रहे हैं? इन्हें इतना भी गुमां नहीं है कि वे उस हिन्दोस्तान की सरकार के वजीर हैं जिनका पहला काम हर सूरत में संविधान के शासन को काबिज रखना होता है मगर यहां तो कश्मीर से लेकर त्रिपुरा तक उलटी गंगा बहाई जा रही है और नादान बच्चियों से बलात्कार करने वाले लोगों से लेकर भीड़ के नाम पर हत्या करने वाले लोगों की वकालत करने की तजवीजें भिड़ाई जा रही हैं मगर यह वह मुल्क है जहां अवध के नवाब वाजिद अली शाह से लेकर मुगल शहंशाह बहादुर शाह जफर तक यहां होने वाली रामलीलाओं के लिए खजाने खोल दिया करते थे और दीपावली के दिन महलों को रोशनी से नहला देते थे और मीठी ईद पर हिन्दू फनकारों को इनाम-ओ-इकराम से मालामाल कर देते थे। इसलिए नए खुदाई खिदमतगारों का ‘खुदा हाफिज’।