चुनावी मौसम में विधवाओं की चर्चा, अटपटी लगती है मगर प्रासंगिक है। यह चर्चा वृंदावन में बसने वाली लगभग 25000 विधवाओं के बारे में है। इन विधवाओं को प्रायः वोट-बैंक नहीं माना जाता। इनमें से अधिकांश के पास अपना परिचय-पत्र तो है, मगर मतदाता-सूचियों में नाम नहीं है। इनमें अधिकांश, बंगाल, बिहार व दक्षिण भारत से आई हैं। बहुत थोड़ी संख्या ऐसी है जो अपना वैधव्य काटने, राधा की इस नगरी में बस गई हैं। मगर ज्यादातर ऐसी हैं, जिन्हें उनके परिजन स्वयं यहां छोड़ गए हैं।
इन्हें आश्रय देने वाली कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं हैं मगर वहां भी उनकी जीवन-यात्रा संकटों से घिरी रहती हैं। कुछेक आश्रम हैं, जहां के नियमों के अनुसार उन्हें प्रतिदिन चार घंटे तक भजन कीर्तन करना होता है और लगभग 4 से 6 घंटे तक देसी दवाइयां बूटनी-पीसनी होते हैं। परिश्रमिक के रूप में इन्हें प्रतिदिन 15 से 20 रुपए मिलते हैं, साथ में 250 ग्राम चावल, 100 ग्राम दाल, एक नमक की पुड़िया और 5 एमएल रिफाइंड तेल मिलता है। साल के दो बार इन्हें दो सफेद धोतियां व 2 कुर्तियां मिलती हैं। यह सिलसिला पिछले 150 वर्ष से चला आ रहा है।
कुछ वर्ष पूर्व प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी का ध्यान इस ओर दिलाया गया था। वहीं पी.एम.ओ. के हस्तक्षेप से इन्हें 2000 रुपये प्रतिमाह पेंशन की व्यवस्था भी की गई, मगर अधिकांश कागजी-औपचारिकताएं पूरी नहीं कर पाई और यही सोच कर उन्होंने चुप्पी साध ली कि यदि इतना ही सुख भाग्य में होता तो विधवा क्यों होती।
ऐसी ही एक संस्था ‘मैत्री इंडिया’ के नाम से इस दिशा में कार्यरत है। मगर यहां सभी को नहीं लिया जाता। यहां एक निर्धारित संख्या में बुजुर्ग विधवाओं को ही लिया जाता है। भजन-कीर्तन के साथ-साथ यहां कभी-कभी मेडिकल-जांच की भी व्यवस्था है। मगर यहां भी सबके लिए द्वार खुले नहीं रखे गए।
गत वर्ष वृंदावन जाने का अवसर मिला तो मन बेहद दुखी हुआ कि वहां की सड़कों पर, मंदिरों के बाहर कुछ अन्य सार्वजनिक स्थानों पर बड़ी संख्या में विधवाएं भीख मांगती देखी गईं। कभी-कभी उनका आग्रह भीख के रूप में एक कप चाय व दो बिस्कुट दिलाने के नाम पर भी होता है। एक 70 वर्षीया बंगाली विधवा ने पूछा कि क्या उसके आश्रम में उसे चाय-बिस्कुट भी नहीं मिलते तो उसका उत्तर था, ‘बेटा 4 दिन खांसी छिड़ जाए तो वे लोग वहां टिकने भी नहीं देते।’ इन सब की बेहद कारुणिक कहानियां हैं। उन्हें सर्वाधिक पीड़ा इस बात को लेकर है कि उनमें से अधिकांश को चित्ता की अग्नि भी नसीब नहीं होती। बस सफेद पुराना कफन लपेट कर शव को यमुना की लहरों में धकेल दिया जाता था।
इसका एक दुखद पहलू यह भी है कि कुछ वर्ष पूर्व ‘अन्तर्राष्ट्रीय विधवा दिवस’ मनाने की परम्परा भी चल निकल। सिर्फ मीडिया के लिए ‘फोटो-सेशन’ तक सब सीमित रहा। कुछेक को इस बात का भी रंज था कि उनकी फोटो खींची गई मगर जब उन्होंने फोटो की एक प्रति मांगी तो भगा दिया गया। इन सब विसंगतियों के बावजूद राधा कुंड, मैत्री घर, जीवन-शक्ति, भजनाश्रम आदि कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं इस दिशा में थोड़ा बहुत कार्य कर रही हैं। मगर दर्द का कैनवस बहुत लम्बा-चौड़ा है। उसे बयान के लिए भी पूरा आसमान चाहिए।
यहां सबकी अपनी-अपनी पीड़ाएं हैं। मगर अधिकांश के पास तो उनके छूट चुके घर या परिजनों का पता भी नहीं है। जब भी चुनाव आता है, चंद दिनों के लिए इनके बारे में चर्चा तो होती है। मगर कुछ दिन के बाद सभी चर्चाएं हाशिए पर बुहार दी जाती हैं। पिछले दिनों यहां की सांसद हेममालिनी के एक बयान को लेकर भी खूब हंगामा मचा रहा। हेमा को भी स्पष्टीकरण देने के लिए कई बार मीडिया को बुलाना पड़ा। मगर विपक्षियों ने उनके बयान पर काफी हो-हल्ला मचाया। उन्हें तो लगा कि घर बैठे ही एक मुद्दा मिल गया। सिलसिला जारी है। जाहिर है बयान इन्हीं विधवाओं के बारे में था, मगर हेमा जी का कहना था कि इन विधवाओं को उनके परिवेश में ही बसाया जाना श्रेष्ठ रहेगा लेकिन उन्होंने साथ ही साथ उनके प्रति अपनी गहरी पीड़ा भी दर्शाई। विपक्षियों को इसी बात पर एक विवाद खड़ा करने का अवसर मिल गया। उनकी पीड़ा एवं दुखों से भरी जिन्दगी को इस भद्दे सलीके से तार-तार करने की उस हरकत से वे बेहद संतृप्त हैं। उन्हें लगता है कि उन्हें एक बार फिर वैधव्य झेलने पर विवश किया जा रहा है।
– डॉ चंद्र त्रिखा