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लोकसभा चुनाव 2024

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भारत में आया चुनावी मौसम

भारत में अब चुनाव का मौसम आ गया है। अप्रैल व मई महीने में लोकसभा की 543 सीटों पर चुनाव होगा। इनमें मुख्य मुकाबला भाजपा व इंडिया गठबन्धन के बीच ही होगा। इस चुनाव को ध्यान में रखते ही कांग्रेस नेता राहुल गांधी अपनी भारत जोड़ों न्याय यात्रा निकाल रहे हैं जो 14 जनवरी से शुरू होकर लगभग तीन महीने चलेगी। दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी की तरफ से प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी चुनाव प्रचार की कमान संभालेंगे। चुनाव प्रचार की तरीकों में भारत में पिछले पचास साल में क्रान्तिकारी परिवर्तन आया है।
चुनाव के मौके पर रैलियों व जनसभाओं के अलावा रोड शो करना जहां नेता मूलक है वहीं जनता की भागीदारी इसमें हाशिये पर जाती दिखाई पड़ती है। मगर इसके साथ ही सोशल मीडिया के आ जाने और छा जाने के बाद जनता ने अपनी भागीदारी स्वयं ही नियत कर ली है परन्तु इसमें भी पार्टी या नेता की प्रमुख भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। भारत में चुनावी रोड-शो की परंपरा स्थापित करने वाली और रैलियां आयोजित करने वाली पहली राजनीतिज्ञ बिना किसी शक के स्व. इन्दिरा गांधी ही थीं। इसकी वजह उनकी अपार लोकप्रियता ही थी।
इन्दिरा गांधी से पहले भारत में चुनाव प्रचार मुख्य रूप से जनसभाएं आयोजित करके होता था जिसके पहले शहर, कस्बे में मुनादी कराई जाती थी कि अमुक पार्टी के अमुक नेता आज इस समय घोषित स्थान पर जनसभा करेंगे जिसमें यथा समय पहुंच कर उनके विचार सुनिये। मुनादी करने वाला कोई और नहीं बल्कि पार्टी का ही कोई सजग व वाक कला में सिद्ध हस्त कार्यकर्ता होता था जो अपने नेता के गुणों को भी साथ-साथ बताता चलता था। उदाहरण के तौर पर जब भाजपा (जनसंघ) के नेता अटल बिहारी वाजपेयी किसी शहर में जनसभा करने जाते थे तो मुनादी कराई जाती थी कि ‘संसद में अपनी सिंह गर्जना से सरकार को हिलाने वाले ओजस्वी वक्ता श्री अटल बिहारी वाजपेयी के विचार सुनने के लिए भारी संख्या में इतने समय पर अमुक स्थान पर पहुंचीये’ इसी प्रकार जब कांग्रेस की तरफ से प्रधानमन्त्री पद पर बैठी इन्दिरा गांधी किसी शहर में जनसभा करने जाती थीं तो मुनादी कराई जाती थी कि ‘गरीबों की मसीहा और राष्ट्र को नई दिशा देने वाली महान नेता प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी के विचार जानने के लिए अमुक स्थान पर भारी संख्या में पधारें’ परन्तु धीरे-धीरे इन्दिरा जी ने इसमें परिवर्तन किया और 1969 में बैंक राष्ट्रीयकरण करने के बाद जब उनकी सरकार के वित्त मन्त्री स्व. मोरारजी देसाई ने उनसे विद्रोह किया और उनके साथ कांग्रेस के लगभग सभी प्रमुख नामचीन्ह नेता एक गुट में हो लिये तो इन्दिरा गांधी ने बजाय जनसभाएं आयोजित करने के ‘रैलियां’ करने की परंपरा शुरू की जो कि कम्युनिस्ट देशों की प्रचार शैली समझी जाती थी।
1971 के शुरू में हुए लोकसभा चुनावों में इन्दिरा कांग्रेस को तूफानी सफलता मिली तो उन्होंने धीरे-धीरे रोड शो करने शुरू किये। इसमें उनकी व्यक्तिगत लोकप्रियता प्रमुख रही क्योंकि लोग घंटों इन्तजार करके उन्हें देखने के लिए बेताब रहते थे। आजकल चुनावी रैलियां करना आम बात हो गई है जिसका उपयोग नेता जनता में अपना प्रभाव दिखाने के लिए करते हैं। टी.वी. आ जाने की वजह से अब जनसभाओं का प्रचलन इस डर से बन्द हो गया है कि कहीं लोग यथोयोग्य संख्या में उपस्थित ही न हों इसलिए कार्यकर्ताओं पर रैली स्थल पर भीड़ जुटाने की जिम्मेदारी हर पार्टी डालती है। जहां तक रोड शो का सवाल है तो यह नेता की निजी लोकप्रियता पर निर्भर करता है जिसमें आज के दौर में प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी अव्वल नम्बर पर हैं। इसलिए स्व. राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी का आकलन बिल्कुल सही था कि श्री मोदी में जनता की नब्ज पहचानने की वही कला है जो इंदिरा गांधी में थी। उनकी निजी लोकप्रियता के आसपास कोई दूसरा नेता नहीं माना जाता है। कांग्रेस में यह फख्र राहुल गांधी व प्रियंका गांधी को जरूर है मगर इसके पीछे उनका इन्दिरा गांधी का पोता-पोती होना प्रमुख माना जाता है। यह आकर्षण एक जमाने में श्रीमती सोनिया गांधी के साथ भी था।
50 साल पहले नेता किस तरह अपने चुनाव प्रचार के नये-नये तरीके ईजाद करते थे इसका उदाहरण 1971 के ही चुनाव है। उस समय देहरादून की लोकसभा सीट से कांग्रेस के कद्दावर नेता व केन्द्रीय मन्त्री रहे श्री महावीर त्यागी चुनाव लड़ रहे थे। उनके मुकाबले में जनसंघ के प्रत्याशी स्व. नित्यानन्द स्वामी थे। यह स्वामी वही थे जो 2000 में उत्तरखंड राज्य बनने पर इसके पहले मुख्यमन्त्री बने थे। इसके साथ निर्दलीय जोशीले भाषण देने वाले और घोड़े पर बैठ कर अपना चुनाव प्रचार करने वाले प्रत्याशी स्व. ठाकुर यशपाल सिंह खड़े थे। इन सब प्रत्याशियों के बीच एक और निर्दलीय प्रत्याशी ‘चरण छू’ खड़े हुए थे। उनके चुनाव प्रचार का तरीका गजब का था। वह जहां भी लोगों की कुछ भीड़ देखते वहीं अपनी सभा इस तकिया कलाम से शुरू कर देते कि ‘भाइयों और बहनों आप ही हो मेरी संसद और मैं आपका प्रधानमन्त्री। भाइयों मुझे वोट दोगें तो आपकी पूरी सेवा करूंगा और आपके चरणो में पड़ा रहूंगा।’ उनका असली नाम क्या था मुझे अब याद नहीं रहा मगर वह पूरे चुनाव क्षेत्र में ‘चरण-छू’ के नाम से प्रसिद्ध थे। इसकी वजह यह थी कि वह जिस भी जवान या बूढे़ स्त्री-पुरुष को देखते उसके ही सबसे पहले पैर छूते थे। किसी अजनबी के पैर छूने पर सदाशयता बरसनी स्वाभाविक प्रक्रिया होती है। इसी वजह से उनका चुनाव निशान ‘शेर’ प्रत्येक व्यक्ति को याद हो गया था और उन्हें सब ‘चरण छू’ कहने लगे थे। देहरादून सीट का जब नतीजा आया तो चरण छू को जनसंघ प्रत्याशी से कुछ कम वोट ही मिले जबकि जीते निर्दलीय ठाकुर यशपाल सिंह जो मूलतः गूजर थे। स्व. महावीर त्यागी चुनाव 40 हजार से अधिक मतों से हार गये थे। लोगों को आश्चर्य हो रहा था कि चरण छू को इतने अधिक वोट हजारों की संख्या में कैसे मिल गये ?
दशकों पहले ऐसे मनोरंजक नजारे चुनाव के समय में प्रायः पूरे देश में ही देखने-सुनने को मिल जाते थे परन्तु वर्तमान में चुनाव प्रचार का मशीनीकरण और वाणिज्यीकरण हो गया है जिसकी वजह से नेता व जनता के बीच की दूरियां भी बढ़ती जा रही हैं। इसकी निश्चित रूप से सुरक्षा एक वजह है क्योंकि समाज में हिंसा का वातावरण बना है। जबकि लोकतन्त्र सब्र का ही दूसरा नाम भी होता है क्योंकि भारत को लोकतान्त्रिक व्यवस्था देने वाले महात्मा गांधी ने आजादी के समय ही एक अमेरिकी पत्रकार ‘लुई फिशर’ को दिये गये साक्षात्कार में साफ कहा था कि लोकतन्त्र में चीजें देर से मिल सकती हैं मगर जो भी मिलती हैं वे नागरिकों के संवैधानिक अधिकार के रूप में पुख्ता तौर पर मिलती हैं।

– राकेश कपूर 

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