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चुनावी हिंसा और चुनाव आयोग

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में चुनाव पूरे हो चुके हैं। जाहिर है इन राज्यों में मतदान चुनाव आयोग की निगरानी में ही हुआ है। चुनावों को बेशक कमोबेश शान्तिपूर्ण बताया गया परन्तु मध्य प्रदेश में कुछ एेसी घटनाएं भी हुई हैं जिनकी तरफ ध्यान देना जरूरी है क्योंकि अभी राजस्थान व तेलंगाना में चुनाव होने हैं। मध्य प्रदेश उत्तर भारत का बहुत शान्तिपूर्ण राज्य माना जाता है हालांकि इसका समाज अर्ध सामन्ती है इसलिए यहां इसका स्वरूप भी इसकी विषैली रूढि़यों से ग्रस्त रहता है। इसमें बेशक भौतिकवादी दृष्टि का भी समावेश बदलते समय के अनुरूप जरूर हुआ है जैसे कि पिछले दिनों उज्जैन में एक 11 वर्षीय कन्या के साथ बलात्कार की घटना हुई थी और उसकी मदद करने पूरे शहर में कोई भी आगे नहीं आया था किन्तु इसी शहर के बाहरी छोर पर बने एक विद्यालयनुमा आश्रम के संन्यासी दिखने वाले प्रबन्धक की जब उस पर नजर पड़ी तो उसने उसे आश्रय दिया। यह सांस्कृतिक परंपरा का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण था मगर दूसरी तरफ एक आदिवासी नागरिक पर कथित ऊंची जाति के एक पार्टी राजनैतिक नेता ने उस पर सरेआम पेशाब भी किया जो कि अर्ध समन्ती समाज की क्रूरता व विद्रूपता का द्योतक था। मगर चुनावों के दौरान व्यापक हिंसा होने का मध्य प्रदेश में कोई बहुत बड़ा इतिहास प. बंगाल की भांति नहीं है। हां छत्तीसगढ़ में जरूर नक्सली आन्दोलन के चलते हिंसा व चुनावों का बहिष्कार होता आ रहा था जिसे राज्य के मुख्यमन्त्री भूपेश बघेल ने काबू करने में सफलता प्राप्त की।
मध्य प्रदेश के चम्बल व ग्वालियर संभाग में भी पूर्व में चुनावी हिंसा समूहगत विद्वेश के चलते होती रही है परन्तु एेसा पहले कभी नहीं हुआ जो गत शुक्रवार को हुए मतदान के दौरान हुआ। मतदान के समय एक सम्प्रदाय विशेष के लोगों को घंटों लाइन में खड़ा करके उन्हें मतदान करने से वंचित करने के प्रयास किये गये। यह घटना ग्वालियर शहर की दक्षिण सीट पर ही घटी। एेसे मामले कई और चुनाव क्षेत्रों से भी प्रकाश में आये। इसके अलावा इस अंचल में विभिन्न दलों के प्रत्याशियों तक को मतदान वाले दिन नजरबन्द करना पड़ा और एक-दो प्रत्याशी तो हिंसा में घायल तक हो गये। शारीरिक हिंसा के अलावा नागरिकों को मतदान से वंचित करने के किसी भी हल्के प्रयास को लोकतन्त्र में किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है। यह जघन्य अपराध चुनाव आयोग द्वारा नियुक्त चुनावी मशीनरी के साये तले ही हो सकता है क्योंकि मतदान केन्द्रों पर तैनात कर्मचारियों से लेकर पुलिस-अर्द्धसैनिक बलों तक और पटवारी से लेकर जिला कलेक्टर तक का प्रशासन चुनाव आचार संहिता लगने के बाद चुनाव आयोग के नियन्त्रण में आ जाता है।
राज्य में काबिज सरकार का कोई भी कारिन्दा इन दिनों सीधे चुनाव आयोग के प्रति जवाबदेह रहता है। इसकी व्यवस्था भारत के संविधान में बहुत ही पुख्ता तौर पर की गई है। इससे भी ऊपर स्वयं चुनाव आयोग प्रत्येक चुनाव में नागरिकों से अपील करता है कि वे अधिक से अधिक संख्या में मतदान करके लोकतन्त्र को मजबूत बनाये। पहले इस आशय के बड़े-बड़े विज्ञापन भी आयोग अखबारों में दिया करता था। हो सकता है कि इस बार भी मध्य प्रदेश के अखबारों व न्यूज चैनलों में उसने इस प्रकार के इश्तहार दिये हों। प्रत्येक राजनैतिक दल का नेता भी अपनी चुनावी सभाओं का अन्त भी यही कहते करता है कि ‘भाइयों- बहनों मतदान वाले दिन भारी संख्या में मतदान करके मेरी पार्टी को जिताइये’। मसलन पूरा लोकतन्त्र ही मतदान पर और नागरिक को मिले एक वोट के संवैधानिक अधिकार पर टिका हुआ है। मगर दुर्भाग्य यह है कि एक ओर चुनाव आयोग बूढे़ व बुजुर्गों के लिए घर बैठे ही मतदान करने की व्यवस्था करता है और दूसरी तरफ नाकारा प्रशासनिक-प्रबन्धकीय व्यवस्था नागरिकों के एक वर्ग के समूहों को ही मतदान से वंचित रखने के कुत्सित प्रयास करती है। वोट का अधिकार गांधी बाबा न किसी व्यक्ति की जाति या धर्म अथवा अमीरी-गरीबी या पुरुष-स्त्री देखकर दिलवा कर गये हैं बल्कि एक समान रूप से हर अमीर-गरीब को बिना किसी भेदभाव के दिलवा कर गये हैं और चुनाव आयोग को बाबा साहेब अम्बेडकर संविधान लिख कर बांध कर गये हैं कि हर वैध नागरिक को वोट देने का अधिकार सौंपने का परम कर्त्तव्य चुनाव आयोग को है। इसमें अगर कोताही होती है तो निश्चित रूप से जिम्मेदारी चुनाव आयोग को ही लेनी होगी।
चुनाव आयोग को उन लोगों को पुलिस समेत सभी प्रकार का संरक्षण देना होगा जिन्हें कुछ राजनैतिक लोग जबर्दस्ती छल-बल से मतदान करने से रोकने का प्रयास करते हैं। आयोग किसी भी कानून तोड़ने वाले व्यक्ति के प्रति सहानुभूति नहीं रख सकता है, चाहे वह उस राज्य का बड़े से बड़ा राजनीतिज्ञ हो अथवा कोई सामाजिक या आर्थिक मठाधीश हो। लोकतन्त्र लोगों के अधिकारों से ही बनता है और इनमें सबसे पवित्र अधिकार वोट देने का होता है क्योंकि उसी से पूरा लोकतान्त्रिक ढांचा खड़ा होता है जिसमें स्वयं चुनाव आयोग भी आता है। अतः राजस्थान व तेलंगाना में इस प्रकार की एक भी शिकायत नहीं आनी चाहिए। इसके लिए चुनाव आयोग को चाक-चौबन्द इंतजाम करने चाहिए।

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