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प. बंगालः हंगामा है क्यूं बरपा

प. बंगाल विधानसभा के बजट सत्र के अन्तिम दिन विगत सोमवार को सदन के भीतर सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और विपक्षी दल भाजपा के विधायकों के बीच मारपीट और गुत्थमगुत्था हुई है उसे निश्चित रूप से संसदीय लोकतन्त्र के माथे पर कलंक के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता।

प. बंगाल विधानसभा के बजट सत्र के अन्तिम दिन विगत सोमवार को सदन के भीतर सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और विपक्षी दल भाजपा के विधायकों के बीच मारपीट और गुत्थमगुत्था हुई है उसे निश्चित रूप से संसदीय लोकतन्त्र के माथे पर कलंक के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता। परन्तु ऐसा  नजारा पेश करने वाला प. बंगाल अकेला प्रदेश भी नहीं है। इससे पूर्व 90 के दशक में उत्तर प्रदेश विधानसभा में इससे भी भीषण नजारा हम देख चुके हैं। उसके बाद तमिलनाडु विधानसभा में भी कुछ ऐसा  ही दृश्य हमें देखने को मिला। परन्तु विगत वर्ष देश की संसद के उच्च सदन राज्यसभा में भी हमने ऐसे  दृष्यों को देखा जिनकी दुनिया के सबसे बड़े संसदीय लोकतन्त्र कहे जाने वाले भारत में कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। सांसदों और संसद के सुरक्षाकर्मियों या मार्शलों के बीच हाथापाई की ऐसी नौबत तक आ गई कि कुछ महिला सांसदों ने अपने साथ मारपीट तक किये जाने की शिकायत की। ऐसी  ही वारदात की शिकायतें प. बंगाल विधानसभा के सत्तारूढ़ व विपक्षी महिला विधायकों ने भी की हैं मगर ऐसा  करने के आरोप एक-दूसरे के दल के विधायकों पर लगाये हैं। 
लोकतन्त्र में जब नौबत इस हद तक आ जाती है तो यह निष्कर्ष निकालने में जरा भी देर नहीं लगती कि ‘विचारों’ का ताकत या बाहुबल से मुकाबला करने की कोशिश की जा रही है जिसका लोकतन्त्र में पूरी तरह निषेध है। मगर जब जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों के किसी भी सदन के सदस्य आपस में ही हिंसा पर उतारू होते हैं तो इस भ्रम का पर्दा उतर जाता है कि उनकी शिक्षा-दीक्षा लोकतन्त्र की मर्यादित नैतिक प्रणाली के मानदंडों के अनुरूप हुई है? यह मनोवृत्ति किसी भी चुने हुए सदस्य में तभी जागृत हो सकती है जबकि ‘अपने चुने जाने की प्रणाली के दौरान भी उसने ऐसे  ही साधनों का प्रयोग किया हो’। पूरे मामले में यह मुद्दा सबसे अधिक महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि इसका सीधा सम्बन्ध देश की चुनाव प्रणाली से जाकर जुड़ता है। चुनाव प्रणाली के मुख्य खिलाड़ी राजनीतिक दल ही होते हैं अतः उनके भीतर की वह राजनीतिक संस्कृति मुख्य भूमिका में आ जाती है जिसकी उपज ये चुने हुए जनप्रतिनिधि होते हैं। अतः सदनों के भीतर यदि हमें हिंसा को रोकना है तो जड़ पर प्रहार करना होगा और राजनीतिक दलों की संस्कृति में ही मूलभूत परिवर्तन लाने होंगे। परन्तु यह भी सत्य है कि हम फिलहाल जिस दौर में जी रहे हैं उसमें राजनैतिक बौद्धिक क्षमता की अहमियत घटती जा रही है और उसकी जगह नये-नये सर्कसी लोकप्रिय करतब लेते जा रहे हैं। यदि ऐसा  न होता तो तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता दीदी आशनसोल उप चुनाव से फिल्म अभिनेता रहे शत्रुघ्न सिन्हा को कभी अपनी पार्टी का प्रत्याशी तब न बनातीं जबकि उनके पास पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी के सुपुत्र अभिजीत मुखर्जी से लेकर यशवन्त सिन्हा जैसे विचार कुशल नेता मौजूद हैं।  प. बंगाल विधानसभा में हुई हाथापाई के सन्दर्भ में सोचने वाली बात यह है कि जब कलकत्ता उच्च न्यायालय ने विगत दिनों राज्य के बीरभूम जिले के रामपुरहाट कस्बे के एक गांव में आठ लोगों को जिन्दा जला कर मार देने के वीभत्स हत्याकांड की जांच सीबीआई से कराने का आदेश जारी कर दिया था तो उसके बाद विधानसभा में इस मुद्दे पर बखेड़ा करने का क्या औचित्य बनता था जबकि यह भी साफ था कि यह कांड किसी राजनैतिक बदले की कार्रवाई नहीं था और एक ही सम्प्रदाय के लोगों के बीच अपनी-अपनी ताकत का रुआब गालिब करने का कारनामा था। 
देश के गृहमन्त्री ने भी इसे राजनैतिक संघर्ष नहीं कहा। इसके बावजूद विधानसभा के भीतर सत्ता और विपक्ष के विधायकों के बीच हिंसा हो गई। इसका मतलब यही निकलता है कि जहां सत्ता में बैठी तृणमूल कांग्रेस इस मुद्दे पर विपक्षी विधायकों की आलोचना सुनने को तैयार नहीं थी वहीं विपक्षी भाजपा भी कानून-व्यवस्था की स्थिति को लेकर सरकार को माफ करने की मुद्रा में नहीं थी। लोकतन्त्र में विपक्ष को सरकार की आलोचना और उसे सड़कों पर बने माहौल का आइना दिखाने की पूरी इजाजत होती है। इसके लिए विपक्षी सदस्य सदन के भीतर सरकार से जवाब तलबी करने के विभिन्न अहिंसक लोकतान्त्रिक तरीके भी अपनाते हैं और सत्ता पक्ष को उत्तेजित करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते मगर इसका जवाब किसी भी तौर पर हिंसक तरीके से विपक्ष को चुप करवाना नहीं होता। बल्कि ऐसे  मामलों में तो सत्ता पक्ष के सदस्यों की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है जिससे उन्हीं की सरकार विपक्ष द्वारा लगाये जा रहे आरोपों से बरी हो सके। मगर विधानसभा के भीतर की व्यवस्था के संरक्षक अध्यक्ष होते हैं और उनका आदेश ही अन्तिम होता है । अध्यक्ष श्री बिमान बनर्जी ने पांच भाजपा विधायकों को सत्र के अंतिम दिन ही पूरे सत्र के लिए निष्कासित कर दिया जिसकी समीक्षा अगले सत्र के शुरू होने पर की जायेगी। परन्तु इस तथ्य को भी लोकतन्त्र में प्रत्येक विधानसभा अध्यक्ष को ध्यान में रखना चाहिए कि जब किसी सदस्य को सदन से निलम्बित किया जाता है तो उसके साथ वे लाखों मतदाता भी लम्बित हो जाते हैं जिन्होंने उस सदस्य को अपने एक वोट की ताकत से चुना होता है।

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