भारत की संस्कृति बहुधर्मी अर्थात विभिन्न मतों को मानने वाली कही जाती है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता दो विरोधी मतों के बीच रचनात्मक संवाद की भी रही है परन्तु इसी देश में जिस चतुर्वर्णा सामाजिक व्यवस्था का पौधा रौंपा गया उसने इस संवाद की परिपाठी को बहुत नुक्सान पहुंचाया और समाज में आपसी वैमनस्यता को भी बढ़ावा दिया। चतुर्वर्ण व्यवस्था का बाद में जिस तरह जातिवाद के रूप में विकास हुआ उसकी परिणिती मनुष्यों के बीच में ही आपस में छुआछूत की हुई और कुछ विशेष जातियों में पैदा होने वाले लोगों को अछूत या अन्त्यज तक कहा जाने लगा।
यह बुराई केवल हिन्दू समाज में ही व्याप्त थी अतः इस समाज में सुधारों के लिए मध्यकाल के बाद कई आन्दोलन भी चले। मगर यदि हम भारत के प्राचीन इतिहास को देखें तो ईसा जन्म से छह शताब्दी पूर्ण जो बैद्ध धर्म भारत में फैला उसने इस जातिवाद और छुआछूत का जड़ से खात्मा किया और मानवतावाद को शिखर पर रखा जिसमें प्रत्येक मानव को एक समान भाव व रूप से देखने की दृष्टि प्रमुख थी। इसलिए यह बेवजह नहीं है कि भारत के संविधान निर्माता बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने अपनी मृत्यु से एक वर्ष पूर्व अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। बाबा साहेब ने हिन्दू धर्म में फैली छुआछूत की बीमारी को झेला था और अपने समय के सबसे ज्यादा पढे़-लिखे व विद्वान राजनेता होने के बावजूद जातिवाद के जहर का दंश देखा था। मगर इसके समानान्तर भारत के इतिहास की यह भी हकीकत है कि भारत से ही निकले बौद्ध धर्म का सफाया कालान्तर में भारत से ही हो गया जबकि दुनिया के बहुत से दक्षिण-एशियाई देशों में यह आज भी मौजूद है। भारत में नाममात्र के ही बौद्ध रह गये हैं। वैसे तो हिन्दू संस्कृति भी समानता व भाईचारे और अहिंसा की वकालत करती है और सभी मतों का सम्मान करने की हिमायती है परन्तु समाज में एेसे लोग भी कम नहीं हैं जो अपने विश्वासों और आस्था को दूसरों पर लादना चाहते हैं।
भारत में भगवान राम से लेकर भगवान बुद्ध व भगवान महावीर के मानने वाले लोगों को भी कुछ लोग अर्ध हिन्दू कहते हैं क्योंकि इनके धर्मों की उत्पत्ति भारत की धरती से ही हुई। इनमें सिख मत भी आता है परन्तु एेसे लोगों की भी कमी नहीं है जो इन विभिन्न मतों की स्थापनाओं से चिढ़ते हैं और उनके पालन करने पर हिन्दू धर्म का अपमान तक मानते हैं। आज देश में जब चारों तरफ अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण को लेकर भक्तिमय वातावरण तैयार किया जा रहा है तो दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले के एक गांव में दलितों द्वारा बुद्ध कथा का आयोजन किये जाने पर उनके साथ मारपीट व हिंसा की जाती है।
हिन्दू धर्म में ही भगवान बुद्ध को भी विष्णु का एक अवतार माना गया है। यदि उनकी कथा से कुछ लोगों को आपत्ति होती है तो उन्हें किस श्रेणी में रखा जायेगा? जाहिराना तौर पर उन्हें हिन्दू धर्म का समर्थक मानना उचित नहीं होगा क्योंकि हिन्दू धर्म में तो सभी मतों का आदर किया जाता है औऱ हर धर्म की धार्मिक पुस्तक को बराबर का सम्मान दिया जाता है। हिन्दू धर्म में साकर ब्रह्म की पूजा का भी विधान है और निराकार ब्रह्म की साधना की भी व्यवस्था है। जिस गीता को हिन्दू धर्म की अलौकिक पुस्तक माना जाता है और जिसे स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सुनाया उसमें कहीं एक स्थान पर भी मूर्ति पूजा का सन्दर्भ नहीं आता है। इसी प्रकार भगवान श्रीराम को लेकर भी सगुण व निर्गुण राम की व्याख्याएं हैं। हिन्दू धर्म में तुलसीदास के दशरथ पुत्र राम भी हैं और कबीर दास के निर्गुण निराकार राम भी हैं। भक्त शिरोमणी रैदास भी उसी निराकार राम की उपासना करते हैं। दक्षिण से आकर काशी में बसे स्वामी रामानन्द भी अपने शिष्य कबीर को उसी निराकरी राम का भक्त बनकर समाज में व्याप्त पोगापंथी व पाखंड को समाप्त करने की प्रेरणा देते हैं जिसके चलते मनुष्य ही दूसरे मनुष्य को नीचे रख कर आंकता है। कबीर को सिख मत के अनुसार राम का दर्जा दिया गया है।
हुए बिरखत बनारस रैन्दा रामानन्द गुसांईं
अमृत बेले उठ के जान्दा गंगा न्हावन तांई
अग्गे ही ते जायके लम्बा पया कबीर कथाईं
पैरी टुंग उठा लेया बोलो राम सिख समझाई
जो लोहा पारस सोहै चन्दन वास निम्ब महकाई
राम कबीरा भेद न भाई राम कबीरा एक है भाई
अब सवाल यह है कि यदि कानपुर के गांव में कुछ दलित लोग बुद्ध कथा का आयोजन करते हुए हिन्दू समाज में फैली जातिगत बुराई का जिक्र भगवान बुद्ध के सिद्धान्तों के अनुसार करते हैं और मानव धर्म की मान्यताओं का बौद्ध धर्म में दिये गये विवरण के अनुसार खुलासा करते हुए मूर्ति पूजा और ब्राह्मणवाद की मीमांसा करते हैं तथा भारत के संविधान के प्रारूप पर प्रकाश डालते हैं तो उससे उन लोगों को क्या आपत्ति हो सकती है जो खुद को हिन्दू धर्म का ठेकेदार मानते हैं और इसकी मीमांसा अपने अंध विश्वासों के अनुरूप करते हैं? जाहिर तौर पर यह उस राम का ही अपमान है जो जीवन पर्यन्त मर्यादा पुरुषोत्तम रहे और जिन्होंने समाज को सर्वदा मर्यादा में रहने की शिक्षा दी और अपने शत्रु रावण के साथ भी मर्यादित व्यवहार करने का पाठ पढ़ाया। यदि हम गौर से देखें तो भारत के समाज में जातिवाद एेसा जहर है जिसने बौद्ध धर्म तक को निगल लिया।
बौद्ध धर्म जातिवाद का घनघोर विरोधी है और वह जन्म से प्रत्येक व्यक्ति को एक समान समझता है। जब भारत का संविधान यह कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपना धर्म मानने की स्वतन्त्रता है और वह उसका प्रचार-प्रसार कर सकता है तो बुद्ध कथा के आयोजन से किसी को क्या पीड़ा हो सकती है। बुद्ध को तो हिन्दू धर्म भी एक अवतार मानता है। फिर यह हिन्दू धर्म का विरोध कहां से और कैसे हो गया। मगर कुछ कट्टरपंथी लोग समाज में हर हालत में जन्मगत आधार परजातिवाद को पनपने देना चाहते हैं क्योंकि इससे वे स्वयं को ऊंचा दिखाने में सहजता पाते हैं और बदलते समय में भी समाज को पाखंड की बेड़ियों में जकड़े रहना देखना चाहते हैं। यदि स्वतन्त्रता आन्दोलन के समानान्तर ही महात्मा गांधी छुआछूत के खिलाफ आन्दोलन न चलाते तो आज हमारा दलित समाज हिन्दू समाज का अंग न रह पाता। हम मूर्तिपूजक या निराकार उपासक हो सकते हैं परन्तु मानवता के द्रोही नहीं हो सकते। क्योंकि मानवता से ही सभी धर्म उपजे हैं। मनुष्य द्वारा मनुष्य को ही उत्पीड़ित किये जाने के विरोध में ही नये विचारों और दर्शन की उत्पत्ति होती है। बौद्ध धर्म और भगवान बुद्ध तो भारत की जमीन से पूरी दुनिया को दी गई वह रोशनी है जिसके आलोक में नहा कर ही महात्मा गांधी शान्ति व अहिंसा के पुजारी बने और बाबा साहेब अम्बेडकर दलितोद्धारक बने। दुनिया को ये सौगातें कम नहीं हैं।
– राकेश कपूर