िसडनी के गोल्ड कोस्ट में चल रहे राष्ट्रमंडल खेलों में भारत की बेटियों आैर बेटों ने लगातार स्वर्ण, रजत और कांस्य पदक जीतकर देश के गौरव को बढ़ाया है। यद्यपि पदक का खजाना बढ़ाने में महिलाओं का योगदान ज्यादा है। पदक वीरों ने अपनी मेहनत और जज्बे के चलते कमाल कर दिखाया। अब इन खिलाड़ियों के संघर्ष की कहानियां सामने आ रही हैं। तमाम मुश्किल परिस्थितियों का सामना करते हुए जिस तरह से बेटियों और बेटों ने अपना व देश नाम रोशन किया उससे साबित हो गया है कि जीवन में कितने भी उतार-चढ़ाव हों, जो सब स्थितियों का चुनौतीपूर्वक ढंग से मुकाबला करते हुए अपने भीतर ऐसी ऊर्जा संग्रहित कर लेते हैं कि किसी को भी उनसे टक्कर लेना मुश्किल हो जाता है।
भारत में हमेशा सामाजिक विषमताओं का ढिंढाेरा पीटा जाता है। अमीर और गरीब की खाई तो खैर है ही, लेकिन कड़ी मेहनत और जीवन के संघर्ष में भारतीय बेटियां आैर बेटे सामाजिक विषमताओं की आग में तपकर कुंदन बनकर लौटे हैं। खेलों में भाग ले रहे भारतीय कोई आर्थिक रूप से सम्पन्न पिरवारों में पैदा नहीं हुए जिन्हें बचपन से ही जीवन की हर सुविधाएं उपलब्ध हों। भारोत्तोलन में स्वर्ण पदक विजेता पूनम यादव को ही ले लीजिए, उनके पिता ने उसे ट्रेनिंग दिलवाने के लिए कर्ज लिया था। घर भी पूनम यादव और उसकी बहन चलाती है। पूर्वोत्तर को हमेशा नजरंदाज किया जाता रहा है। मणिपुर की संजीता चानू, मीराबाई चानू ने दो स्वर्ण पदक भारत की झोली में डाल दिए हैं और दीपक लाठेर ने कांस्य पदक जीता है। पूर्वोत्तर के राज्यों की भारत की आबादी में हिस्सेदारी 3.7 फीसदी है लेकिन इन राज्यों के युवा खेलों में अपनी रुचि के लिए जाने जाते हैं। खासतौर पर इनमें मणिपुर के युवा हैं। खेल संस्कृति को बढ़ावा देने में पूर्वोत्तर के खिलाड़ियों का बड़ा योगदान है। यहां मैरीकॉम और कुंजोरानी देवी ने अपनी बाॅक्सिंग और वेटलिफ्टिंग अकादमी खोली है। इसके अलावा इन खिलाड़ियों के प्रतियोगिताओं में शामिल होने का खर्च भी अकादमी वहन करती है। भारतीय फुटबाल के आइकॉन बाईचुंग भूटिया ने पूर्वोत्तर के राज्यों में अपना फुटबाल स्कूल खोला हुआ है। दिल्ली और मुम्बई में भी भूटिया के स्कूल संचालित हो रहे हैं।
अरुणाचल, असम और मणिपुर के 82.77 फीसदी लोगों का मानना है कि फिजिकल एजूकेशन और स्पोर्ट्स की इन क्षेत्रों के युवाओं को ड्रग एडिक्शन, एचआईवी संक्रमण, शराब की लत और आतंकी गतिविधियों में भागीदार बनने से रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। जरूरत है युवाओं को एक दिशा देने की और पूर्वोत्तर के लोगों को शेष देश से जोड़ने की। संजीता चानू स्वर्ण पदक लेते समय आंसू बहा रही थी क्योंकि उसने विपरीत परििस्थतियों में पदक जीता। इसकी वजह उनकी वर्ल्ड चैम्पियनशिप के दौरान लगी पीठ की चोट थी जिससे वह आज तक जूझ रही हैं। ग्लासगो राष्ट्रकुल खेलों में स्वर्ण पदक जीतने के बाद सभी स्वर्ण पदक विजेताओं को अर्जुन अवार्ड दे दिया गया था लेकिन संजीता चानू को नहीं दिया गया, जिसके लिए उसे अदालत की शरण लेनी पड़ी थी। यह उसके साथ सत्ता का अन्याय था। स्वर्ण पदक विजेता मीराबाई चानू ने वेटलिफ्टिंग की ट्रेनिंग शुरू की थी तब उनके घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। डाइट चार्ट के अनुसार वह रोज चिकन आैर दूध भी नहीं ले पाती थी लेकिन इस स्वर्ण पदक ने उसके सारे गम भुला दिए।
हरियाणा के झज्जर की मनु भाकर ने जो धाकड़पन दिखाया कि वह गोल्डन गर्ल बन गई। उसकी मेहनत और लगन का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसने किसी बड़ी शूटिंग रेंज में ट्रेनिंग लेने की बजाय अपने परिवार द्वारा चलाए जा रहे स्कूल में ही अभ्यास किया और इस मुकाम को हासिल किया। निशानेबाजी में स्वर्ण पदक जीतने वाले जीतू राय का सफर भी कम मुश्किल भरा नहीं। पिता की मौत के बाद उसने भारतीय सेना की गोरखा रेजिमेंट ज्वाइन की थी। साथ ही उसने अपने खेल पर ध्यान दिया। कभी नेपाल के छोटे से गांव में मक्के और आलू की फसल बोने वाले आैर घर के पास तबेले में भैंसें और बकरियों के साथ वक्त बिताने वाले जीतू राय ने कोई कम संघर्ष नहीं किया। पुरुष वेटलिफ्टिंग में रजत पदक विजेता गुरुराजा एक ट्रक ड्राइवर का बेटा है। कुछ कर दिखाने का जज्बा ही इन सब पदकवीरों की सफलता का आधार है। देश में प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं, जरूरत है राज्य सरकारों को प्रतिभाओं को खोजकर उन्हें प्रोत्साहित करने की। सभी पदक विजेता भारत के युवाओं के लिए रोल मॉडल बन सकते हैं। युवाओं को ट्रेनिंग देने के लिए इनकी सेवाएं ली जा सकती हैं क्योंकि इंडिया मांगे मोर। अभी हमें खेलों के क्षेत्र में बहुत कुछ करना है।