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कच्चे तेल के वैश्विक

विश्व स्तर पर कच्चे पैट्रोलियम तेल की बढ़ती कीमतों के विरुद्ध पहली बार दुनिया के प्रमुख तेल उपभोक्ता देशों का एक मंच पर आना बताता है कि तेल उत्पादक देशों का संगठन (ओपेक) वैश्विक अर्थव्यवस्था को अपनी तेल ताकत के बूते पर बन्धक बना कर नहीं रख सकता है।

विश्व स्तर पर कच्चे पैट्रोलियम तेल की बढ़ती कीमतों के विरुद्ध पहली बार दुनिया के प्रमुख तेल उपभोक्ता देशों का एक मंच पर आना बताता है कि तेल उत्पादक देशों का संगठन (ओपेक) वैश्विक अर्थव्यवस्था को अपनी तेल ताकत के बूते पर बन्धक बना कर नहीं रख सकता है। अमेरिका के नेतृत्व में दुनिया के छह देशों ने जिस तरह यह निर्णय लिया है कि वे ओपेक देशों द्वारा मांग के अनुरूप तेल उत्पादन न बढ़ाये जाने की जिद का मुकाबला अपने आरक्षित तेल भंडारों के मुंह खोल कर करेंगे, उसके असर से फौरी तौर पर अन्तर्राष्ट्रीय  बाजार में कच्चे तेल के भावों पर असर पड़ सकता है मगर यह  दीर्घकालीन उपाय नहीं है क्योंकि कच्चे तेल की उपलब्धता तेल उत्पादक देशों द्वारा की जाने वाली आपूर्ति पर ही निर्भर करती है लेकिन अगर हम प्राकृतिक स्रोतों के न्यायपूर्ण बंटवारे की दृष्टि से देखते हैं तो ओपेक देशों द्वारा तेल उत्पादन में मांग के अनुरूप वृद्धि न किया जाना मानवीय मूल्यों के विरुद्ध है क्योंकि पूरी दुनिया से कोरोना संक्रमण की लगभग समाप्ति के बाद अर्थव्यवस्था में उछाल आ रहा है जिसके परिणामस्वरूप पैट्रोल व डीजल की मांग में वृद्धि हो रही है अतः ओपेक देशों का यह स्वाभाविक कर्त्तव्य बनता है कि वे यथानुरूप उत्पादन में वृद्धि करके विश्व आर्थिक उत्थान में सहयोगी बनें। इसमें कोई दो राय नहीं है कि कुदरत ने जिन देशों को भी उनकी जमीन में छिपे तेल से नवाजा है वह उनकी सम्पत्ति है मगर इस सम्पत्ति का उपयोग न्यायपूर्ण तरीके से पूरी दुनिया के आर्थिक विकास में होना चाहिए क्योंकि इन तेल सम्पन्न देशों की अर्थव्यवस्था भी दुनिया के दूसरे देशों के विकास और उनके पास उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के स्रोतों पर निर्भर करती है।
 पिछले छह महीने में कच्चे तेल के भावों में जिस तेजी का आना शुरू हुआ वह रुकने का नाम नहीं ले रहा है जिसकी वजह से अमेरिका जैसे देश में भी महंगाई कुलाचे मार रही है। इस देश में पैट्रोल, डीजल व गैस के भाव साठ प्रतिशत तक अधिक बढ़ चुके हैं। यही स्थिति दुनिया के दूसरे देशों की भी है क्योंकि पैट्रोल-डीजल के बढे़ भाव प्रत्येक जरूरी व उपभोक्ता वस्तु के दामों को परिवहन लागत की वजह से बढ़ा देते हैं। जहां तक भारत का सवाल है तो यहां पैट्रोल व डीजल के बढे़ दामों ने आम आदमी की कमर तोड़ कर रख दी है और महंगाई को काफी हद तक बढ़ा दिया है। भारत के पास तेल का आरक्षित भंडार पांच करोड़ गैलन का है जो केवल दस दिन की ही मांग को पूरा कर सकता है। इस आरक्षित भंडार में पिछले सात-आठ साल से कोई वृद्धि नहीं हुई है। तेल के आरक्षित भंडार की व्यवस्था 1998 में वाजपेयी सरकार के दौरान की गई थी । इसकी वजह आकसमिक आवश्यकताओं की आपूर्ति करना था जिससे राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आपदाकाल की आकस्मिकता का मुकाबला किया जा सके परन्तु बाद में हम इस मोर्चे पर ढीले पड़ गये। इसी प्रकार कच्चे तेल के घरेलू उत्पादन मोर्चे पर भी हम लचर पड़ते गये। 
एक दशक पूर्व जहां भारत की कुल खपत का 23 प्रतिशत उत्पादन देश में ही होता था अब केवल 15 प्रतिशत होता है।  बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में पैट्रोलियम पदार्थों को  अर्थव्यवस्था की जीवन रेखा कहा जा सकता है क्योंकि माल परिवहन के क्षेत्र में अब सड़क द्वारा ढुलाई किये जाने का हिस्सा 70 प्रतिशत से भी ऊपर पहुंच गया है। तेल खोज के क्षेत्र में बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का दौर शुरू हो जाने के बावजूद इसमें निजी निवेश में अपेक्षानुरूप वृद्धि नहीं हुई है जबकि दूसरी तरफ सरकारी क्षेत्र की ओएनजीसी (तेल व प्राकृतिक गैस आयोग) कम्पनी के बजट में कटौती तक की गई है। जबकि इस क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के लिए हमें तेल व गैस की खोज में लगी हुई कम्पनियों पर विशेष ध्यान देना चाहिए था। 
 80 के दशक में तत्कालीन केन्द्र सरकार ने इस बाबत आत्मनिर्भर होने की एक योजना तैयार की थी मगर वह सिरे नहीं चढ़ सकी थी क्योंकि 1984 में इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद  भारी राजनीतिक उलट-फेर हो गया था। मगर अब हमें इस तरफ ध्यान देना चाहिए और अपने कच्चे तेल के घरेलू उत्पादन में इजाफा करने के ठोस उपाय ढूंढने चाहिए। मगर वर्तमान परिस्थितियों में इससे भी ऊपर सवाल यह है कि तेल उत्पादक ओपेक देशों को किस तरह रास्ते पर लाया जाये और उन्हें उनकी जिम्मेदारी का एहसास कराया जाये। अमेरिका, चीन, ब्रिटेन, जापान, कोरिया व भारत ऐसे देश हैं जिनमें पैट्राेलियम पदार्थों की खपत सर्वाधिक होती है। इनमें से अमेरिका तेल उत्पादन के क्षेत्र में काफी आगे है मगर वह अपने तेल स्रोतों का दोहन भविष्य को देखते हुए पूरी क्षमता के साथ नहीं करता। जहां तक रूस का सवाल है तो वह भी तेल उत्पादन में किसी से कम नहीं है मगर वह इसका उपयोग अपने हितों को सबसे ऊपर रख कर ही करता है। 
दुनिया की तेजी से विकास करती अर्थव्यवस्थाओं में भारत व चीन का नम्बर पहले आता है। अतः दोनों के हित साझा है जिसकी वजह से ये दोनों देश अमेरिका के नेतृत्व में निजी आरक्षित तेल भंडार का उपयोग करने पर सहमत हुए हैं। मगर दूसरी तरफ हमें यह भी विचार करना होगा कि अरब देशों के साथ भारत के विशेष सम्बन्धों को देखते हुए पूर्व में इनमें से इराक व ईरान जैसे देशों के साथ तेल सप्लाई के बारे में विशेष अनुबन्ध होते रहे हैं। विशेष रूप से सद्दाम हुसैन के इराक के राष्ट्रपति रहते इस देश से तेल सप्लाई की विशेष व्यवस्था थी । अब ये सारी व्यवस्थाएं अमेरिका के बदलते तेवरों की वजह से चौपट हो चुकी हैं। इसके कारणों में जाने का यह वक्त नहीं है मगर इतना निश्चित है कि अमेरिका इस मुद्दे पर अपनी स्थिति मजबूत कर रहा है और रूस फिलहाल तेल उत्पादक देशों के पाले में खड़ा नजर आ रहा है। अतः दीर्घकालीन हल के लिए तेल उत्पादक देशों को तटस्थ रुख अपनाने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है जिससे दुनिया का कारोबर सामान्य गति से चल सके।

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