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हेट स्पीच और सुप्रीम कोर्ट

भारतीय लोकतान्त्रिक राजनीति में घृणास्पद वचनों (हेट स्पीच) के इस्तेमाल पर हमारे संविधान में इस हद तक प्रतिबन्ध है कि एक-दूसरे समुदाय के बीच वैमनस्य पैदा करने के किसी प्रयास को राष्ट्र को खंडित करने की चेष्टा करने के घेरे में डाला गया है

भारतीय लोकतान्त्रिक राजनीति में घृणास्पद वचनों (हेट स्पीच) के इस्तेमाल पर हमारे संविधान में इस हद तक प्रतिबन्ध है कि एक-दूसरे समुदाय के बीच वैमनस्य पैदा करने के किसी प्रयास को राष्ट्र को खंडित करने की चेष्टा करने के घेरे में डाला गया है और ऐसा कार्य करने वाले व्यक्ति के खिलाफ भारतीय दंड विधान में कार्रवाई करने की कई धाराएं हैं। इसके बावजूद धार्मिक व मजहबी आयोजनों के नाम पर भारत में दूसरे सम्प्रदाय के लोगों के खिलाफ विष वमन करने की प्रवृत्ति बढ़ी है जिससे समाज में वैमनस्य बढ़ने में मदद मिली है और एक ही देश के नागरिकों के बीच आपस में बैर-भाव भी बढ़ते हुए देखा गया है। इसका असर समूचे राष्ट्र के विकास पर पड़े बिना नहीं रहता। इससे एक-दूसरे समुदाय के बीच हिंसा का भाव भी बढ़ने से नहीं रोका जा सकता क्योंकि घृणा ही मनुष्य के हृदय में हिंसा का बीज बोती है।
भारत का समाज मूलतः अहिंसक समाज है। इसकी संस्कृति प्रेम व भाईचारे की संस्कृति है जो अपने विरोधी के विचारों को भी बराबर का सम्मान देने की वकालत करती है। इस धरती पर पैदा हुए पंथों व मजहबों ने तो ‘क्षमा वीरस्य भूषणम्’ तक जैसे सिद्धान्त को लोकाचार में शामिल किया अर्थात कुकर्मी को भी माफ कर देना बहादुरों की निशानी होती है। इसके बावजूद हम हिंसा और अहिंसा को आदिकाल से साथ-साथ चलते देखते आए हैं। इसका मूल कारण मनुष्य की मनुष्य के प्रति घृणा ही हो सकती है। भारत के संविधान का आधार मानवता रहा है और असत्य पर सत्य की विजय का सन्देश वाहक भी है। इसी वजह से यह सभी मजहबों व पंथों के अनुयायी नागरिकों को एक समान अधिकार देता है और हजारों वर्षों से मानवीय जुल्मों के शिकार बने उन जातियों के लोगों को एक समान सामाजिक धरातल पर आने का अवसर देता है जिन्हें अनुसूचित जाति या जनजाति का कहा जाता है। अतः इन्हीं लोगों के बीच वैमनस्य बढ़ाने के कृत्य को अपराध माना गया और तदनुरूप कानूनी प्रावधान भी किये गये।
स्वतन्त्र भारत और आज के 21वीं सदी के वैज्ञानिक दौर में विचारणीय मुद्दा यह है कि क्या किन्हीं दो सम्प्रदायों या समाजों के बीच घृणा पैदा करने के बोल-बोल कर राष्ट्रीय एकता को मजबूत किया जा सकता है? इस बारे में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ महीने पहले ही निर्देश दिया था कि समाज में समरसता और प्रेम व भाईचारे का माहौल बनाये रखने के लिए प्रशासनिक स्तर पर सख्त कदम उठाये जाने चाहिए। न्यायालय ने आदेश दिया था कि घृणा फैलाने वाले लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने का अधिकार पुलिस को है और ऐसे लोगों का उसे स्वयं ही संज्ञान लेते हुए कानूनी कार्रवाई करनी चाहिए। देश की सबसे बड़ी अदालत से ऐसा निर्देश आने के बावजूद यह देखा गया है कि समाज के विभिन्न वर्गों के बीच विद्वेष व कड़वाहट घोलने वाले वचन बोलने वाले लोग प्रायः निष्कंटक ही घूमते रहते हैं। ऐसे लोग पूरे समाज में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास का वातावरण पैदा करते हैं जिसका खामियाजा पूरे राष्ट्र को भुगतना पड़ता है क्योंकि किसी भी समाज में जब लोगों में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास होता है तो पूरा तन्त्र ही अविश्वास के साये में जीने लगता है जिसका असर आमतौर पर व्यक्ति की सकारात्मक उत्पादकता पर पड़ता है। यह कार्य दुतरफा होता है।
घृणापरक वक्तव्य का एक मामला हाल ही में विगत 3 फरवरी को सर्वोच्च न्यायालय के संज्ञान में आया जिसमें यह प्रार्थना की गई थी कि 5 फरवरी को मुम्बई में सकल हिन्दू समाज की आयोजित जनसभा को रोका जाये क्योंकि उसमें वक्ताओं द्वारा घृणास्पद वक्तव्य दिये जा सकते हैं। इसके जवाब में स्वयं महाराष्ट्र सरकार ने न्यायालय को आश्वासन दिया कि वह इस बात को सुनिश्चित करेंगे कि जनसभा में किसी भी प्रकार से घृणा मूलक वक्तव्य न दिये जायें। सर्वोच्च न्यायलय ने जनसभा आयोजित करने की इजाजत तो दे दी मगर इस शर्त के साथ कि इसमें घृणा फैलाने वाली कोई भी कार्रवाई न हो और सभा की सारी कार्यवाही रिकार्ड करके उसके समक्ष अगली सुनवाई की तारीख को पेश की जाये। न्यायालय ने यह फैसला याचिकाकर्ता शाहीन अब्दुल्ला की प्रार्थना पर दिया जिसने कहा था कि समाज की विगत 29 जनवरी को हुई सभा में घृणा फैलाने वाले वक्तव्य दिये गये थे।
न्यायालय ने तो याचिकाकर्ता की ओर से दी गई इस दलील को स्वीकार किया कि यदि जनसभा के इलाके के पुलिस दरोगा को यह लगता है कि किसी वक्ता ने किसी दूसरे वर्ग या सम्प्रदाय के विरुद्ध घृणा फैलाने वाला वक्तव्य दिया है तो वह फौजदारी कानून की दफा 151 के तहत बिना वारंट या मैजिस्ट्रेट आदेश के उसे गिरफ्तार कर सकता है। इससे जाहिर है कि हमारे दंड विधान में यह पुख्ता व्यवस्था है कि समाज में वैमनस्य या दुश्मनी फैलाने की इजाजत किसी को नहीं है। परन्तु मजहबी चोलों में छिपकर यह काम कोई चाहे मुस्लिम मुल्ला-मौलवी अथवा कथित हिन्दू संन्यासी या साधू करता है तो राष्ट्रीय एकता व अखंडता के लिए मुसीबत पैदा करता है। भारत किसी एक मजहबी आधार पर बना लोकतान्त्रिक देश नहीं है, बल्कि यह भौगोलिक आधार पर संगठित ऐसा देश है जिसके किसी भी इलाके में जिस भी मजहब का व्यक्ति रहता है वह भारतीय ही है। अतः इन लोगों के बीच घृणा पैदा करने वाला व्यक्ति राष्ट्रीय एकता व अखंडता के लिए खतरा होता है। हमारी हिन्दू संस्कृति भी हमें यही सन्देश देती है कि सभी मानवों में ईश्वर का वास होता है और हमारे सच्चे साधू-सन्त भी हमें यही उपदेश देकर गये हैं कि :
ऐसी बाणी बोलिये मन का आपा खोए, 
औरन को शीतल करे आपहूं शीतल होए…

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