उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के खतौली संभाग के खुब्बुपुर गांव के एक प्राइमरी स्कूल के सात वर्षीय छात्र के साथ उसकी अध्यापिका ने जिस तरह का व्यवहार केवल इसलिए किया कि वह मुसलमान था, उससे न केवल पूरे भारत का सिर शर्म से झुक गया है बल्कि सम्पूर्ण शिक्षक समाज का रुतबा भी जमीन में गड़ गया है। अभी सितम्बर महीना आने वाला है और इसी महीने में भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति व महान दार्शनिक सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन का जन्म दिवस देश के हर स्कूल में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। जाहिर तौर पर इस बार के शिक्षक दिवस पर हर शिक्षक की गर्दन को झुका देने का काम खुब्बुपुर की शिक्षिका तृप्ता त्यागी ने अपने कारनामे से कर डाला है। मगर क्या यह सब अचानक हो गया है? लोकतन्त्र में राजनीति जीवन के हर स्तर को भीतर तक प्रभावित करती है क्योंकि व्यक्ति व समाज के हर पहलू को प्रभावित करने वाले अन्तिम निर्णय नीचे से लेकर ऊपर तक राजनैतिक नेतृत्व द्वारा ही लिये जाते हैं। अतः राजनीति का जो चरित्र होगा वही ऊपर से लेकर नीचे तक समाज व लोगों को शीशे में उतारने में सक्षम होगा। इसलिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक गांव के प्राइमरी स्कूल की यह घटना बताती है कि आज के दौर की राजनीति ने आम लोगों के दिलों में घृणा या ‘नफरत का फास्फोरस’ किस कदर भर डाला है।
हर बात में हिन्दू-मुसलमान की राजनीति ने सामान्य व्यक्ति की मानसिकता को इस तरह अपने चंगुल में ले लिया है कि विद्यालयों में जाने वाले आदमी की औलादों को भी उनका मजहब देखकर सजाएं दी जा रही हैं। लानत है ऐसे स्कूल पर और एेसा स्कूल चलाने वालों पर जिन्होंने शिक्षा के संस्थानों को साम्प्रदायिकता का अड्डा बना डाला है। शिशु हृदय में शुरू से ही यह भरा जा रहा है कि मुसलमान माता-पिता के घर में पैदा होने की वजह से उसके साथ के दूसरे विद्यार्थी उसके साथ अलग तरह से व्यवहार करेंगे तथा उसे पहाड़ा याद न होने अथवा गणित में कमजोर होने की सजा कक्षा के सभी दूसरे छात्र पहले उसे थप्पड़ मार कर देंगे और जब उसका मुंह लाल हो जायेगा तो उसकी कमर पर मारेंगे। अपनी ही कक्षा के छात्रों से ऐसा कार्य कराने वाली अध्यापिका को सबसे पहले पुलिस प्रशासन को पकड़ कर जेल भेजा जाना चाहिए और उसके खिलाफ फौजदारी सजा जाब्ता कानून की वे सभी दफाएं लगाई जानी चाहिएं जो साम्प्रदायिक द्वेष भड़काने व बच्चों को हिंसक बनाने से ताल्लुक रखती हों साथ ही राज्य सरकार को सबसे पहले प्राथमिक कार्रवाई करके उसे नेहा प्राथमिक स्कूल की मान्यता समाप्त करनी चाहिए जिसकी मालिक और संचालिका व मुख्य अध्यापिका तृप्ति त्यागी है।
यह घटना सामान्य नहीं है क्योंकि स्वतन्त्र भारत के इतिहास में किसी प्राथमिक स्तर के विद्यालय में इस तरह की घटना पिछले 76 सालों में कहीं भी दर्ज नहीं हुई है। इसी से पता लग सकता है कि आज के भारत के समाज को राजनीति ने किस तरह नफरत की आग में झोंक डाला है और हम ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का राग अलापते फिर रहे हैं। जरा कोई पूछे कि क्या स्कूल का वह मुस्लिम छात्र खुदा के घर अर्जी देकर आया था कि या अल्लाह मुझे किसी मुसलमान के घर ही पैदा करना।” वह भारत के एक सम्मानित नागरिक के घर पैदा हुआ और इस नाते इस मुल्क की हर सुविधा पर भी उसका भी उतना ही अधिकार है जितना कि किसी हिन्दू के घर पैदा हुई औलाद का। किसी विद्यालय या स्कूल को उत्तर प्रदेश सरकार यह देख कर मान्यता नहीं देती है कि इसमें हिन्दुओं के बच्चे पढ़ाएंगे या मुसलमानों के बल्कि यह देख कर मान्यता देती है कि इसमें भारत के नागरिकों के बच्चे पढ़ेंगे। क्या जरूरी है कि किसी मुसलमान का बच्चा ही पढाई में कमजोर हो। पढ़ाई में कमजोर तो किसी हिन्दू का बच्चा भी हो सकता है। क्या उसमें फिर हम उसकी जाति को देखेंगे कि वह अगड़ी जाति का है या पिछड़ी जाति का।
शिक्षा का अधिकार भारत में किशोर वय तक मौलिक अधिकार बन चुका है। हर हिन्दू-मुसलमान बच्चे का हक है कि वह शिक्षा प्राप्त करे। मगर क्या कयामत है कि पहले तो शिक्षा के स्कूलों को अंग्रेजी माध्यम के नाम पर मुनाफा कमाने की दुकानों में तब्दील कर दिया गया है और अब उनमें हिन्दू-मुसलमान का जहर भरा जा रहा है। इसका सीधा मतलब यही निकलता है कि हम हिन्दोस्तान की उस बुनियाद में ही दीमक लगा रहे हैं जिसे हमने 1947 में आजाद होने के बाद बड़ी मुश्किल से हिन्दू-मुस्लिम की संकीर्णता से बाहर इस हकीकत के बावजूद रखा था कि मजहब के आधार पर ही मुहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान बनवा लिया था। हमने भारत को ऐसे संविधान के तहत चलाने की कसम उठाई जिसमें हिन्दू-मुसलमान नहीं बल्कि ‘भारत के लोग’ थे । इन्हीं लोगों ने 75 वर्षों में भारत को चांद पर पहुंचा दिया मगर क्या सितम है कि हम अब प्राइमरी स्कूल में इन्हीं बच्चों को सिखा रहे हैं कि तुम हिन्दू और मुसलमान हो।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश उन स्व. चौधरी चरण सिंह की कर्मस्थली रही है जिनका पूरा जीवन ही इस क्षेत्र के गांवों के रहने वाले हर किसान, मजदूर और दस्तकार की राजनैतिक व सांस्कृतिक एकता के लिए समर्पित रहा चाहे उनका धर्म अलग-अलग ही क्यों न रहा हो। अतः यह उम्मीद की जानी चाहिए कि इस क्षेत्र के लोग अपनी महान सांस्कृतिक एकता के धागों से बन्धे रहेंगे और खुब्बूपुर की यह घटना एक अपवाद बनकर ही सिमटी रहेगी। मोहब्बत से ही इस इलाके को जाना जाता है इसीलिए यहां का ‘गुड़’ पूरे भारत में प्रसिद्ध है। यहां के लोगों की और शिफ्त है।
‘‘जमीन पर पांव जमा कर चल तू
सूरज से आंख मिला कर चल तू।’’