यदि कोई रंग न हो जीवन में तो...? - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

लोकसभा चुनाव 2024

पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

चौथा चरण - 13 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

96 सीट

पांचवां चरण - 20 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

49 सीट

छठा चरण - 25 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

सातवां चरण - 1 जून

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

यदि कोई रंग न हो जीवन में तो…?

ठीक-ठीक याद नहीं कि वो उम्र का कौन सा वर्ष था जब होली मेरे दिल में इस कदर समाई कि जिंदगी को रंगों में भिगो दिया। निश्चय ही वो कच्ची उम्र रही होगी, वो उम्र जब जेहन हर दास्तां को यादों के रूप में समेटना शुरू करता है तो होली की स्मृतियां उसी उम्र से मेरी जिंदगी का अनमोल हिस्सा बनना शुरू हो गईं। होली आज भी मेरा पसंदीदा त्यौहार है। यादों के आइने में देखता हूं तो होली के भी कई रंग नजर आते हैं। खूब होली खेली, रंगों की होली खेली, जज्बातों से भरी होली खेली, प्रेम और अपनेपन की होली खेली, जो दूर थे उनको नजदीक करने की होली खेली, फूलों और केसर संग होली खेली, अपनों को गले लगाकर खेली, बिना भांग की ठंडाई में मस्ती की होली खेली। मैं कई बार सोचता हूं कि यदि जिंदगी में कोई रंग न होता तो जिंदगी कैसी होती? रंग न होते तो ये पूरी प्रकृति ही ऐसी न होती। फिर शायद इंसान भी ऐसा नहीं होता जैसा वह प्रकृति के साथ विकसित हुआ।
प्रकृति ने हमें रंगों से ऐसा सराबोर किया है कि जिंदगी के पन्ने खुशनुमा हो जाना स्वाभाविक है, होली के दिन हर साल हम यह अनुभव भी करते हैं। मुझे याद है, यवतमाल में मेरे घर के बाहर होली के दिन शानदार जश्न जैसा माहौल होता था, मेरे प्रिय बाबूजी वरिष्ठ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जवाहर लाल दर्डा के साथ होली खेलने के लिए हर वर्ग, हर जाति और हर धर्म के लोग जमा होते थे। वहां अपनेपन के रंग से सभी रंग जाते थे, ये त्यौहार है ही ऐसा कि हर मजहब के लोग प्रेम के रंग में रंग जाते हैं। यहां तक कि जो राजनीतिक रूप से दूसरी विचारधारा के लोग थे, वे भी होली का त्यौहार मनाने पहुंचते थे, सबके लिए ठंडाई और मुंह मीठा करने का इंतजाम होता था। आज जब उन दिनों को याद करता हूं तो मुझे जाने-माने कवि हरिवंश राय बच्चन की होली पर लिखी ये पंक्तियां याद आ जाती हैं…
होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो, जो हो गया बिराना उसे भी अपना कर लो…
होली है तो आज शत्रु को बांहों में भर लो, होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो…
मुझे लगता है कि होली मनाए जाने के पीछे निश्चय ही सामाजिक सौहार्द एक गंभीर विषय रहा होगा। एक ऐसा दिन निर्धारित करना जब लोग सारे बैर-भाव भूलकर एक हो जाएं, मौजूदा दौर में तो यह त्यौहार और भी प्रासंगिक नजर आता है।
मुझे यह भी याद है कि हम सफेद कुर्ता-पायजामा पहनते थे ताकि उस पर रंग पूरी शिद्दत के साथ खिल सकें। तब केमिकल वाले रंगों का इस्तेमाल नहीं होता था, हम संगी-साथियों के साथ टेसू के फूल एकत्रित करने जंगलों में जाते थे, जिससे रंग तैयार होता था। हल्दी वाले गुलाल तैयार किए जाते थे। बचपन के उन दृश्यों ने मेरे मन पर गहरी छाप छोड़ी कि हमें त्यौहारों को प्रकृति के आसपास रखना चाहिए। टेसू के फूल आज भी बहुतायत में उपलब्ध होते हैं लेकिन कितने लोग इसका इस्तेमाल करते हैं? हां, गुलाल को लेकर कुछ जागृति आई है और ऑर्गेनिक गुलाल का प्रचलन बढ़ा है लेकिन आज भी जब मैं एल्युमीनियम पेंट में रंगे-पुते चेहरे देखता हूं तो ऐसे लोगों पर तरस आता है। हर साल केमिकल वाले रंगों के कारण न जाने कितने लोगों की आंखें क्षतिग्रस्त होती हैं। इसीलिए मेरी मान्यता है कि होली हमें प्राकृतिक रंगों से ही मनानी चाहिए। होलिका दहन के लिए हमें पेड़ भी नहीं काटने चाहिए, त्यौहार प्रकृति के संरक्षण के लिए होते हैं, विनाश के लिए नहीं।
मेरी मां जिन्हें मैं प्यार से बाई कहता हूं, मुझे होली से जुड़ी कई कहानियां सुनाया करती थीं लेकिन मुझे वो कहानी बड़ी अच्छी लगती थी कि भगवान कृष्ण का रंग श्यामल था और इसकी शिकायत वे अपनी मां से करते थे कि राधा का रंग इतना गोरा है मेरा श्यामल क्यों, तो उनकी मां ने कहा कि राधाजी को अपने रंग में रंग दो, भगवान श्रीकृष्ण ने राधाजी को अपने रंग में रंग दिया। उन दोनों का यह प्रेम होली का प्रतीक बन चुका है, आज भी हम होली के जो गाने गाते हैं, उनमें से ज्यादातर इसी प्रेम के रंग में रंगे होते हैं, हमारी फिल्में तो ब्रज की होली के गीत से भरी पड़ी हैं।
जब उम्र की दहलीज पर थोड़ा आगे बढ़ा तो मेरे मन में ख्याल आया कि हमारा ये पसंदीदा उत्सव कितना पुराना है? अब कोई ठीक-ठाक प्रमाण तो नहीं है लेकिन यह जानकारी जरूर मिलती है कि ईसा से 600 साल पहले भी भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में होली का वजूद था। कालिदास रचित ग्रंथ कुमारसंभवम् में भी होली का जिक्र आता है। चंदबरदाई ने हिंदी का जो पहला महाकाव्य पृथ्वीराज रासो लिखा, उसमें भी होली का अद्भुत वर्णन है।
सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, मीराबाई या फिर कबीर हों, होली सबकी रचनाओं का अभिन्न अंग रहा है, कई मुगल शासक भी होली का त्यौहार मनाते थे। बहादुर शाह जफर को तो यह बहुत पसंद था कि होली के अवसर पर उनके दरबारी उन्हें रंगों में रंग दें। जफर ने तो गीत भी लिखा…
‘क्यों मो पे रंग की मारी पिचकारी
देखो कुंवरजी दूंगी मैं गारी’
ऐसी रचनाओं से हमारा साहित्य भरा पड़ा है। मेरे एक प्रोफेसर भारतेंदु हरिश्चंद्र की लिखी ये कविता हमें सुनाया करते थे जो मुझे आज भी याद है और बेहद पसंद भी है…
गले मुझको लगा लो ऐ दिलदार होली में/बुझे दिल की लगी भी तो ऐ यार होली में…
नहीं ये है गुलाले-सुर्ख उड़ता हर जगह प्यारे/ये आशिक की है उमड़ी आहें आतिशबार होली में…
गुलाबी गाल पर कुछ रंग मुझको भी जमाने दो/मनाने दो मुझे भी जानेमन त्यौहार होली में
तो आइए, मिलजुल कर जिंदगी के कोरे पन्नों को रंगीन बनाते रहें, हम सबकी जिंदगी रंगों से भरी रहे, प्रेम, स्नेह और अपनेपन के रंग में हम सब हमेशा रंगे रहें।

– डा. विजय दर्डा

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

three + fourteen =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।