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पाकिस्तान में इमरान खान

पाकिस्तान में चुनावों के बाद जो सियासी तस्वीर उभरी है उसमें इमरान खान का नया वजीरे आजम बनना लगभग तय है क्योंकि उनकी तहरीके इंसाफ पार्टी

पाकिस्तान में चुनावों के बाद जो सियासी तस्वीर उभरी है उसमें इमरान खान का नया वजीरे आजम बनना लगभग तय है क्योंकि उनकी तहरीके इंसाफ पार्टी को राष्ट्रीय एसेम्बली में सबसे ज्यादा सीटें मिली हैं मगर उन्हें स्पष्ट बहुमत नहीं मिला है इसके बावजूद उनकी ताजपोशी को नहीं रोका जा सकता क्योंकि इस मुल्क की फौज ने जो तहरीर उनकी पार्टी को हुकूमत में लाने के लिए चुनावों से पहले ही लिख दी थी उसी के अनुसार चुनाव नतीजे आये हैं। यही वजह है कि इस मुल्क की पुरानी सत्तारूढ़ पार्टी मुस्लिम लीग से लेकर पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने मतों की गिनती में धांधली का आरोप लगाया है। हकीकत यह है कि इस मुल्क में 1956 के बाद से चुनाव कभी भी ईमानदारी से नहीं हुए क्योंकि यहां की फौज इसके बाद से ही पाकिस्तान की एेसी हुक्मरानी के किरदार में रही है जो मुल्क की अवाम की राय पर अपनी मनमानी थोपती आ रही है। इसकी असली वजह यही है कि हिन्दोस्तान के साथ दुश्मनी का सिलसिला जारी रखने पर ही फौजी हुक्मरानों को यहां की अवाम के मन में शक पैदा करके हमदर्दी हासिल हो सकती है जबकि लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार को पूरे अख्तियार मिलने पर पाकिस्तान की फिजां में भारी बदलाव आ सकता है और दोनों मुल्कों के लोगों की एक जैसी रवायतों और साझा संस्कृति व इतिहास को देखते हुए आपसी दोस्ताना माहौल बनने पर फौज अपनी हक्मरानी अंदाज से बेदखल हो सकती है। इसी वजह से पाकिस्तान की विदेश नीति और रक्षा नीति का फैसला अभी तक किसी भी चुने हुए प्रधानमन्त्री को करने की इजाजत फौज ने नहीं दी क्योंकि एेसा होते ही पाकिस्तान के वजूद में रहने के बावजूद दोनों मुल्कों के ताल्लुकात अमेरिका व कनाडा जैसे हो सकते हैं।

यही वजह है कि यहां की फौज ने इस बार राजनीति में बिल्कुल कोरे पुराने क्रिकेटर रहे इमरान खान को न केवल पर्दे के पीछे से पूरी इमदाद दी बल्कि उनकी पार्टी को बनाने में भी पूरा सहयोग किया क्योंकि मियां नवाज शरीफ की मुस्लिम लीग पार्टी राष्ट्रवादी तमगे के बावजूद भारत के साथ ताल्लुकात सुधारना चाहती थी और इस तरफ नवाज शरीफ ने हुकूमत में रहते हुए ईमानदार कोशिशें भी कीं। यह पाकिस्तान का इतिहास रहा है कि जब भी कोई सियासतदां इस मुल्क में अवाम की नजरों में चढ़ जाता है तो फौज उसे दागदार बनाकर या तो सलाखों के पीछे भेज देती है या फिर उसे इस दुनिया से ही विदा कर देती है। पिछले सत्तर सालों में अभी तक इस मुल्क के सबसे महबूब नेता जुल्फिकार अली भुट्टो हुए और उन्हें फौज ने जिस तरह 1978 में हुकूमत से बेदखल करते हुए जेल में डाल कर अदालत के जरिये फांसी की सजा सुनवाई थी वह मामला पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में अंग्रेजों के यहां से बाहर जाने के बाद अकेला था। इसके बाद जिस तरह 2008 में उनकी बेटी बेनजीर भुट्टो की हत्या चुनावी प्रक्रिया के दौरान जनरल परवेज मुशर्रफ के हुकूमत में रहते की गई उसने पाकिस्तान में लोकतन्त्र लाने की फौज की नीयत को साफ कर दिया था। इसकी वजह यही थी कि भुट्टो की पीपुल्स पार्टी इस्लामी पाकिस्तान की सबसे बड़ी नरमपंथी और समाजवादी विचारों की तरफ झुकी हुई एेसी पार्टी थी जो इस मुल्क को दहशतगर्दी का अड्डा बनने से रोकने के लिए अवाम में जागरूकता लाना चाहती थी मगर यह 2018 चल रहा है और इस मुल्क की हकीकत यह है कि इमरान खान के हाथों में चुनी हुई सरकार की बागडोर आने वाली है। अपने चुनाव प्रचार के दौरान इमरान खान ने भारत विरोध को मुद्दा बनाते हुए भ्रष्टाचार को केन्द्र में रखकर यहां की अवाम की हिमायत पाने के लिए जो मेहनत की उसे फौज का समर्थन इस तरह प्राप्त था कि वह अपनी ही नई बिरादरी ( सियासतदानों ) को कालिख की कोठरी में बिठाने में पूरी ताकत लगा दें।

अगर चुनावों में हुई धांधलियों को बरतरफ करते हुए यह मान भी लिया जाये कि इमरान खान की पार्टी को लोगों का समर्थन मिला है तो सत्ता में बैठते ही उन्हें फौज की गिरफ्त से निकलने का रास्ता ढूंढना होगा मगर एेसा तभी हो सकता है जब फौज अपने उस किरदार में आये जो किसी भी लोकतान्त्रिक देश में होता है मगर यह तो मानना ही होगा कि इमरान खान ने जम्हूरियत का वह नुस्खा हासिल कर लिया है जिसका यह कायदा होता है कि ‘हुकूमत में आने की राजनीति हुकूमत करने की राजनीति से अलग होती है।’ यही वजह है कि उन्होंने अपनी पार्टी के अक्सीरियत में आने के बाद अपने मुल्क से जो खिताब किया उसमें भारत के साथ सारे मसले बातचीत से सुलझाने की वकालत करते हुए कहा कि अगर हिन्दोस्तान एक कदम आगे चलेगा तो मैं दो कदम आगे चलूंगा लेकिन इसके साथ ही इमरान ने सबसे ज्यादा तारीफ चीन की करते हुए कहा कि उसकी ‘सी पैक’ परियोजना से पाकिस्तान को लाभ होगा और इसके लोगों को रोजगार भी मिलेगा जबकि भारत के बारे में उन्होंने तिजारती रिश्तों को मजबूत बनाने की बात की।

इससे साबित होता है कि वह उतना ही बोले जितना बोलने की फौज ने उन्हें इजाजत दी थी मगर हिन्दोस्तान को किसी गफलत में रहने की जरूरत नहीं है क्योंकि तहरीके इंसाफ पार्टी का चुनावी नारा था कि ‘बल्ला घुमाओ-भारत हराओ’ और ‘मोदी का यार-नवाज शरीफ।’ जाहिर तौर पर एेसा करके उन्होंने पाकिस्तानी फौज के मंसूबों को ही सिरे चढ़ाने की कोशिश की और कश्मीर के मुद्दे को उछाले रखा और यहां हमारी फौज की भूमिका पर सवाल उठाये। जबकि पाकिस्तान का बच्चा-बच्चा जानता है कि इमरान वह शख्स है जो इस मुल्क में शिया व अहमदिया मुसलमानों पर होने वाले जुल्मों की मुखालफत करने से डरता रहा और तालिबानियों की हिमायत करता रहा। इसलिए भारत को ‘अभी तेल देखना है और तेल की धार को देखना है।’

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