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चीन पर भारत एक-जुट हो

सर्वप्रथम यह स्पष्ट होना चाहिए कि चीन के सीना जोर रवैये पर भारत की संसद से लेकर सड़क तक भारी रोष व्याप्त है और देश की जनता समझती है कि विस्तारवादी कम्युनिस्ट चीन लद्दाख से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक खिंची हुई नियन्त्रण रेखा में मनचाहा परिवर्तन करना चाहता है

सर्वप्रथम यह स्पष्ट होना चाहिए कि चीन के सीना जोर रवैये पर भारत की संसद से लेकर सड़क तक भारी रोष व्याप्त है और देश की जनता समझती है कि विस्तारवादी कम्युनिस्ट चीन लद्दाख से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक खिंची हुई नियन्त्रण रेखा में मनचाहा परिवर्तन करना चाहता है जिसकी वजह से वह भारत के सैनिकों के साथ इस नियन्त्रण रेखा के आसपास भिड़ जाता है। एेसा विश्वास करने के पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि स्वयं विदेशमन्त्री एस. जयशंकर संसद के पटल पर बयान दे चुके हैं कि जब तक सीमा पर सामान्य हालात नहीं बनते हैं तब तक चीन के साथ हमारे रिश्ते सामान्य नहीं हो सकते। मगर संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा है और विपक्ष की तरफ से पुरजोर मांग की जा रही है कि चीन के मुद्दे पर दोनों सदनों के भीतर रचनात्मक बहस की जानी चाहिए। एक बात और साफ होनी चाहिए कि स्वतन्त्र भारत का यह पुख्ता इतिहास रहा है कि जब भी भारत पर किसी दूसरे देश ने टेढी आंख करके देखा है तो पूरा भारत उत्तर से लेकर दक्षिण तक एक होकर उठ खड़ा हुआ है और इसके विभिन्न राजनैतिक दलों ने भी अपने सभी मतभेद भुलाकर देश की सत्तारूढ़ सरकार की नीतियों का समर्थन किया है। चाहे वह 1962 का चीनी आक्रमण हो या 1965 व 1971 का पाकिस्तान युद्ध।
पूरे देश ने एक स्वर से भारत की सरकार और भारत की सेना का मनोबल बढ़ाने के लिए एकजुटता का परिचय देते हुए दुश्मन के दांत खट्टे करने की कसमें खाई हैं। भारतवासी जानते हैं कि 1947 में उन्हें जो आजादी मिली है वह खैरात में अंग्रेज देकर नहीं गये हैं बल्कि इसके लिए पीढि़यों ने अपनी जान गंवाई है और अंग्रेजों के जौर-जुल्म का सामना किया है। चाहे चीन हो या पाकिस्तान हर मौके पर भारत के नागरिकों ने अपने आन्तरिक मतभेद भुलाकर और सम्प्रदाय व जातिगत भेदों को ताक पर रख कर अपनी भारतीय पहचान के बूते पूरी ताकत से देश की रक्षा की है और भारत की सेना ने हर मोर्चे पर अपने शौर्य व वीरता की निशानियां छोड़ी हैं। अतः राजनैतिक मोर्चे पर भी भारत की जनता अपेक्षा करती है कि वर्तमान समय में चीन जो भी सीना जोरी और भारत की भूमि को कब्जाने की कोशिश कर रहा है उसका मुकाबला भी एक मत से संगठित राजनैतिक शक्ति के रूप में होना चाहिए। हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र हैं अतः विचार-विमर्श द्वारा असहमति को समाप्त करना भी इस तन्त्र का हिस्सा होता है और राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में तो हमारा रिकार्ड सर्वसम्मति  के साथ दुश्मन का मुकाबला करने का रहा है तो फिर दिक्कत कहां है और क्या है? एेसा कोई रास्ता हम क्यों नहीं निकाल पा रहे हैं कि चीन के मुद्दे पर पूरे विश्व को सन्देश जाये कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में भारत के लोग अपने आन्तरिक मतभेदों से ऊपर उठकर केवल राष्ट्रीय हित की बात ही सोचते हैं। हमारी संसद सर्वोच्च है और इसकी कार्यवाही में कहा गया एक-एक शब्द पत्थर की लकीर की मानिन्द होता है। हम ये जानते हैं कि चीन की नीयत शुरू से ही खराब रही है जिसकी वजह से 1962 में उसने हमारा 38 हजार वर्ग कि.मी. के क्षेत्रफल वाला अक्साई चीन हड़पा हुआ है और 1963 का भारत की संसद का ही यह सर्वसम्मत प्रस्ताव है कि भारत चीन के कब्जे से अपनी एक-एक इंच भूमि वापस लेगा। इसके बावजूद यदि वह जून 2020 में लद्दाख की सीमा रेखा के पास हमारे इलाके में आकर हमारे सैनिकों से भिड़न्त करता है और हमारे 20 जवान शहीद हो जाते हैं तो यह पक्का सबूत है कि चीन हमारी नियन्त्रण रेखा की स्थिति बदल देना चाहता है। मगर भारत की सेना एेसा होने नहीं देगी क्योंकि जून 2020 में ही भारतीय सैनिकों ने अपने 20 जवानों के बदले चीन के 50 से भी ज्यादा सैनिक हलाक कर दिये थे और अपनी जगह नहीं छोड़ी थी। इस सेना का मनोबल बढ़ाने की जिम्मेदारी निश्चित रूप से राजनैतिक नेतृत्व की होती है जिसमें सत्ता व विपक्ष दोनों शामिल होते हैं। अतः सेना के बारे में राजनीतिज्ञों को एक-एक शब्द नापतोल कर निकालना चाहिए और उसे राजनीति से दूर रखना चाहिए।
विगत 9 दिसम्बर को अरुणाचल के तवांग इलाके में भी एेसा हुआ और भारतीय सैनिकों ने ईंट का जवाब पत्थर से देते हुए मातृभूमि की रक्षा में अपना सर्वस्व लगा दिया। जब विदेशमन्त्री यह कहते हैं कि भारत चीन को इकतरफा नियन्त्रण रेखा में बदलाव करने नहीं देगा तो वह पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार श्री शिवशंकर मेनन के इस मत से मतभेद नहीं रख सकते जो उन्होंने जून 2020 में चीन की गलवान घाटी में कार्रवाई को देखते हुए व्यक्त किये थे। श्री मेनन ने तब ही कह दिया था कि चीन का इरादा लद्दाख से निकलकर अरुणाचल जाती पूरी नियन्त्रण रेखा में परिवर्तन का ही लगता है। अतः यह समय राजनैतिक मतभेद ताक पर रखकर राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर एकमत होने का है। यह एकमतता संसद के भीतर भी हो और सड़क पर भी जिससे भारत की सेनाएं आश्वस्त रहें कि पूरा भारत उनके पीछे चट्टान की तरह खड़ा हुआ है। 

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