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प्रेरणादाई बलिदान

आज 9 सितम्बर के ​दिन मेरे परदादा अमर शहीद लाला जगत नारायण का शहादत दिवस है। मैं यह मानता हूं कि कोई भी व्यक्ति विरासत को सही ढंग से तभी सहेज सकता है

आज 9 सितम्बर के ​दिन मेरे परदादा अमर शहीद लाला जगत नारायण का शहादत दिवस है। मैं यह मानता हूं कि कोई भी व्यक्ति विरासत को सही ढंग से तभी सहेज सकता है यदि वह अपने पूर्वजों के इतिहास को याद रखे। हर बार परदादा और दादा जी के शहादत दिवस पर मेरे पिता अश्विनी कुमार उन्हें अपनी लेखनी से याद करते थे। अब यह दायित्व मुझे मिला है। मेरे पिता द्वारा लिखी गई आत्मकथा ‘ईट्स माई लाइफ’ के पन्नों को पलटता हूं तो बहुत कुछ पढ़ने को मिलता है। भावुक हूं लेकिन मुझे इस बात का गर्व है कि मैं उस परिवार का हिस्सा हूं जिस परिवार के लोगों ने राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए अपनी शहादत दी। पहले राष्ट्र विरोधी ताकतों ने मेरे परदादा लाला जगत नारायण जी की हत्या कर दी और बाद में मेरे दादा रमेश चन्द्र जी की हत्या कर दी गई। इतना ही नहीं पंजाब केसरी से जुड़े 62 लोगों, जिनमें 56 सम्पादकों, पत्रकारों और समाचार विक्रेता शामिल थे, को भी जान कुर्बान करनी पड़ी।
-लाला जी हठी नहीं थे, लाला जी स्वाभिमानी थे।
-लाला जी कलम की अस्मिता के रक्षक थे उसके सौदागर नहीं।
-लाला जी एक प्रकाश पुंज थे, अंधेरों के हामी नहीं।
-इसलिए लाला जी अमर हैं, क्योंकि उनकी कीर्ति अमर है।
शास्त्र बताते हैं-रणक्षेत्र में मृत्यु को प्राप्त सैनिक और जीवन क्षेत्र में शहीद समतुल्य है, इनकी गति भी निर्विकल्प समाधि प्राप्त योगियों से होती है। 
1947 में देश को आजादी मिलने के बाद लाला जगत नारायण जी अपने परिवार समेत लाहौर से जालंधर आए तो यहां आकर भी उन्होंने सामाजिक, राजनीतिक गतिविधियों में बढ़-चढ़कर भाग लेना शुरू कर दिया तो समय बीतने के साथ-साथ राजनीति में इनकी पकड़ मजबूत होती गई। फिर ऐसी स्थिति आई कि पंजाब की राजनीति लाला जी के इर्द-गिर्द घूमती रही। देश बंटवारे के बाद उन्होंने पंजाब की ज्वलंत समस्याओं, पाकिस्तान से उखड़ कर इधर आए लाखों लोगों को बसाने में सहायता करने में दिन-रात एक कर दिया। उनके जीवन में कई उतार-चढ़ाव आए लेकिन वह हर मुश्किल दौर में मुखर होकर निकले।
वे पंजाब सरकार मैं कैबिनेट मंत्री भी रहे और राज्यसभा सदस्य भी रहे। वह साहसिक और सैद्धांतिक निर्णय लेने में अग्रणी थेे। उनकी इसी क्षमता के पंडित जवाहर लाल नेहरू भी प्रशंसक थे। जब वे स्वास्थ्य, शिक्षा और परिवहन मंत्री रहे तो उन्होंने आठवीं स्तर तक की किताबों और परिवहन का राष्ट्रीयकरण करने का फैसला किया और अपने फैसले से तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को अवगत कराया तो वह भी हैरान रह गए। यह भारत में राष्ट्रीयकरण का पहला प्रयोग था लेकिन उन्हें भी अपने ही कांग्रेस बंधुओं के विरोध का सामना करना पड़ा था।
जब श्रीमती इंदिरा गांधी ने जनता के मौलिक अधिकारों को आपातकाल की आड़ में छीन लिया तो लाला जी इंदिरा गांधी के बड़े आलोचक बनकर सामने आए। जब उन्हें गिरफ्तार किया गया तो उन्होंने शासकों और अधिकारियों को गर्जदार आवाज में कहा था कि उन्होंने अंग्रेजों के समय में जेल काटी है, अतः उनको न तो गिरफ्तारी का डर है न जेल जाने का। 
आपातकाल में पंजाब केसरी समाचार पत्र की प्रेस की बिजली काट दी गई लेकिन प्रिटिंग प्रेस को ट्रैक्टर से चलाकर लोकतंत्र की आवाज बुलंद की। उन्हें राजनीतिक गतिविधियां छोड़ने की शर्त पर रिहाई की पेशकश की गई लेकिन यहां कोई दबाव काम नहीं आया। आपातकाल के बाद उन्होंने जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में लोकतंत्र और जनता के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए उत्तर भारत में ऐसी अलख जगाई कि पंजाब में लोकसभा की 13 की 13 सीटें विपक्ष की झोली में गईं। जम्मू-कश्मीर जाकर जनता पार्टी के पक्ष में धुआंधार चुनाव प्रचार किया, क्योंकि जनता पार्टी का कोई बड़ा नेता जम्मू-कश्मीर में प्रचार करने के लिए पहुंच ही नहीं पाया था। जम्मू-कश्मीर से भी सीटें जितवा कर पार्टी की झोली में डालीं। उत्तर भारत की राजनीति में परिवर्तन का श्रेय उन्हें ही जाता है।
जब 1990 का दशक शुरू हुआ तो लाला जी की दूरदर्शी नजर ने पहले से ही पाकिस्तान की साजिशों के बारे में लिखना शुरू कर दिया। पाकिस्तानी षड्यंत्रों से जब आतंकवाद शुरू हुआ तो लाला जी बड़े चिंतित हो उठे। इधर अकालियों ने पंजाब को ज्यादा अधिकार देने, ट्रेन का नाम गोल्डन टैम्पल एक्सप्रैस रखने और सतलुज-यमुना लिंक नहर का पानी देने की मांगों को लेकर मोर्चा लगाया हुआ था। आंदोलन काफी उग्र था और पाकिस्तान की साजिशों के चलते मोर्चा अकालियों के हाथ से निकल कर उग्रवादियों के हाथों चला गया। खालिस्तान की मांग की जाने लगी। विदेशों में खालिस्तान की कापी, पासपोर्ट सब छपने लगे थे। तब लाला जी ने खालिस्तान की मांग का जमकर ​​विरोध किया। जब अलगाववादी ताकतों को लगा कि लाला जी उनके मार्ग में बड़ी बाधा है तो उन्हें गोलियों का निशाना बनाया गया। उन्हीं के पदचिन्हों पर चलते मेरे दादा जी ने भी शहादत दी। यह बलिदान मेरे लिए प्रेरणादायी है। सोच रहा हूं वह कौन सी ताकत थी जिसके बल पर मेरे पूर्वज तमाम तूफानों से टकराते रहे। यह थी स्वाभिमान की ताकत, सिद्धांतों पर चलने की ताकत। उनका जीवन कुछ ऐसा ही था।
-जिन्दगी और मौत के फासले सब मिट गए थे
-मौत से मिला के आंख मैं जिन्दगी जी रहा था।

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