जम्मू-कश्मीर समस्या-5 कश्मीर से छेड़छाड़ की ‘ना’ पाक कोशिश - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

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जम्मू-कश्मीर समस्या-5 कश्मीर से छेड़छाड़ की ‘ना’ पाक कोशिश

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अब जम्मू-कश्मीर का विधिवत भारत में विलय हो चुका था। पाकिस्तान लगातार एेसी कोशिशें कर रहा था कि यह मामला अतर्राष्ट्रीय विवाद का विषय बना रहे परन्तु भारत की अतर्राष्ट्रीय धाक के आगे उसकी एक नहीं चल रही थी। वह इस मामले को जब भी राष्ट्रसंघ में उठाने की कोशिश करता तो भारत की ओर से एेसा तीखा जवाब मिलता कि उसके सारे तर्क बेबुनियाद साबित हो जाते परन्तु जम्मू-कश्मीर में शेख अब्दुल्ला के नजरबन्द होने से आंतरिक स्थिति में अपेक्षाकृत सुधार नहीं हो रहा था जबकि उनके सबसे निकट के सहयोगी मिर्जा अफजल बेग ने ‘जनमत संग्रह मोर्चा’ बनाकर चुनावों का बहिष्कार करने की रणनीति अख्तियार कर ली थी। उनका सबसे ज्यादा असर दक्षिण कश्मीर में था जहां आजकल आतंकवादी सबसे ज्यादा सक्रिय हैं।

पं. जवाहर लाल नेहरू के जीवित रहते पाकिस्तान की हिम्मत कभी उस नियन्त्रण रेखा को तोड़ने की नहीं हुई जो 1947 में राष्ट्रसंघ के हस्तक्षेप से खिंच चुकी थी। इसकी असली वजह यह थी कि पं. नेहरू गुटनिरपेक्ष आंदोलन के सबसे प्रमुख नेताओं में से थे और दुनिया के नवोदित व विकासशील देशों का यह बहुत बड़ा समूह भारत का समर्थन करता था। इस समूह के पीछे संयुक्त सोवियत संघ की ताकत थी। 1955 में जब सोवियत संघ के सर्वोच्च नेता ख्रुश्चेव भारत आए तो उनसे सवाल पूछा गया कि कश्मीर के बारे में आपकी क्या राय है तो उन्होंने सीधा जवाब दिया कि इसका विलय भारत में हो चुका है। यह अंतर्राष्ट्रीय मसला नहीं है परन्तु अमेरिका का रुख लगातार पाकिस्तान के हक में बना हुआ था और उसके साथ अन्य पश्चिमी राष्ट्र भी थे। इनमें सबसे प्रमुख ब्रिटेन था जिसकी भूमिका इस विवाद के पैदा होने में परोक्ष रूप से थी मगर पं. नेहरू ने इस मामले में किसी भी तीसरे पक्ष की भूमिका को एक सिरे से नकारते हुए पाकिस्तान से विलय पत्र को साफ-साफ पढ़ने को कहा मगर इस बीच 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया और इसमें भारत की पराजय हुई। तब तक पाकिस्तान में फौजी शासक जनरल अयूब की हुकूमत आ चुकी थी और उसने मौके का फायदा उठाते हुए अपने कब्जे वाले कश्मीर का एेसा बहुत बड़ा हिस्सा चीन को भेंट में दे दिया जिस पर उसने दुनिया की सबसे ऊंची सड़क ‘काराकोरम मार्ग’ बनाई।

पं. नेहरू ने इस घटना को बहुत संजीदगी से लेते हुए शेख अब्दुल्ला की नजरबन्दी समाप्त करते हुए उन्हें पाकिस्तान भेजा और वहां के हुक्मरानों को समझाने की ताईद की कि वे कश्मीर के साथ किसी प्रकार की छेड़छाड़ न करें क्योंकि कश्मीरी अपने इलाके को किसी अन्य देश के कब्जे में बर्दाश्त नहीं कर सकते। शेख अब्दुल्ला का पाकिस्तान में राजसी तरीके से स्वागत किया गया और उनकी यात्रा को राजकीय सम्मान दिया गया। जनरल अयूब को उनसे अपेक्षा थी कि वह पाकिस्तान के हक में कुछ एेसी बात कहेंगे जिससे भारत की सरकार चौंके मगर शेख अब्दुल्ला ने पाकिस्तान पहुंच कर खरी-खरी कही और जम्मू-कश्मीर रियासत से पाकिस्तान को निगाहें हटाने की हिदायत दी। शेख साहब जब पाकिस्तान से विदा हुए तो खिन्न जनरल अयूब ने उन्हें ‘नेहरू का गुर्गा’ बताकर रुखाई के साथ ​िवदा किया मगर मई 1964 में श्री नेहरू की मृत्यु हो गई और प्रधानमंत्री की कुर्सी पर स्व. लाल बहादुर शास्त्री बैठे।

शास्त्री जी को जनरल अयूब कमजोर प्रधानमंत्री मान बैठा और उसने अमेरिकी लड़ाकू आयुध सामग्री के भरोसे कश्मीर पर आक्रमण कर दिया परन्तु श्री शास्त्री ने ईंट का जवाब पत्थर से देते हुए पाकिस्तानी फौज के दांत खट्टे करवा दिए और भारत की फौजों ने लाहौर तक पहुंच कर पाकिस्तानियों को दिन में तारे दिखा दिए। इसके समीप बनी नहर में कुल्ला करके जब भारतीय सैनिकों ने विजय का डंका बजाया तो जनरल अयूब को अपनी असली हैसियत का अन्दाजा हुआ और उसने अमेरिका व सोवियत संघ के आगे गिड़गिड़ा कर राष्ट्रसंघ के हस्तक्षेप से युद्ध विराम करा दिया।

तब सोवियत संघ की सीमा में आने वाले ताशकन्द शहर में जनरल अयूब व शास्त्री जी में समझौता हुआ और फौजें अपनी पुरानी स्थिति में आ गईं मगर भारत-पाकिस्तान का यह युद्ध भारतीय अर्थव्यवस्था को बहुत महंगा पड़ा और स्व. इदिरा गांधी के प्रधानमन्त्री बनने पर अमेरिका की तरफ से उन पर भारतीय बाजारों को विदेशी कम्पनियों के लिए खोलने का दबाव बना जिसे इन्दिरा जी ने ठुकरा दिया और स्वतन्त्र भारत में पहली बार रुपए का अवमूल्यन करके भारत के व्यापार भुगतान सन्तुलन को ठीक किया। इस युद्ध के बाद पाकिस्तान के होश ठिकाने आ गए थे और उसका कश्मीर राग ढीला पड़ने लगा था। क्योंकि इस युद्ध को देखते हुए कश्मीर की जनता ने भारत के समर्थन में इसके साथ एकाकार होने के एेसे सबूत दिए थे कि पाकिस्तान को इस राज्य में मजहब के आधार पर अपनी दाल गलने का ख्वाब छोड़ना पड़ा। जम्मू-कश्मीर विधानसभा ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित करके अनुच्छेद 370 के उस प्रावधान में संशोधन किया जिसमें सूबे के प्रधानमन्त्री को मुख्यमन्त्री और सदरे रियासत को राज्यपाल के नाम से जाना जाने लगा। (क्रमशः)

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