लाहौर कर्जदार है चंद हिन्दू लालों का - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

लोकसभा चुनाव 2024

पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

चौथा चरण - 13 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

96 सीट

पांचवां चरण - 20 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

49 सीट

छठा चरण - 25 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

सातवां चरण - 1 जून

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

लाहौर कर्जदार है चंद हिन्दू लालों का

हमारे भारतीय उपमहाद्वीप की वित्तीय जिंदगी में कुछ ऐसी शख्सियतें भी हुई हैं जिन्हें धीरे-धीरे हम भूलते जा रहे हैं। सरदार दयाल सिंह मजीठिया का नाम यदि अब भी आदर के साथ लिया जाता है तो उसका मुख्य कारण यही है कि लाहौर के इस शख्स ने पत्रकारिता और शिक्षा के क्षेत्र में कुछ ठोस पहलकदमियां की थीं। इसी के साथ ही साथ दयाल सिंह लाइब्रेरी, दयाल सिंह कॉलेज (लाहौर, करनाल व दिल्ली) और अनेक अन्य संस्थाएं अब भी इस महान शख्सियत को दुआएं देती हैं। इसी शृंखला में सर गंगा राम का नाम आता है, जिन्हें आज भी ‘माडर्न लाहौर’ का निर्माता माना जाता है। लाहौर की जि़ंदगी में सर गंगाराम ऐसे रच बस गए थे कि मंटो सरीखे लेखकों ने भी अपनी एक कहानी में उन्हें पात्र बनाया।
वैसे लाहौर एवं अविभाजित पंजाब के आर्थिक विकास में लाला लाजपत राय का भी विशिष्ट योगदान था, मगर उनका स्वाधीनता सेनानी एवं राष्ट्रभक्त वाला पक्ष उनकी अन्य भूमिकाओं पर हावी हो गया था। वह स्वाधीनता सेनानी तो थे ही इसके अलावा पहली बार बैंकिंग व बीमा क्षेत्र में उन्होंने लाहौर में अपनी विशिष्ट पहचान स्थापित की थी। वहां की लक्ष्मी इंश्योरेंस कंपनी, पंजाब नेशनल बैंक व कुछ अन्य बड़े व्यावसायिक संस्थानों में भी लाला लाजपत राय की विशिष्ट भूमिका थी। इसके अलावा भी पत्रकारिता और वकालत के क्षेत्र में भी उन्हें पहली कतार में रखा जाता था। इसी शृंखला में महाश्य कृष्ण, लाला जगत नारायण और महाश्य आनंद स्वामी के नाम भी पत्रकारों-प्रकाशकों की श्रेणी में आते हैं। इसी क्रम में एक अन्य भारतीय उद्यमी लाला हरकिशन लाल। डेरा गाज़ी खान के एक कस्बे लैय्या में वर्ष 1864 में जन्मे इस लाले की पूरी जि़ंदगी में ऐसे उतार-चढ़ाव आए कि उसे ‘अर्श से फर्श’ और फिर ‘फर्श से अर्श’ तक की जि़ंदगी का महानायक माना गया।
लाला हरकिशन लाल की शिक्षा-दीक्षा गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर से हुई थी। बाद में अपनी मेधावी क्षमता के आधार पर एक छात्रवृत्ति लेकर व त्रिनिटी कॉलेज कैम्ब्रिज में चले गए। वहां गणित विषय पर अपने विशिष्ट अध्ययन में उन्हें ‘विशिष्ट’ छात्र घोषित किया गया और वहां से भारत लौटने पर उन्हें गणित के प्राध्यापक के रूप में गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर में नौकरी मिली।
इसी बीच सरदार दयाल सिंह मजीठिया की प्रेरणा के आधार पर उन्होंने वित्तीय-प्रबंधन के क्षेत्र में प्रवेश लिया। उन्हें उन दिनों पंजाब नेशनल बैंक में भी मानद सचिव (आनरेरी सैक्रेटरी) का पद दिया गया। उसी वर्ष लाला हर किशन लाल ने लाहौर में ही भारत इंश्योरेंस कंपनी की स्थापना की और सरदार मजीठिया ने उन्हें अपने दी ट्रिब्यून ट्रस्ट में भी ट्रस्टियों की फहरिस्त में शामिल कर लिया।
इसी मध्य इस उद्यमी लाला ने अपनी वकालत को पूरी तरह त्याग दिया और अपने आपको पूरी तरह औद्योगिक संस्थानों व व्यापारिक संस्थानों में ही खपा दिया। ईर्ष्या के कारण उन्हें ब्रिटिश शासन के कुछ अधिकारियों, कुछ धार्मिक कट्टरपंथी संगठनों व कुछ आर्यसमाजी नेताओं के विरोध का भी सामना करना पड़ा। विरोधियों ने उन दिनों उसके बैंक खातेदारों में भी अफवाह फैला दी कि उनकी जमा-पूंजी कभी भी खतरे में पड़ सकती है। उधर, वर्ष 1919 में उन्हें कुछ अंग्रेजी अधिकारियों की शिकायत पर राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। कुछ महीने जेल में रहना पड़ा। रिहाई के बाद लाला अपने विरोधियों की साजि़शों से तंग आकर बीमार पड़ गए और फिर उन्होंने प्राण त्याग दिये। बाद में उनके सुपुत्र व प्रख्यात वकील एवं लेखक केएल गाबा ने एक पुस्तक भी लिखी ‘सर डगल्स यंगज़ मैग्ना कोर्टा’। उसे भी कुछ समय सींखचों के भीतर ही रहना पड़ा।
इस परिश्रमी लाला की ‘लाहौर इलेक्ट्रिक सप्लाई’ कंपनी भी चर्चा में रही थी। उसने लाहौर में आटा मिलें भी लगाई, ईंटों के भट्ठे स्थापित किए, साबुन के कारखाने लगाए और बर्फ की फैक्ट्रियां व ‘कॉटन-वीविंग मिलें’ भी लगाईं। पाकिस्तान का सर्वाधिक पुराना व बड़ा शहर लाहौर सिर्फ लोकगीतों में ही चर्चित नहीं रहा, देश की सियासत, रहन-सहन व ऐतिहासिक विरासतों के लिए चर्चा में बना रहा।
इसी शहर में चंद ऐसी शख्सियतें थीं जिनके कर्ज तले पूरा पाक-पंजाब दबा रहा है। महाराजा रणजीत सिंह के बाद पांच अन्य शख्सियतें ऐसी थीं जो इस शहर की रूह मानी जाती थीं। इनमें सरदार दयाल सिंह मजीठिया, सर गंगाराम, बुलाकी शाह, छज्जू राम भाटिया, हरकिशन लाल व लाला लाजपत राय प्रमुख थे। सर गंगा राम ने यहां की आधी ऐतिहासिक इमारतों के अलावा एक विशाल अस्पताल का निर्माण कराया था। ब्रह्मसमाजी सरदार दयाल सिंह मजीठिया को ‘दी ट्रिब्यून’ समाचार-पत्र की शुरुआत व अन्य अनेक सामाजिक संस्थाओं को संरक्षण देने का श्रेय दिया जाता है। स्वर्ण-व्यापारी छज्जू राम भाटिया का ‘छज्जू का चौबारा’ अपने समय का एक विलक्षण इतिहास समेटे हुए है।
मगर भारत-पाक विभाजन के साथ सर्वाधिक खून-खराबा व दंगों का गवाह सेठ बुलाकी शाह ही रहा। दंगाइयों ने उस क्षेत्र के मंदिरों व हिन्दू परिवारों पर हल्ला बोलने के साथ ही बुलाकी शाह की हवेली पर धावा बोला था।
इनमें सर्वाधिक कम चर्चित की चर्चा सबसे पहले। और वह शख्सियत थी बुलाकी शाह की। चलिए उसकी चर्चित हवेली चलें और उसकी बहुचर्चित एवं लापता बहियों के रक्त सने पृष्ठों की बात करें। लाहौर के गुमटी बाज़ार में अक्सर शादी-ब्याह के अवसर पर की जाने वाली खरीदारी की रौनक रहती है। हालांकि इस बाजार में प्राय: ट्रैफिक-जाम की समस्या भी रहती है, मगर महिलाओं के लिए यह अब भी सबसे ज़्यादा पसंदीदा बाज़ार है। इसी में एक बार चक्कर काटने से उन्हें सुकून व खुलेपन का अहसास मिल जाता है। इस बाज़ार में पहुंचने के लिए एक रास्ता दिल्ली गेट से रंगमहल की ओर खुलता है और दूसरा रास्ता लहंगा मंडी से टक्साली-गेट वाला है। हर शाम यह बाज़ार तरह-तरह की रंग-बिरंगी रोशनियों से नहाता है और लज़ीज़ खाने-पीने की दुकानें भी दोपहर के बाद सजने लगती हैं। बीच-बाज़ार में एक विशाल हवेली है जो हवेली-बुलाकी शाह के नाम से प्रसिद्ध है। इसका एक नाम कैमला-बिल्डिंग भी था। प्राप्त साक्ष्यों व दीवारों पर दर्ज तारीखों के अनुसार यह हवेली 17 अप्रैल, 1929 में बनी थी। इसके सामने ही लाहौर का प्रसिद्ध ‘पानी वाला तालाब’ था जो वर्ष 1883 में बना था।
मैं जब वर्ष 1988 में एक बार इसी हवेली की तरफ गया तो वहां पर एक डॉक्टर अपना क्लीनिक चलाता था और वहीं उसका आवास भी था। डॉक्टर ने बताया था कि इस गुमटी-बाज़ार की पुराने वक्तों में ‘गली काली माता’ भी कहा जाता था। उस हवेली में एक समय बुलाकी शाह नामक एक हिन्दू व्यापारी रहता था और उसी ने अपनी अकूत दौलत से एक हवेली को सजाया-संवारा था। इसी के साथ सटा क्षेत्र कूचा-हनुमान भी कहलाता था। यहीं पर स्थित था काली माता का प्रसिद्ध मंदिर और ‘शिवाला पंडित राधा कृष्ण’। मूल रूप में यह सारा क्षेत्र हिन्दू-बहुल था और छोटे-छोटे मंदिरों की इस क्षेत्र में भरमार थी। हर दुकानदार सुबह कारोबार आरंभ करने से पहले यहीं पंडित जी से तिलक कराने व मूर्तियों के समक्ष शीश नवाने आता था। इसी क्षेत्र में बुलाकी शाह का आर्थिक-साम्राज्य फैला हुआ था। उसकी हवेली में अक्सर पाक-पंजाब व सिंध क्षेत्र से आए किसानों व मध्यम दर्जे के ज़मीदारों की भीड़ लगी रही थी।
कहा जाता था कि आधे से ज़्यादा पंजाब बुलाकी शाह का कर्जदार था। उसकी बहियों में कुछ बड़े-बड़े ज़मीदारों के भी ‘राज’ दर्ज थे। अक्सर बड़े-बड़े ज़मीदार, चांदी की काठी सजे घोड़ों पर सवार होकर आते। वहां उतरते और उनके कारिंदे वहां से घोड़ों को तालाब की ओर ले जाते। बाद में वे सेठ बुलाकी शाह के पक्ष की ओर बढ़ जाते। बुलाकी सेठ मौसम के अनुसार उन्हें पहले ठंडा-गर्म पिलाता और फिर उनसे लेन-देन की बात शुरू करता और उसके बाद कुछ स्टाम्प-पेपरों पर उन बड़े लोगों के दस्तखत दर्ज होते या कुछ मामलों में अंगूठे भी लगते। कुछ पुराने लोगों ने बताया था कि सेठ बुलाकी शाह की ब्याज-दर 1.8 प्रतिशत होती थी। उसकी एक विशेषता यह भी थी कि बड़े घरों की भीतरी आर्थिकता का जि़क्र तक किसी से नहीं करता था। एक दिलचस्प बात यह भी थी कि कर्ज के लिए आने वालों में कुछ बुर्कापोश सम्भ्रांत औरतें भी होती थीं। लाला के कमरे में प्रवेश से पहले ही वे बुर्का उतारतीं और फिर लेन-देन की बात चलती।
कहा यही जाता है कि उस क्षेत्र में सर्वाधिक रक्तपात का एक उद्देश्य उन बहियों को नष्ट करना भी था जिनमें बड़े-बड़े लोगों के लेन-देन के राज दफन थे। उन दिनों सर्वाधिक रक्तपात इसी क्षेत्र में हुआ था। एक कारण था हिन्दू बहुल क्षेत्र होना तो दूसरा यह भी था कि बुलाकी शाह की बहियों को नष्ट किया जाए। कर्जदारों में यही चर्चा थी कि अगर बहियां बच गई तो बुलाकी शाह की औलादें उन्हीं बहियों के आधार पर अपने दबंगों के माध्यम से वसूलियां शुरू कर देंगी। दूसरा कारण यह भी था कि बहियों में बड़े-बड़े ऐसे राजनीतिज्ञों के भी अंगूठों के निशान या हस्ताक्षर मौजूद थे जो मुस्लिम लीग के बड़े पदाधिकारी बन गए थे या मुहम्मद अली जिन्ना के करीबी थे।
एक दिलचस्प व दुखद पहलू अदब के क्षेत्र से भी जुड़ गया था। इसी गुमटी बाज़ार में अमृता प्रीतम का आवास भी था। अमृता किसी भी सूरत में लाहौर नहीं छोड़ना चाहती थी। मगर उसने एक बार अपने आवास की पहली मंजि़ल से एक दहशतज़दा औरत पर वहशियाना हमले का एक भयावह मंज़र देख लिया था। उसने उसी पल फैसला ले लिया था कि वह ऐसे हैवानी माहौल में किसी भी सूरत में रह नहीं पाएगी। उसने अपने एक संबंधी की मदद से दिल्ली जाने वाली भीड़भरी रेल पकड़ ली थी और उसी रेल में उसने एक फटे-पुराने कागज पर अपनी सर्वाधिक चर्चित नज़्म लिखी थी, ‘अज आखां वारिस शाह नूं, कितों कब्रां विचो बोल…’।
बुलाकी शाह व उसकी संतानों का सही-सही पता ठिकाना मालूम नहीं हो पाया। चर्चा यह भी थी कि वह पागल सा हो गया था। उसके एक बेटे की दंगाइयों ने हत्या कर दी थी। बहियों के अनेक रक्त सने पृष्ठ इसी गुमटी बाज़ार की नालियों में बहते देखे गए थे। इस हवेली के बारे में एक नया तथ्य अब उछाला जा रहा है। इसके अनुसार वहां के एक चर्चित कलाकार खलीफा इमामुदीन का भी इस हवेली से संबंध रहा था। एक वक्त ऐसा भी आया जब खलीफा व उसके संरक्षकों के दखल से यह हवेली बुलाकी शाह को बेच दी गई थी। तब पूरी हवेली 150 रुपए में ही बिकी थी।

– डॉ चंद्र त्रिखा

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

one × 1 =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।