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संसद ही करे फैसला…

सुप्रीम कोर्ट ने एक से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने पर रोक लगाने की याचिका को खारिज करते हुए यह स्पष्ट कर दिया है कि यह एक नीतिगत मामला है और राजनीतिक लोकतंत्र का मुद्दा है।

सुप्रीम कोर्ट ने एक से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने पर रोक लगाने की याचिका को खारिज करते हुए यह स्पष्ट कर दिया है कि यह एक नीतिगत मामला है और राजनीतिक लोकतंत्र का मुद्दा है। पीठ का कहना है कि अगर संसद इसमें संशोधन करना चाहती है तो वह कर सकती है लेकिन अदालत ऐसा नहीं करेगी। शीर्ष अदालत ने यह भी कहा है कि एक राष्ट्रीय पार्टी  का नेता अपनी अखिल भारतीय छवि दिखाना चाहता है और यह दिखाना चाहता है कि वह उत्तर, पूर्व, पश्चिम, दक्षिण भारत मेें भी कहीं खड़ा हो सकता है तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है। राजनीति पर पैनी नजर रखने वाले लोग इस मुद्दे पर बंटे हुए हैं। कुछ का मानना है कि लोकतंत्र में किसी भी व्यक्ति को कहीं से भी चुुनाव लड़ने का अधिकार है और बहुत सी महान शख्सियतें रही हैं जिन्होंने एक से अधिक सीटों पर चुनाव लड़कर अपनी राष्ट्रीय छवि प्रस्तुत की है। उम्मीदवार कई कारणों से अलग-अलग सीटों से चुनाव लड़ सकते हैं। इससे राष्ट्रीय एकता और सद्भाव की भावना को बल मिलता है, जबकि दूसरे पक्ष का कहना है कि एक से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने पर उम्मीदवार को एक सीट छोड़नी पड़ती है। खाली हुई सीट पर फिर से उपचुनाव कराया जाता है इससे खर्चा बढ़ जाता है। चुनाव आयोग की परेशानी भी बढ़ती है और उसे मतदान के लिए तमाम व्यवस्थाएं करनी पड़ती हैं। एक से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने के नियम पर पहले भी सवाल उठते रहे हंै। एक सुझाव  यह भी आया था कि अगर कोई  दो जगह से चुनाव लड़ता है तो उससे उपचुनाव का खर्च लिया जाना चाहिए। चुनाव आयोग ने भी एक से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने पर रोक लगाने की याचिका का समर्थन किया था, लेकिन सरकार का कहना था कि अगर जनप्रतिनिधित्व एक्ट की धारा 33 (7) में संशोधन किया जाता है तो इससे उम्मीदवारों के अधिकारों का उल्लंघन होगा। एक उम्मीदवार, दो निर्वाचन क्षेत्र प्रणाली राजनीति के साथ-साथ उम्मीदवारों के लिए विकल्प प्रदान करती है। वर्ष 1996 में चुनावी सुधार पर विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट में और उस से पहले 1990 में दिनेश गोस्वामी समिति की रिपोर्ट में भी किसी भी प्रत्याशी को एक ही सीट पर प्रतिबंधित करने की सिफारिशें शामिल थी। 1996 से पहले देश के राजनीतिज्ञों ने तीन-तीन सीटों पर भी चुनाव लड़ा है। 1996 में ही जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन किया गया ताकि किसी व्यक्ति को दो से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने से रोका जा सके। संशोधन से पहले निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या पर कोई रोक नहीं थी। चुनावी राजनीति के इतिहास में अनेक दिग्गज नेता दो सीटों पर चुनाव लड़ते देखे जा चुके हैं।
1957 के आम चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी ने उत्तर प्रदेश के तीन लोकसभा क्षेत्रों लखनऊ, मथुरा और बलरामपुर से अपना भाग्य आजमाया था। वहीं, 1977 में जब कांग्रेस के गढ़ कहे जाने वाले रायबरेली से इंदिरा गांधी चुनाव हार गईं तो 1980 के आम चुनाव में उन्होंने रायबरेली के साथ आंध्रा प्रदेश की मेडक से भी चुनाव लड़ा और दोनों ही जगहों से जीत हासिल की। जीत के बाद उन्होंने रायबरेली को चुना और मेडक की सीट छोड़ दी, जहां उपचुनाव हुए। 1991 में अटल बिहारी ने लखनऊ के अलावा विदिशा से भी चुनाव लड़ा, वहीं लाल कृष्ण आडवाणी ने नई दिल्ली और गांधीनगर से चुनाव लड़ा। सपा के पूर्व प्रमुख मुलायम सिंह यादव भी 2014 के आम चुनाव में मैनपुरी और आजमगढ़ दोनों जगह से चुनाव लड़े। 2009 में आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव भी सारण और पाटलीपुत्रा से चुनाव लड़े, टीडीपी प्रमुख रहे एन टी रामाराव ने भी 1985 में और हरियाणा के पूर्व सीएम देवीलाल ने भी 1991 में तीन सीटों से चुनाव लड़ा था। एनटीआर जहां तीनों सीटों से जीते तो देवीलाल तीनों सीट से हार गए। बहरहाल इस बार के विधानसभा चुनावों में भी कुछ नेता दो सीटों से चुनाव लड़ते देखे जा सकते हैं।
2019 के आम चुनाव में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी अमेठी और वायनाड दो सीटों से चुनाव लड़ा था, लेकिन वह अमेठी से चुनाव हार गए थे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी वाराणसी और वड़ोदरा लोकसभा सीटों से चुनाव लड़ा था आैर वह दोनों जगह चुनाव जीत गए ​थे, बाद में उन्होंने वड़ोदरा सीट छोड़ दी थी। अब सवाल यह है कि आज के दौर में चुनाव बहुत महंगे हो गए हैं और बार-बार चुनावों से मतदाताओं का मोह भंग होने की आशंकाएं भी बनी रहती हैं, लेकिन लोकतांत्रिक तरीके से सोचा जाए तो सभी को एक से अधिक सीट पर चुनाव लड़ने से रोकना अधिकारों का उल्लंघन होगा। यह एक विधायी नीति का मामला है। कानून संसद में बनते हैं, अदालतों में नहीं। एक से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ना लोकतंत्र के पक्ष में है या नहीं यह विचार करना संसद का काम है न कि अदालतों का। लोकतंत्र के सर्वोच्च मंदिर संसद को ही यह तय करना होगा कि बार-बार चुनावों से अर्थिक बोझ काे कम करने के लिए क्या किया जा सकता है? यह संसद की इच्छाशक्ति पर निर्भर है कि वह राजनीतिक लोकतंत्र में ऐसा विकल्प जारी रखना चाहती है या नहीं।

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