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लोकसभा चुनाव 2024

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चलो चुनावों की ओर…

17वीं लोकसभा का अन्तिम सत्र समाप्त हो चुका है और इसका कार्यकाल भी मई महीने में समाप्त हो जायेगा अतः नई लोकसभा के चुनाव इससे पूर्व होंगे। इन चुनावों की तैयारी में राजनैतिक दलों की कमानें खिंचने लगी हैं और चुनाव आयोग इनकी तैयारी में लग चुका है। उम्मीद है कि मार्च महीने में आदर्श चुनाव आचार संहिता भी लागू कर दी जायेगी। भारत का लोकतन्त्र इस देश की सबसे बड़ी अमानत है जिसे यहां के लोगों ने पीढि़यों की कुर्बानी देकर हासिल किया है और इसके सामान्य नागरिक को एक वोट के अधिकार से ‘संप्रभु’ बनाया है। हर पांच साल बाद यही संप्रभुता आम नागरिक अपने वोट को किसी एक राजनैतिक दल या उनके समूहों को देकर इसका ‘हस्तान्तरण’ करता है जिससे किसी पार्टी या पार्टियों का गठबन्धन सत्ता में आता है और पूरे पांच साल लोगों के प्रति जवाबदेह रहने की कसम उठाता है। यह जवाबदेही लोकतन्त्र का मूल होती है। लोकतन्त्र का मतलब केवल चुनाव ही नहीं होते हैं बल्कि इनके माध्यम से जिस संप्रभुता का हस्तान्तरण राजनैतिक दलों को होता है उसका सर्वाधिक महत्व होता है।
राजतन्त्र और लोकतन्त्र में यही मूलभूत अन्तर होता है कि जहां राजतन्त्र में राजा सर्वशक्ति सम्पन्न होता है वहीं लोकतन्त्र में लोग या जनता सर्वशक्ति सम्पन्न होती है, जिसके हाथ में यह ताकत होती है कि वह पूरे पांच सालों तक सत्ता पर काबिज लोगों को अपने संवैधानिक अधिकारों की ताकत पर घुटनों के बल झुकाये रखे। यह काम संसद के माध्यम से होता है जिसमें जनता द्वारा चुने गये सांसद होते हैं। एक इकाई के रूप में हर सांसद के अधिकार बराबर होते हैं और इन अधिकारों की रक्षा का दायित्व लोकसभा के अध्यक्ष व राज्यसभा के सभापति पर होता है। लोकतन्त्र में सबसे ज्यादा जरूरी है कि संप्रभुता हस्तान्तरण की चुनावी प्रक्रिया पूरी तरह साफ-शफाक और शुद्ध रहे अर्थात चुनावों के नतीजों पर किसी भी नागरिक को किसी प्रकार की शक की अंगुली उठाने की गुंजाइश न रहे परन्तु हम देख रहे हैं कि देश में आजकल चुनावों में ईवीएम मशीनों के प्रयोग को लेकर बहस छिड़ी हुई है और बैलेट पेपर के माध्यम से चुनाव कराये जाने की मांग की जा रही है।
हमारी लोकतान्त्रिक प्रणाली में इस चुनावी कार्य में सरकार की कोई भूमिका नहीं है और यह सीधे जनता व चुनाव आयोग के बीच की बात है। हमारे चौखम्भे विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिक व चुनाव आयोग के राज में चुनाव आयोग सबसे महत्वपूर्ण खम्भा है जो पूरी लोकतान्त्रिक व्यवस्था की जमीन तैयार करता है। फिर उसी पर शेष तीन खम्भे खड़े होते हैं। अतः चुनाव आयोग का यह दायित्व बनता है कि वह हर हालत में लोकसभा चुनावों से पूर्व ईवीएम मशीनों पर उठे शक को दूर करे क्योंकि वह सरकार से निरपेक्ष एक स्वतन्त्र व खुद मुख्तार संस्था है और सीधे संविधान से शक्ति लेकर काम करता है। चुनाव में प्रत्येक राजनैतिक दल को एक समान परिस्थितियां या जमीन देना उसका धर्म है। भारत का महान लोकतन्त्र जो हमें महात्मा गांधी और डा. अम्बेडकर ने अंग्रेजों की दासता से मुक्त करा कर दिया, पूरी दुनिया में इसकी बहुत बड़ी उदार ताकत (साफ्ट पावर) है। चुनावों में सत्तारूढ़ दल अपने पिछले पांच साल के कामकाज का हिसाब-किताब लोकतन्त्र की मालिक जनता को देता है और उसके आधार पर अपनी मेहनत की मजदूरी अगले पांच साल के लिए मांगता है।
लोकतन्त्र में सरकार जनता की मालिक नहीं बल्कि सेवादार होती है। भारत में अभी तक हमने कई बार केन्द्र में सत्ता बदल देखा है और एक ही दल को पुनः अगले पांच सालों के लिए सत्तारूढ़ होते भी देखा है। यह काम इस देश का आम आदमी ही अपने एक वोट की ताकत से करता आ रहा है। इसलिए लोकतन्त्र में सर्वाधिक शक्तिशाली मतदाता को ही माना जाता है और उसे लोकतन्त्र का भगवान कहा जाता है। संविधान में आम नागरिक के जो मौलिक अधिकार हैं वे उसकी ताकत की रक्षा करने के लिए ही हैं जिनका संरक्षण न्यायपालिका करती है। इतनी लाजवाब कशीदाकारी का खूबसूरत लोकतन्त्र महात्मा गांधी इस देश की नई पीढि़यों को सौंप कर गये हैं जिसकी सुरक्षा गद्दी पर बैठने वाली हर पार्टी की सरकार को करनी पड़ती है क्योंकि वह संविधान की कसम उठाकर ही देश का शासन चलाती है। चुनावों में इस बार साफ तौर पर भाजपा बनाम कांग्रेस या इंडिया गठबन्धन की लड़ाई होती दिख रही है। मगर यह परोक्ष रूप से विचारों का महायुद्ध भी होने जा रहा है। निश्चित रूप से जो भी पार्टी सत्ता में होती है उसका दबदबा सर्वत्र दिखाई पड़ता है मगर लोकतन्त्र में जनता के दरबार में उसकी ही जवाबतलबी भी सबसे ज्यादा होती है और विपक्ष इस खेल में जनता का वकील बना हुआ दिखाई पड़ता है।
संसद से लेकर सड़क तक लोकतन्त्र का यही नियम होता है। कुछ लोगों को शिकायत हो सकती है कि इस खेल के नियम बदलने की कोशिश की जा रही है मगर ऐसा कहने वाले लोकतन्त्र में लोगों की ताकत को ही अनदेखा कर देते हैं। इस फलसफे को महात्मा गांधी ने स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान ही साफ कर दिया था और पूरी दुनिया को सन्देश दिया था कि भारत के अनपढ़ व गरीब-मुफलिस लोग फटेहाल हो सकते हैं मगर वे मूर्ख नहीं हैं। वे जानते हैं कि उनके लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा है। उनका व्यावहारिक दुनियावी ज्ञान किसी भी पढे़- लिखे या अमीर इंसान से कम नहीं है। इसीलिए उन्होंने 1936 में ही घोषणा कर दी थी कि स्वतन्त्र होने पर भारत में हर अमीर-गरीब व हर जाति व धर्म और वर्ग के वयस्क स्त्री-पुरुष को एक वोट का अधिकार होगा जिसकी ताकत पर वह अपने लिए सरकार का गठन करेगा। हमारा लोकतन्त्र हमें हमेशा गांधी के लोगों की बुद्धिमत्ता में अटूट विश्वास की ही याद दिलाता है। पिछले 75 सालों से हम इस पर खरा भी उतर रहे हैं। चुनाव आयोग को भी इसी के अनुरूप अपनी कार्यप्रणाली में परिमार्जन करना चाहिए जिससे लोगों का विश्वास लोकतन्त्र में हमेशा अटूट बना रहे।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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