क्षेत्रीय चुनावों के ‘राष्ट्रीय’ मुद्दे - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

क्षेत्रीय चुनावों के ‘राष्ट्रीय’ मुद्दे

पांच राज्यों के चुनावों का बुखार अब सिर चढ़कर बोलने लगा है और चुनाव प्रचार अब धीरे-धीरे चरम पर पहुंच रहा है। इन चुनावों की सबसे खास बात यह है कि सभी राज्यों में कांग्रेस पार्टी का मुकाबला भाजपा व अन्य क्षेत्रीय पार्टियों से हो रहा है अतः जो भी चुनाव परिणाम आयेंगे उनसे कांग्रेस का भविष्य सीधे अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों से बंध जायेगा। ठीक ऐसा ही समीकरण भाजपा के बारे में भी बनेगा क्योंकि यह पार्टी उत्तर भारत के हिन्दी क्षेत्र की ‘दिलेर’ पार्टी मानी जाती है। इन राज्यों में राजस्थान, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ माने जाते हैं। इन तीनों ही राज्यों ने पिछले 2018 के चुनावों में बेशक कांग्रेस को विजय दिला कर इसकी सरकारें तीनों राज्यों में बनाई थीं मगर कुछ महीने बाद ही हुए लोकसभा चुनावों में भाजपा ने कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया था। अतः यह सनद रहनी चाहिए कि भारत के मतदाताओं का मिजाज विधानसभा और लोकसभा चुनावों में बदलता रहता है परन्तु राजनीति में परिस्थितियां कब और क्यों बदल जायें कोई नहीं जानता। पिछले लोकसभा चुनावों में भाजपा का जन विमर्श कुछ महीने पहले विधानसभा चुनावों के जन विमर्श से पूरी तरह बदला हुआ था जिसका मुकाबला कांग्रेस समेत अन्य ​विपक्षी दल नहीं कर पाए थे। जहां तक चुनावों में जा रहे तेलंगाना व मिजोरम राज्यों का सवाल है तो इनमें भी कांग्रेस पार्टी इन राज्यों की जरूरत के मुताबिक अपना विमर्श खड़ा करने की कोशिश कर रही है और भारत राष्ट्र समिति व मिजो नेशनल फ्रंट पार्टियों के सामने कड़ी चुनौती पेश करना चाहती है।
यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या इन राज्यों के चुनावों को लोकसभा चुनावों का सेमीफाइनल माना जाये? जाहिर है कि चुनाव परिणामों का सरलीकरण होगा क्योंकि मतदाताओं के राज्य व राष्ट्र के बारे में अलग-अलग विचार व अवधारणाएं होती हैं। अतः कांग्रेस पार्टी का अलग-अलग राज्यों का क्षेत्रीय नेतृत्व वे मुद्दे उठा रहा है जिनसे राज्यों के लोग ज्यादा से ज्यादा जुड़ें जबकि भाजपा की कोशिश है कि राज्यों के मुद्दों को केन्द्र में रखते हुए राष्ट्रीय विमर्श के आवरण में इन्हें मतदाताओं के सामने रखा जाये। इस फर्क को हमें समझना होगा और तब इस तथ्य की समीक्षा करनी होगी कि क्यों भाजपा इन राज्यों में किसी क्षेत्रीय नेता का चेहरा आगे रखकर चुनाव नहीं लड़ रही है परन्तु इस हकीकत से कांग्रेस भी बेखबर नहीं लगती है। यही वजह है कि राजस्थान के मुख्यमन्त्री श्री अशोक गहलोत ने आज दिल्ली में अपनी पार्टी के मुख्यालय में एक प्रेस कांफ्रैंस करके चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद विभिन्न जांच एजेंसियों के राजनैतिक नेताओं पर मारे जा रहे छापों का सवाल उठाया और मुद्दा खड़ा किया कि चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद इस प्रकार की कार्रवाइयों को चुनाव बाद तक मुल्तवी क्यों नहीं किया जा सकता। यह प्रश्न बहुत व्यापक है और चुनाव प्रणाली की नैतिकता और चुनाव आयोग की संवैधानिक सीमाओं से जुड़ा हुआ है।
चुनाव प्रक्रिया शुरू होने के बाद देश की न्यायप्रणाली इससे जुड़े मामलों में दखल देना बन्द कर देती है और सब कुछ चुनाव आयोग पर छोड़ देती है परन्तु आर्थिक अपराधों के मामले में सम्बन्धित जांच एजेंसियां कार्रवाई करने के लिए स्वतन्त्र होती हैं। बेशक ये संवैधानिक संस्थाएं नहीं होती मगर वैधानिक तौर पर संसद द्वारा बनाये गये कानूनों के तहत काम करती हैं। अतः इन्हें स्वतन्त्र रूप से कार्रवाई करने का पूरा अख्तियार होता है। चुनावी प्रक्रिया की शुचिता और पारदर्शिता को देखते हुए ये केवल अपनी तरफ से ही कोई ऐसी आचार संहिता बना सकती हैं जिससे चुनाव आयोग द्वारा चुनावों में सभी दलों को एक समान अवसर सुलभ कराये जाने के मानदंडों पर कोई असर न पड़े। कानूनन उन्हें अपनी कार्रवाई करने का समय चुनने का पूरा अधिकार होता है।
चुनाव आयोग भी इस मामले में कोई दखल नहीं दे सकता। इन सब तथ्यों को देख कर लगता है कि पांचों राज्यों के चुनावों में भ्रष्टाचार भी एक मुद्दा रहेगा। मगर इस मुद्दे पर विरोधी दल एक-दूसरे को घेरने से बाज नहीं आ रहे हैं। जहां जो पार्टी सत्ता में है उस पर विपक्षी दल भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहे हैं। ऐसे माहौल में यदि जांच एजेंसियां अपना काम निष्पक्षता से करती हैं तो इसे कानूनी रूप से गलत भी नहीं कहा जा सकता है। परन्तु इससे हम यह जरूर निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि कांग्रेस पार्टी भी इन राज्यों के चुनावों को राष्ट्रीय आवरण में ही रख कर देखने की तरफ बढ़ रही है। पांच राज्यों के ये चुनाव वास्तव में साधारण चुनाव भी नहीं हैं क्योंकि राजस्थान व छत्तीसगढ़ में सत्ता पर काबिज कांग्रेस को अपने पिछले पांच सालों के काम के बूते पर जनता का मत जीतना है और मध्यप्रदेश में यही काम भाजपा को करना है। जिस प्रकार इन तीनों राज्यों की सरकारों ने सामाजिक सुरक्षा की विभिन्न योजनाएं शुरू की हैं और नई योजनाएं शुरू करने का दावा किया है उनके सम्बन्ध में भी श्री गहलोत ने एक मूल सवाल राष्ट्रीय चुनावों को देखते हुए खड़ा किया और मांग की कि सभी प्रकार की सामाजिक-आर्थिक स्कीमों को केन्द्र स्तर पर कानूनी जामा पहनाया जाये। गहलोत ने राजस्थान में बहुत सी ऐसी योजनाएं शुरू की हैं जिनसे गरीब व कम आय वाले लोगों के साथ किसानों को भी लाभ पहुंचा है। कुछ को उन्होंने कानूनी जामा भी पहनाया है परन्तु शिक्षा व स्वास्थ्य क्षेत्र में जन उपकारी योजनाओं को वह कानूनी रूप में देखना चाहते हैं। लोकतान्त्रिक भारत ने जब बाजार मूलक अर्थव्यवस्था अपनाई थी तो इन क्षेत्रों को बाजार के हवाले कर दिया गया था मगर 30 साल से अधिक का समय बीत जाने पर हम देख रहे हैं कि कमजोर व गरीब वर्गों की क्रय शक्ति में बढ़ौतरी बाजार की शक्तियों के आधारभूत ढांचे की वजह से नहीं हो पा रही है अतः लोक कल्याणकारी राज के सिद्धान्त के अनुरूप इन वर्गों की सामाजिक व आर्थिक सुरक्षा का ढांचा कड़ा करने की जरूरत वैधानिक तौर पर पड़ेगी।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

7 + four =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।