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विपक्ष : शंकर जी की बारात

देश में वर्तमान में विपक्षी दलों के जमघट की हालत ‘शंकर जी की बारात’ से कम नहीं हैं जिसके विविध रूप-रंग को देख कर नगरवासी अपने-अपने घरों में डर कर छिप रहे हैं और दूल्हा स्वयं ही बारातियों के संग नृत्य कर रहा हो।

देश में वर्तमान में विपक्षी दलों के जमघट की हालत ‘शंकर जी की बारात’ से कम नहीं हैं जिसके विविध रूप-रंग को देख कर नगरवासी अपने-अपने घरों में डर कर छिप रहे हैं और दूल्हा स्वयं ही बारातियों के संग नृत्य कर रहा हो। विपक्षी दलों की हालत ‘नौ कन्नौजी दस चूल्हें’ से भी बेहतर नहीं बताई जा सकती जिसमें कोई भी दूसरे को नेता मानने को तैयार ही नहीं होता है। बेशक देश में इस समय गैर भाजपावाद का दौर विपक्षी दल चलाना चाहते हैं मगर इन प्रयासों में वे अपनी-अपनी पहचान भी कायम रखना चाहते हैं। विभिन्न क्षेत्रीय दलों का गठबन्धन कभी भी बलशाली राष्ट्रीय पार्टी भाजपा या कमजोर हो रही कांग्रेस का विकल्प नहीं हो सकता क्योंकि इन सभी क्षेत्रीय दलों की न तो कोई राष्ट्रीय दूर दृष्टि है औऱ न ही अन्तर्राष्ट्रीय  सोच है।  भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र होने के साथ ही आबादी में दूसरे नम्बर का देश है और इसकी अर्थव्यवस्था विश्व की छठी सबसे बड़ी तेज गति से विकास करती अर्थव्यवस्था है। इतने बड़े देश में छितरी हुई क्षेत्र मूलक व जातिगत, वर्ग गत और साम्प्रदायिक तुष्टीकरण का नजरिया रखने वाले सभी दल यदि मिल भी जायें तो वे केवल विभिन्न दिशाओं में घूमने वाले औजारों का  समुच्य ही साबित होंगे। भारत की राजनीति में पांच दशक से भी ज्यादा समय तक कांग्रेस पार्टी रही है और उस समय भी गैर कांग्रेसवाद आंशिक रूप से ही 1967 के चुनावों में सफल रहा था। उसके बाद 2014 तक श्री नरेन्द्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीतिक फलक पर उभरने पर कांग्रेस पार्टी हिचकोले खाते हुए कभी सत्ता में तो कभी सत्ता से बाहर रही परन्तु इस पार्टी का  ऐतिहासिक अस्तित्व बरकरार रहा जिसके अवशेष देश के हर राज्य में आज भी  फैले पड़े हैं। अतः विपक्षी दलों का जो भी गठबन्धन बनेगा उसे कांग्रेस के आवरण की स्वाभाविक आवश्यकता होगी। इसलिए विभिन्न विपक्षी दल आज कल बिहार के पल्टीमार मुख्यमन्त्री श्री नीतीश कुमार को जिस तरह बांस पर चढ़ा रहे हैं वह सिवाय क्षणिक आवेग के कुछ नहीं है। यह  विपक्षी दलों द्वारा अपनी धुर विरोधी भाजपा का साथ छोड़ कर लालू जी का हाथ थामने वाले नीतीश बाबू के कदम को नैतिक सुरक्षा देने का प्रयास भर है, इससे ज्यादा कुछ नहीं।
 नीतीश बाबू बिहार के मुख्यमन्त्री के रूप में ऐसे नेता नहीं माने जा सकते जिनका नजरिया राष्ट्रीय चिन्ताओं का संज्ञान लेता हो। वह अपने प्रदेश की जातिमूलक राजनीति को नष्ट होने से बचाने के लिए ही लालू जी के साथ गये हैं। वह कश्मीर से लेकर नागरिकता संशोधन कानून के बारे में बेशक भाजपा से अलग राय रखते हैं मगर यह राय मोदी के भारत में हांशिये पर चली गई है और इसमें से देश की बहुसंख्य जनता को मुस्लिम तुष्टीकरण की बू आती है। दरअसल यही वह मूलभूत बदलाव है जो श्री मोदी 2014  में प्रधानमन्त्री बन कर भारत की राजनीति में लाये हैं और इसके तहत सर्वोपरि राष्ट्रीय हित ही अभीष्ट होता है जिसमें यह नहीं देखा जाता कि किसी कदम से हिन्दू नाराज होंगे या मुस्लिम नाराज होंगे बल्कि यह देखा जाता है कि देश प्रसन्न होगा कि नहीं। इसलिए विपक्षी दलों को अब पुराने रोने छोड़ कर भाजपा का ठोस विकल्प देने के लिए भाजपा विरोध के अलावा राष्ट्रवाद के भीतर ही वह सिद्धान्त खोजना होगा जिसमें आम भारतीय की पहचान हिन्दू व मुसलमान के करने के केवल भारतीय के होने का मन्त्र खोजा जाये। यादव-मुस्लिम या दलित-मुस्लिम अथवा पिछड़ा-मुस्लिम का जमाना लद चुका। इन समीकरणों से कांग्रेस को तो उत्तर भारत में पीछे धकेला जा सकता था मगर भाजपा को नीचे लाना मुमकिन नहीं है क्योंकि दलित से लेकर यादव व पिछड़ों में श्री मोदी ने जो मन्त्र फूंका है वह भारत-प्रथम का है। इस हकीकत को मुस्लिम मतदाता न पहचान रहे हों यह संभव नहीं है क्योंकि इस सम्प्रदाय में भी दबी आवाज में ऐसी सुगबुगाहट होने लगी है कि अपनी मजहबी जहनियत की वजह से ही इस सम्प्रदाय के लोग विकास की दौड़ में काफी पीछे रह गये हैं। 
श्री नीतीश कुमार ने 2013 में कहा था कि राजनीति में कभी तिलक लगाना पड़ता है तो कभी टोपी भी पहननी पड़ती है परन्तु वह भूल गये थे कि इस देश में आजादी के बहुत बाद  ही टोपियों की राजनीति क्यों शुरू हुई और किसने शुरू की। यह काम सबसे पहले क्षेत्रीय दलों ने ही शुरू किया और राजनैतिक आदर्शों को अधिकाधिक संकीर्ण बनाया। 1980 तक किसी भी राजनैतिक दल के नेता को टोपी पहनने की जरूरत नहीं पड़ी (सिवाय गांधी टोपी के)। राजनीति में मजहबी पहचान की टोपियां  क्षेत्रीय दलों की ही देन है। गांधी टोपियों के रंग बेशक अलग-अलग हो सकते थे मगर उनका रूप एक ही रहता था। लेकिन कयामत है कि बिहार में पल्टी मार सरकार के बनते ही 2024 के लोकसभा चुनावों की बातों हो रही हैं और शेखचिल्ली की तरह सपने देखे जा रहे हैं। सपने देखना कोई बुरी बात नहीं होती और राजनीति  सपने बेचने की कला ही मानी जाती है मगर इन सपनों का कोई सिरा तो है जिसे पकड़ कर खींचा जा सके। नीतीश बाबू तो अब ऐसी नौकरी में चले गये हैं जहां उन्हें क्या-क्या कुर्बान करना पड़ेगा कोई नहीं जानता। अभी से कहा जाना लगा है कि जंगल राज वापस आ रहा है। इसलिए बेचारे नीतीश बाबू अपनी मुख्यमन्त्री की पारी आराम से बितायें।
    ‘‘गालिब वजीफा ख्वार हो दो शाह को दुआ 
     वो दिन गये कि कहते थे नौकर नहीं हूं मैं।’’         

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