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पाक-ईरान-चीन और भारत !

पाकिस्तान ने ईरान पर जवाबी मिसाइल हमला करके यह सिद्ध करने की एलानिया कोशिश की है कि वह ‘जैसे को तैसा’ उत्तर देने में सक्षम है। इसके साथ हमें यह ध्यान भी रखना चाहिए कि आगामी 8 फरवरी को पाकिस्तान में राष्ट्रीय एसेम्बली के चुनाव भी होने वाले हैं अतः ऐसी कार्रवाई करना उसकी घरेलू राजनीति का दबाव भी हो सकता है। मगर इससे ऐतिहासिक रूप से यह भी सिद्ध होता है कि मजहब या धर्म न तो किसी देश की आन्तरिक एकता की गारंटी हो सकता है और न अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर यह आपसी सौहार्द व शान्ति का प्रणेता हो सकता है क्योंकि ईरान व पाकिस्तान दोनों ही इस्लामी देश हैं। पाकिस्तान का अस्तित्व ही मजहबी जुनून पर निर्भर करता है क्योंकि 1947 में भारत से काट कर जो देश पाकिस्तान बना था उसकी जड़ में मजहब ही था। मगर हमने देखा कि एक ही मजहब के लोगों की 98 प्रतिशत जनसंख्या होने के बावजूद पाकिस्तान में अन्तर- इस्लामी दंगे ‘शिया-सुन्नी’ के नाम पर किस प्रकार होते रहते हैं। इससे भी ऊपर मजहब यदि लोगों को आपस में जोड़े रखने का अन्तिम औजार होता तो 1971 में पाकिस्तान के दो टुकड़े क्यों होते और पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश क्यों बनता? इसकी एकमात्र वजह यह है कि जब मजहब के नाम पर किसी दूसरे मजहब के लोगों के प्रति घृणा या नफरत फैलाई जाती है तो यह इसके आधार पर बने राष्ट्र का ‘स्थायी भाव’ बन जाती है जो कि उसके एक धार्मिक राष्ट्र बन जाने के बावजूद मौजूद रहता है और फिर एक ही धर्म के लोग आपस में अलग-अलग धार्मिक फिरकों के नाम पर लड़ने लग जाते हैं।
यह फार्मूला राष्ट्रीय से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर काम करता है। यदि ऐसा न होता तो ईरान (शिया बहुल) और इराक (सुन्नी बहुल) देश में लगातार आठ वर्षों तक सत्तर के दशक में युद्ध क्यों चलता रहता। परन्तु वर्तमान में ईरान-पाकिस्तान संघर्ष के आयाम धार्मिक दायरे से बहुत ऊपर के दिखाई पड़ते हैं जिनमें अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति अपनी प्रमुख भूमिका निभाती नजर आती है। इसमें भारत को भी सजग रहने की सख्त जरूरत है। वजह साफ है कि वर्तमान में अमेरिका व चीन के बीच जो आ​िर्थक लागडांट चल रही है उसके सैनिक आयाम भी हमें देखने को मिलते हैं। मसलन अरब सागर से लेकर हिन्द-प्रशान्त महासागर क्षेत्र तक में इन दोनों देशों के जंगी जहाजी बेड़ों का मोर्चा लगा हुआ है और इसके समानान्तर इजराइल व फिलिस्तीन का युद्ध चल रहा है जिसकी तरफ ऐसा लगता है कि अब मानवीय अधिकारों के अलम्बरदार कहे जाने वाले अमेरिका व अन्य पश्चिमी यूरोपीय देशों ने आंखें मूंद ली हैं क्योंकि वहां रोजाना के आधार पर इजराइल सैकड़ों फिलिस्तीनी नागरिकों की हत्या कर रहा है। बेशक इजराइल की इस कार्रवाई का विरोध ईरान यमन के हूती व फिलिस्तीन के हमास लड़ाकों के माध्यम से परोक्ष रूप से कर रहा है मगर दुनिया के अधिसंख्य देश फिलिस्तीन के गाजा इलाके में हो रही मानवीय हत्या से बेपरवाह नजर आ रहे हैं जबकि किसी भी धर्म को न मानने वाला देश चीन इस युद्ध में बिचौलिये की भूमिका में आना चाहता है। पाकिस्तान पर भी इस समय चीन का हाथ है जो इस देश के बलूचिस्तान इलाके में ग्वादर बन्दरगाह का निर्माण करके पूरे एशिया में अपना आर्थिक वर्चस्व स्थापित करना चाहता है। भारत ने इसका इलाज डा. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में ईरान के सिस्तान राज्य में चाबहार बन्दरगाह का निर्माण करके ढूंढा था। इससे चीन को फिक्र होना स्वाभाविक था। परन्तु ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर अमेरिका ने जिस तरह से ईरान की तरफ आंखें तरेरी और उस पर विभिन्न आर्थिक प्रतिबंध लगाये उससे चीन को इसके साथ अपने रिश्ते सुधारने का स्वर्ण अवसर मिला और आज ईरान व चीन के बीच बहुत ही दोस्तान ताल्लुकात हैं जिनका विस्तार आर्थिक व सैनिक क्षेत्र तक में है।
पाकिस्तान के साथ भी चीन के ऐसे ही ताल्लुकात हैं जिसकी वजह से वह इन दोनों देशों के बीच चौधरी बनने के प्रयास में नजर आता है लेकिन चीन का मुख्य प्रतिद्वन्द्वी अमेरिका यह नजारा चुपचाप होकर नहीं देख सकता है अतः वह पाकिस्तान को ललचाने की कोशिश कर सकता है और उसे पहले की तरह अपने खेमे में लाने के उपाय कर सकता है। चूंकि ईरान ने पाकिस्तान पर पहला हमला इस आधार पर किया था कि पाकिस्तान में पनप रहे दहशतगर्दों ने उसके सिस्तान-बलूच इलाकों में हमले किये। इससे पाकिस्तान की अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर एक आतंकवादी देश की तरह बनी छवि को ही बल मिला और पाकिस्तान ने इसी छवि को ध्वस्त करने की गरज से यह कह कर जवाबी हमला किया कि ईरान के आतंकवादी संगठनों ने उसकी जमीन पर हमला किया। इससे अमेरिका को हल्की सांस पाकिस्तान को अपने खेमे की तरफ लाकर ईरान को करारा सबक सिखाने में जरूर मिल सकती है मगर चीन ऐसा नहीं होने देगा क्योंकि ऐसा होते ही चीन की उस सरपरस्ती को गहरा धक्का लगेगा जो उसने ईरान व पाकिस्तान दोनों को ही दी हुई है। यदि हम इजराइल व फिलिस्तीन युद्ध के पेचीदा समीकरणों को छोड़ भी दें तो इस निष्कर्ष पर तो पहुंच ही सकते हैं कि पाकिस्तान के इन तेवरों से भारत को सतर्क रहने की जरूरत है क्योंकि ईरान के चाबहार बन्दरगाह से हमारी अपेक्षाएं छोटी नहीं हैं।

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