बेशक यह संयोग हो सकता है कि देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर इन्दिरा गांधी के पोते राहुल गांधी उस 16 दिसम्बर की तारीख को बैठे हैं जिस दिन 46 साल पहले इसी तारीख को भारत के राजनीतिक नेतृत्व की दूरदर्शिता ने पाकिस्तान को बीच से चीर कर दो हिस्सों में बांट दिया था और इस देश की महान पराक्रमी सेनाओं के समक्ष पाकिस्तान के 93 हजार सैनिकों ने आत्मसमर्पण करके अपने जान-ओ-माल की भीख मांगी थी। आजादी के बाद भारत की जनता ने तब पहली बार महसूस किया था कि विश्व शान्ति के अग्रदूत नेहरू की बेटी को घुट्टी में यह भी पिलाया गया है कि शान्ति और अमन के पैरोकारों की हिम्मत को जो लोग बुजदिली समझते हैं वे नादान कहे जाते हैं।
भारत के लोकतन्त्र की बुनियाद जिस सिद्धान्त पर रखी गई है वह महात्मा बुद्ध के ‘अहिंसा परमोधर्मः और सर्वे भवन्तु सुखिनः’ के सूत्रों से संचालित होती है। इन्हीं को पकड़ कर महात्मा गांधी ने पूरे भारत में स्वतन्त्रता की अलख जगाई थी और मजदूर-किसानों तक ने अनुभव किया था कि वे गांधी बाबा के रास्ते पर चलकर अंग्रेजों को अपने देश से बाहर कर सकते हैं। वास्तव में कांग्रेस पार्टी की यही ताकत थी जिसकी वजह से विभिन्न विचारधाराओं वाले लोग इसके छाते के नीचे आकर मुल्क की खिदमत करना चाहते थे मगर एेसा नहीं है कि इस विचारधारा को चुनौती देने वाले लोग नहीं थे। हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग दोनों ही कांग्रेस को पस्त देखना चाहती थीं और इसमें उन्हें सबसे पहले बंगाल में ही सफलता तब मिली थी जब 1936 के ब्रिटिश शासन में हुए पहले असैम्बली चुनावों में कांग्रेस इस राज्य में हार गई थी और इन दोनों पार्टियों ने हिन्दू–मुसलमान पहचान के आधार पर चुनाव लड़ा था मगर चुनाव के बाद दोनों ने एक-दूसरे से हाथ मिलाकर सांझा सरकार का गठन किया। इसमें डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी हिन्दू महासभा के प्रतिनिधि के तौर पर शामिल हुए थे। दूसरी तरफ पंजाब में इन चुनावों में मुस्लिम लीग को कोई सफलता नहीं मिली मगर जब 1945 में पुनः असैम्बली चुनाव हुए तो इन दोनों ही राज्यों में मुस्लिम लीग को अच्छी सफलता मिली।
बंगाल में उसे पूर्ण बहुमत मिला और पंजाब में वह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी किन्तु इतिहास की त्रासदी यह है कि 1947 में इन्हीं दोनों राज्यों को तोड़कर पश्चिमी व पूर्वी पाकिस्तान अस्तित्व में आया। भारत बंट गया। अंग्रेज खुश हुए कि उन्होंने गांधी के रहते ही उनके अहिंसा परमोधर्मः और सर्वे भवन्तु सुखिनः के सिद्धान्त को खून-खराबे और रंजिश में बदल कर भारत को आजादी का तोहफा दे दिया। यह एेसा तोहफा था कि भारत दोनों तरफ से लगातार हिन्दू–मुसलमान की आग में झुलसता रहे और अपनी गरीबी और मुफलिसी को ढोता रहे मगर हिन्दोस्तान के लोगों ने तब गांधी के सिद्धान्त को ही पकड़ कर पुनः अपना उत्थान कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में करना शुरू किया और एक कल्याणकारी सरकार का सपना साकार करने की दिशा में आगे कदम बढ़ाया। दुनिया चौंक गई कि पं. जवाहर लाल नेहरू किस तरह पाकिस्तान के जख्मों को अपने सीने में छिपाकर भारत की जनता को प्रेम व भाईचारे का पाठ पढ़ाते हुए इसे तरक्की के रास्ते पर ले जा सकते हैं मगर नेहरू ने यह काम अपनी कांग्रेस पार्टी के कन्धों पर इस तरह किया कि पूरे देश में हिन्दू–मुसलमानों ने मिलकर इसकी तस्वीर बदल डाली। इसकी केवल एक ही वजह थी कि कांग्रेस पार्टी ने इस देश की आबो-हवा में लगातार एेसी आक्सीजन का काम किया जिससे हर तबके के लोग जी भरकर सांस ले सकें किन्तु बदलते समय के साथ कांग्रेस की चुनौतियां बढ़ने लगीं और इन्दिरा गांधी के बाद इसका नेतृत्व भारत की उस समावेशी व सहिष्णु संस्कृति के बिखराव से भरे हुए संदर्भों की अनदेखी कर बैठा जिन्होंने कांग्रेस पार्टी को मजबूत संगठन बनाया था।
बिना शक इन्दिरा जी की मृत्यु के बाद सिखों पर हुए जुल्मो- सितम इसका प्रमाण कहे जा सकते हैं। कांग्रेस के कमजोर होने का सीधा मतलब भारत के कमजोर होने का था और इसकी समावेशी संस्कृति के छिन्न–भिन्न होने का था। अतः आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इसके बाद ही भारत में उग्र धार्मिक विचारों की राजनीति का सूत्रपात हुआ जिसे जातिगत राजनीति ने और संकीर्ण बना दिया। कांग्रेस की ताकत खत्म होने लगी और इसके समानान्तर भारत भी भीतर से कमजोर होने लगा। इसमें बाजारवादी अर्थव्यवस्था ने भी निर्णायक भूमिका किस तरह निभाई, इस पर फिर कभी लिखूंगा मगर आज मौजू सवाल यह है कि श्री राहुल गांधी अपनी एेतिहासिक और स्वर्णिम इतिहास से परिपूर्ण पार्टी को किस तरह अवसाद से निकाल कर पुनः ताकतवर बना सकते हैं जबकि राष्ट्रवाद के मजबूत स्तम्भ के तौर पर श्री नरेन्द्र मोदी ने एक नए भारत का सपना लोगों को दिया हुआ है? बिना किसी लाग–लपेट के कहा जा सकता है कि राहुल गांधी को गुजरात चुनावों ने आग में तपे सोने की तरह बाहर निकाला है। चाहे उनकी पार्टी इन चुनावों में जीते या हारे मगर यह सिद्ध हो गया है कि राहुल गांधी में उग्र राष्ट्रवाद के समानान्तर कांग्रेस की मूल मानवतावादी विचारधारा को खड़ा करने की कूव्वत है और वह ‘‘नव बाजारवाद के पूंजीमूलक सामाजिक उपचारों’’ को ‘‘समता मूलक कल्याणकारी उपचारों’’ से बदलना चाहते हैं। महंगी शिक्षा और चिकित्सा सेवाओं को लेकर भारत की 85 प्रतिशत जनता जिस तरह त्रस्त है इसका अन्दाजा अगर राहुल गांधी को लग चुका है तो यह उनके राजनीति में परिपक्व होने की निशानी है। भारत में राष्ट्रवाद कोई नई विचारधारा नहीं है किन्तु इसके लिए जो लोग हिंसा को अपना सिद्धान्त बनाकर प्रयोग करते हैं वे लोकतन्त्र को स्वीकार नहीं कर सकते। जाहिर तौर पर विचारों के आधार पर कांग्रेस की विरोधी पार्टी भाजपा भी इसके लिए मित्रवत ही है।
राहुल गांधी के एेसे विचार भारतीयता का वह पक्ष उजागर करते हैं जिसके मूल में ही सहनशीलता और सद्भावना छिपी हुई है परन्तु आज की सबसे बड़ी जरूरत राजनीति के विमर्श के स्तर को ऊपर उठाने की भी है। राजनीति जिस तरह व्यक्तिगत आक्षेपों में बाजारूपन ले रही है उसे वैचारिक स्तर पर ले जाना राहुल गांधी के लिए एक चुनौती से कम नहीं है मगर यह काम वह कर सकते हैं, इसका उदाहरण उन्होंने गुजरात चुनाव प्रचार के दौरान दिया। अतः जो लोग यह सोच रहे हैं कि अपने परिवार की विरासत के बूते पर राजनीति में आये राहुल गांधी कोई कमाल नहीं कर सकते वे भारत की मिट्टी की तासीर से पूरी तरह वाकिफ नहीं हैं। 2014 से पहले लोग श्री नरेन्द्र मोदी के लिए भी एेसा ही कहते थे मगर उन्होंने कमाल कर ही दिया। लोकतन्त्र सभी को अवसर देता है। इसे सिद्ध करने की क्या कोई जरूरत है ? राहुल गांधी के सिर पर पार्टी अध्यक्ष पद का ताज पहना दिया गया है लेकिन उन्हें समझ लेना चाहिए कि यह ताज कांटों भरा है, इसे फूलों में बदलने के लिए उन्हें बहुत मेहनत करनी पड़ेगी।