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राजस्थान का चुनावी रंग-ढंग

पांच राज्यों में होने वाले चुनावों के लिए अब राजनैतिक दलों ने अपनी-अपनी राजनैतिक सेनाओं को लगभग सजा लिया है। मतदान प्रक्रिया आगामी 7 नवम्बर से छत्तीसगढ़ व मिजोरम से शुरू हो जायेगी। पांचों राज्यों तेलंगाना, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान व मिजोरम के जो चुनाव परिणाम आयेंगे उनसे अगले साल के शुरू में होने वाले लोकसभा चुनावों का समां बंधेगा। यदि इन राज्यों के पिछले 2018 के चुनाव परिणामों को देखा जाये तो इनमें से किसी में भी केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी विजयी नहीं हो पाई थी। मगर इसके बाद हुए लोकसभा चुनावों में इस पार्टी ने कमाल कर दिया था और लोकसभा की 543 सीटों में से 303 पर विजय प्राप्त कर ली थी। अतः यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि भारत के मतदाता राज्यों और देश के चुनाव में फर्क करके अपने मताधिकार का प्रयोग करते हैं। इन सभी राज्यों में राजस्थान की स्थिति निराली मानी जाती है क्योंकि पिछले 25 सालों से इस राज्य में कांग्रेस व भाजपा के बीच कुर्सी दौड़ इस प्रकार चलती है कि बारी-बारी से भाजपा व कांग्रेस पार्टी सत्ता में आती रही हैं परन्तु राजनीति में यह कोई नियम नहीं हो सकता क्योंकि जनता अपनी चुनी हुई सरकार के कामकाज के आधार पर अपना मत निर्धारण करती है।
लोकतन्त्र में पिछले अनुभवों को जो लोग नियम मान कर चलते हैं वे जनता के वोट की ताकत की अवहेलना करने के अलावा और कुछ नहीं करते। इस व्यवस्था में एक बात सबसे ऊपर समझनी जरूरी होती है कि हर पांच साल बाद चुनावों के माध्यम से जनता सत्ता के मालिकों को नहीं चुनती बल्कि नौकरों को चुनती है और नये चुनावों के वक्त उनकी मेहनत को माप कर उनका मेहनताना अदा करती है। राजस्थान में पिछले पांच साल से अशोक गहलोत की सरकार सत्ता पर काबिज है अतः जनता आगामी 25 नवम्बर को वोट देते हुए यह आंकेगी कि इन वर्षों में कांग्रेस की गहलोत सरकार ने कैसा काम किया है और वह उनकी अपेक्षाओं पर कितना खरा उतरी है। अशोक गहलोत की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वह जनता के बीच से उठे ही एक नेता हैं और राज्य की राजनीति में उन्होंने अपना स्थान अपनी मेहनत के बूते पर बनाया है।
बेशक भाजपा में भी ऐसे कई नेताओं के नाम गिनाये जा सकते हैं मगर राज्य में भाजपा अपने किसी क्षेत्रीय नेता के चेहरे को आगे रख कर चुनाव नहीं लड़ रही है और प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता पर निर्भर कर रही है। राज्य की 200 सदस्यीय विधानसभा में पिछली बार कांग्रेस को 101 सीटें मिलीं थीं और भाजपा को 73 जबकि शेष पर अन्य छोटी-छोटी पार्टियां और निर्दलीय विजयी हुए थे। किनारे पर बैठ कर श्री गहलोत को सरकार बनानी पड़ी थी मगर जल्दी ही उन्होंने इस स्थिति को बदला और कुछ छोटी पार्टियों के विधायकों का अपनी पार्टी में विलय करा लिया।
सवाल यह है कि क्या इस बार भी एेसी स्थिति बन सकती है? लोकतन्त्र की यह भी खूबी होती है कि हर चुनाव से मतदाता कुछ न कुछ सबक लेते हैं। पिछले दिनों कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश व गुजरात में हुए विधानसभा चुनावों में हमें यह देखने को मिला कि इन राज्यों के मतदाताओं ने निर्णायक फैसला देकर स्थिर व मजबूत सरकारें देने की तरफ कदम बढ़ाया। हिमाचल व कर्नाटक में कांग्रेस के पक्ष में मजबूत बहुमत आया और गुजरात में भाजपा के पक्ष में। इन राज्यों के चुनावों में जो भी छोटी-छोटी ‘वोट कटुआ’ कही जाने वाली पार्टियां थी उन्हें लोगों ने ज्यादा तवज्जों नहीं दी हालांकि गुजरात में आम आदमी पार्टी को कुछ सीटें मिली मगर वे सभी सीटें राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के खाते से ही थीं। इसके बावजूद भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला। राजस्थान में इस बार भी निर्दलीयों व छोटी-छोटी पार्टियों ने अपने उम्मीदवार मैदान में उतार रखे हैं परन्तु चुनावी माहौल को देखकर यह कहा जा सकता है कि इन पार्टियों का खाता शायद ही खुल पाये। इसकी वजह यह है कि एक तरफ भाजपा ने जहां चुनावों में अपनी पूरी शक्ति झोंक रखी है वहीं कांग्रेस ने भी पूरी ताकत लगा रखी है। इस मुकाबले में सबसे ज्यादा लाभ जनता को ही होने वाला है। जाहिर है कि दोनों पार्टियों का राजनैतिक विमर्श एक-दूसरे के बिल्कुल विपरीत है। इससे मतदाताओं का राजनैतिक जागरण होने में कहीं न कहीं मदद जरूर मिलती है क्योंकि लोकतन्त्र में चुनाव राजनैतिक पाठशालाओं का भी काम करते हैं और कांग्रेस नेता श्रीमती प्रियंका गांधी जिस तरह अपनी सभाओं में साधारण भाषा में मतदाताओं के समक्ष राजनीति के गूढ़ पक्ष को खोल रही हैं और लोक कल्याणकारी राज का अर्थ बताते हुए मतदाताओं के मजबूत बनने का अर्थ समझा रही हैं उससे वर्तमान दौर की उत्तेजनात्मक व दुश्मनी वाली राजनीति का रंग पीला पड़ने की संभावनाएं प्रबल होती हैं। भाजपा की तरफ से अपनी शैली मे लोगों को जोड़ने की कोशिश की जा रही है। यह प्रसन्नता की बात है कि चुनावों में शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे विषय मुख्य चुनावी मुद्दे बने हुए हैं परन्तु चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद राजस्थान में प्रवर्तन निदेशालय ( ई.डी.) के छापों को लेकर भी राजनीति शुरू हो गई है। राजस्थान की जनता इसे किस नजरिये से देखती है, यह मुद्दा भी चुनावों को प्रभावित किये बिना नहीं रहेगा।

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