”बोली बता देती है
व्यवहार कैसा है,
संस्कार बता देता है
परिवार कैसा है।”
यह गलत धारणा है कि संस्कार और पारिवारिक मूल्य केवल बुजुर्गों की जुबानी रह गए हैं। मेरा अनुभव इस संबंध में बहुत ही सकारात्मक रहा है। दया और बड़प्पन वो गुण हैं जो संस्कारों से आते हैं। यह एक सरल जीवन की कुंजी होती है। जिन अभिभावकों ने संस्कारों और पारिवारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों के साथ निभाया है, उन्हीं के बेटे संस्कारों को निभा रहे हैं। मेरे साथ कई परिवार जुड़े हैं, जब मैं उनके बच्चों को देखती हूं तो मुझे उन पर गर्व होता है कि परिवारों की विरासत सही हाथों में है।
वरिष्ठ नागरिक केसरी क्लब के साथ हमेशा महाशय धर्मपाल जी एमडीएच वालों का नाम जुड़ा है और उनका पूरा आशीर्वाद है, था और रहेगा। मुझे आज भी उनकी पंक्तियां याद रहती हैं और मैं हमेशा अपनी हर स्पीच में उनको याद करते हुए बोलती हूं कि ”घर विच इक बुड्ढा नहीं सम्भाला जाता तू ऐने बुड्ढयां दा की करेंगी।” यही नहीं बार-बार फोन करके पूछते थे ”तू बुड्ढयां तो थकी ता नहीं।” पहला हैल्थ कैम्प उन्होंने लगवाया और जब मैंने विज्ञान भवन में अपनी पहली पुस्तक का विमोचन किया तो मंच पर मेरे साथ थे तो मुख्यअतिथि उपराष्ट्रपति शेखावत जी ने उन्हें देखकर कहा कि मैं तो सोचता था आपकी फोटो पर हार टंगा होगा परन्तु आप तो साक्षात यहां पर हो। वरिष्ठ नागरिक केसरी क्लब का कोई समारोह होता वो समय के बड़े पाबंद थे। सबसे पहले आकर बैठे होते थे। हर एक्टिविटी में हिस्सा लिया। यहां तक कि जब हमने पहला फैशन शो ललित होटल में किया तो उन्होंने लोगों की अपील पर शहंशाह के गाने पर मॉडलिंग की, वे इतने खुश थे कि उन्होंने दो ड्रेस बनवाईं और फोन पर पूछते थे कौन सी पहनू, माला भी पहनू, कमाल के थे। जब डांस परफोरमेंस होती थी तो डांस करते थे। भंगड़ा भी डालते थे। अपना जन्मदिन मनाने और फोटो खिंचवाने और लगवाने का बड़ा शौंक था। यही नहीं अधिकतर सारे कार्यक्रम वो ही स्पोनसर करते थे। जब मैं कहती कि यह प्रोग्राम है तो आपने स्पोनसर करना है, पहले कहते ”ओ बाबा तेनू मैं मना नहीं कर सकता।” अपने अस्पताल में कैम्प भी लगवाते और सबको शानदार खाना खिलवाते। उनके अस्पताल माता चन्नन देवी में हमारे वरिष्ठ नागरिकों का अधिकतर फ्री इलाज होता था। मुझे याद है हमारे 90 वर्षीय बहल साहब को उनके अस्पताल वाले ने अच्छी तरह अटैंड नहीं किया तो उन्होंने मुझे बताया मैंने महाशय जी को फोन किया तो उन्होंने कहा कि अभी भेज मैं कीर्ति नगर आफिस में हूं, मैंने उन्हें भेजा तो वह स्वयं उन्हें अपनी कार में बिठाकर अस्पताल ले गए। यानी अगर मैं उनके बारे में लिखूं तो पूरी किताब लिखी जा सकती है। यह उनका पिता-पुत्री का प्यार कभी भुलाए नहीं भूल सकती। अश्विनी जी के जाने के समय वह पिता की तरह बिलख-बिलख कर रोये और जब तक जीवित रहे, मेरे पास आते रहे। मेरे दुख को अपना दुख समझते थे।
जब वो गए तो मुझे लगा कि मेरा तो सहारा ही गया। मेरे वरिष्ठ नागरिकों का सहारा भी चला गया परन्तु नहीं, उनके नेक बेटे ने उनकी विरासत वैसे ही संभाली। उन्होंने उनके सारे नेक काम भी सम्भाल लिए। मेरे सिर पर एक भाई की तरह हाथ रखा और मेरे सुख-दुख में मेेरे साथ खड़े हुए हैं। अक्सर यह देखा जाता है कि बहुत से पुत्र अपने माता-पिता की जायदाद के वारिस तो बन जाते हैं परन्तु उनके किए वायदे या अच्छे कामों को भूल जाते हैं परन्तु उनके सुपुत्र राजीव गुलाटी ने उनके हर वायदे और हर अच्छे काम को आगे बढ़ाने की ठान ली है और कहते हैं कि दीदी महाशय जी इतना काम करके गए हैं, इतना नाम, पैसा, शोहरत छोड़ गए हैं, मैं उसे कई गुणा आगे बढ़ाऊंगा और आने वाले 500 सालों तक लोग उनके नाम और काम को याद करेंगे। जैसे महाशय जी आपके हर काम में साथ थे, वैसे ही मैं भी साथ खड़ा हूं और बुजुर्गों के उत्साह को कभी समाप्त नहीं होने दूंगा। वाह! राजीव जी ईश्वर करे सबके बेटे आप जैसे हों, जो पिता की विरासत को, गुणों को विनम्रता, धन, परोपकार को आगे बढ़ाएं क्योंकि अच्छाई और बुराई इंसान के कर्मों में होती है। कोई बांस का तीर बनाकर किसी को घायल करता है, कोई बांसुरी बनाकर बांस में सुर भरता है।
ऐसे ही हमारे चौपाल के स्वर्गीय भोला नाथ विज जी के बेटे हैं, जो अपने पिता के नक्शे-कदमों पर चलते हुए उसी तरह काम कर रहे हैं। मुझे तो वह मिनी भोलानाथ जी लगते हैं। यही नहीं मेरे तीनों बेटे आदित्य, अर्जुन, आकाश ने जिस तरह से अपने पिता के नाम और काम को सम्भाला है, वो भी बहुत ही सराहनीय है। मेरा बड़ा बेटा आदित्य अपने छोटे भाइयों के लिए मिनी पिता ही है। कुछ बेटे ऐसे भी होते हैं जो अपने मां-बाप की आंखें मूंदने के बाद उनकी जायदाद के वारिस तो बन जाते हैं परन्तु उनके कामों और वायदों को भूल जाते हैं। जैसे एक बेटे की मां ने 50 बुजुर्ग एडोप्ट किए हुए थे, जैसे ही मां गई एडोप्शन बंद। भला उससे कोई पूछे 50 बुजुर्ग कहां जाएं? अब ऐसे ही एक वकील बेटे ने अपनी जाती मां की इच्छा के विरुद्ध उसकी मुंह बोली बेटी के खिलाफ पैसों की खातिर केस लड़ा। ऐसे मेरे पास ढ़ेरों उदाहरण हैं। जो पूतों और कपूतों के बारे में हैं। सपूत और कपूतों के बारे अच्छी बाते हैं। समय आने पर इन सबको अपनी आने वाली पुस्तक में उकेरूंगी क्योंकि अधिकतर लोग बेटों की बुराइयां करते हैं परन्तु दुनिया में बहुत से बेटे हैं, जो अपने मां-बाप का नाम रोशन करके, मिसाल कायम करते हैं, क्योंकि यह श्रीराम और श्रवण का देश है, जिसमें आज भी राम और श्रवण हैं, परन्तु कपूतों की भी कमी नहीं। हमारा वरिष्ठ नागरिक केसरी क्लब अनुभवों का खजाना है।
यह बड़ा सहनशीलता और सब्र का काम है। यह मेरे ऐसे रिश्ते हैं, जो खून के रिश्तों से बढ़कर हैं। जब यह बिछुड़ते हैं तो बहुत दुख होता है। जैसे 6 फरवरी को एक बार फिर मैंने अपनी मां जैसी श्रीमती आदर्श विज को खो दिया, उनके बहू-बेटे ने जो उनकी सेवा की वो भी मिसाल है। उनकी बहू को बहुत साल पहले हमने बेस्ट बहू का अवार्ड दिया, जो 1000 प्रतिशत सही था। उनकी बीमार सास बेहोशी में अपनी बहू विदु का ही नाम लेती थी, तो आजकल बहुत सी बहुएं हैं, जो विदु जैसी हैं। जिन्हें बहू नहीं बेटी कहा जा सकता। आगे चलकर मैं क्लब के सदस्यों की बहुत सी बहू-बेटियों का जिक्र करूंगी।