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राम मंदिर : राष्ट्र का उत्सव-2

बचपन से ही सुनते आए थे, स्कूल जीवन में किताबों में भी पढ़ते थे कि इस देश में जब श्री राम का राज्य था उस समय ​किसी को भी दैविक, दैहिक और भौतिक ताप नहीं होता था। सारे लोग इस त्रिविध ताप से मुक्त रहते थे। मुझे कभी-कभी इस बात को पढ़कर बड़ा ताज्जुब होता था। हमारे हिन्दी के एक शिक्षक थे-शास्त्री जी। मैं अक्सर उनसे ‘रामराज्य’ के बारे में पूछा करता था। कालांतर में वही बालसुलभ जिज्ञासा मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण हो गई। मैंने बड़ी मेहनत से कुछ तथ्यों को जाना जो उस समय के ‘रामराज्य’ का प्रमुख हिस्सा थे। मैं इस बात के लिए सदा उत्सुक रहा कि आखिर श्री राम के राज्य में वह कौन सी भावना थी जो सारी जनता को एक सूत्र में बांधे रखती थी?
श्री राम का संविधान कैसा था? बहुत सी जानकारियां मिलीं। मैं चकित हो गया। कालांतर में कौटिल्य की शासन पद्धति को जानने का मौका मिला, उस शासन पद्धति ने भी मुझे अभिभूत कर दिया। सच पूछें, मैं तो कौटिल्य का भक्त ही हो गया? कभी-कभी सोचता तो गर्व महसूस होता कि मैं उस देश का नागरिक हूं, जहां कौटिल्य जैसे महापुरुष ने जन्म लिया। मुझे कुछ शोधकर्ताओं ने यह भी बताया कि जर्मनी और जापान में कौटिल्य की नीतियों पर गहन शोध किए गए। उन्होंने कौटिल्य से बहुत कुछ अपनाया भी परन्तु सारे कार्यकलाप गुप्त ही रहे?
मैंने वीर विक्रमादित्य के काल की शासन पद्धति पर एक नजर डाली और विभोर हो उठा। सच कहूं तब से लेकर इस बात की पीड़ा मैंने अक्सर महसूस की है कि हम भौतिकता की इस नंगी दौड़ में अपनी जड़ों से पूरी तरह कट कर रह गए। पश्चिम की अंधी नकल करना ही हमारा एकमात्र लक्ष्य बनकर रह गया।
यहां यह बात मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि जिन महान पुरुषों ने भी संविधान के निर्माण का काम अपने सिर पर लिया, वह महान लोग थे, उनकी निष्ठा पर शक नहीं किया जा सकता, उनके चरित्र व समग्रता आज भी हमारे लिए गर्व का विषय है परन्तु संविधान निर्माताओं को अपने संविधान की रचना के क्रम में आर्याव्रत के महान संविधानविदों का ध्यान नहीं आया। उनकी दृष्टि संकुचित होकर पश्चिम तक ही केन्द्रित रही। उन्हें अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, रूस सब नजर आ गए लेकिन उन्हें राम राज्य, कौटिल्य और विक्रमादित्य कहीं नजर नहीं आए। परिणाम सामने है।
यहां से आएं और सीधा राम राज्य की ओर लौटें। बात मैंने यहीं से प्रारम्भ की थी। पहले हम राजा के लक्षण और कर्त्तव्य से बात प्रारम्भ करें। वाल्मीकि ने आदर्श राजा को इन लक्षणों से युक्त माना है : गुणवान, पराक्रमी, धर्मज्ञ, उपकारी, सत्यवक्ता, सदाचारी, समस्त प्राणियों का हितचिन्तक, विद्वान, सामर्थ्यवान, मन पर अधिकार रखने वाला, अनिन्दक, क्रोध को जीतने वाला और संग्राम में अजेय योद्धा। यहीं से प्रारम्भ होता है योग्यता का आधार। जिस राजा में उपरोक्त गुण नहीं वह राज्य के योग्य नहीं? उस जमाने में शिक्षा का प्रचार और प्रसार गुरुकुल व्यवस्था के कारण इस प्रकार था कि राजा का केवल ज्येष्ठ पुत्र होना ही काफी नहीं था, कुछ अन्य अर्हताएं भी होती थीं। श्रीमद् वाल्मीकि रामायण की यह बात लम्बे समय तक चली। आप महाभारत काल का अवलोकन करें। विचित्रवीर्य के ज्येष्ठ पुत्र थे धृतराष्ट्र, छोटे पुत्र थे पांडु। पहले पुत्र जन्मांध थे, छोटे पुत्र को राज्य मिला। पांडु के निधन के बाद धृतराष्ट्र गद्दी पर तो बैठे परन्तु इस राज सिंहासन की देखरेख का सारा भार ‘भीष्म’ पर आ गया। अगर हम राजा के कर्त्तव्यों की बात करें। भगवान राम के युग में कर्त्तव्य क्या होते थे? राजा सारे देश का संरक्षक होता था। धर्मानुसार न्याय देना उसका कर्त्तव्य था। प्रजा राजा को अपनी नेककमाई का छठा भाग देती थी, जिसे ‘बलिषंघभाग’ कहा जाता था। राजा समस्त दुष्टों के नाश के लिए वचनबद्ध था तथा राजा साधुओं के संरक्षण के लिए वचनवद्ध था।
जरा श्री राम की जीवनचर्या पर एक नजर डालें। श्री रामचन्द्र सुबह संगीत की मधुर ध्वनि को सुनकर जागते थे। नित्यादि कर्मों से निवृत्त हो, वस्त्राभूषण धारण कर कुलदेवता, विप्रों और पितरों की पूजा करते थे। इसके बाद वह बाह्यकक्ष में बैठकर सार्वजनिक कार्यों को निपटाते थे। यहां वह आमात्यों, पुरोहितों, सैन्याधिकारियों, सामन्तों, राजाओं, ऋषियों तथा अन्य महत्वपूर्ण जनों से मिलते थे।
इन नियमित रूप से मिलने वालों के अतिरिक्त भी एक विशेष कक्ष उन लोगों का था जिनका कार्य आज के दृष्टिकोण से अति महत्वपूर्ण श्रेणी में आता था। उन लोगों को मिलने की कोई परेशानी नहीं थी। ऐसा नहीं था​ कि वोट मांगकर सांसद हो गए तो जनता से पांच वर्षों के बाद ही मुलाकात हो सके? जहां जीते गगनविहारी हो गए। जनता से उनका सम्पर्क ही कट गया।
(क्रमशः)

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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