अगर आपको 1990 के दशक का कश्मीर याद हो तो आज के वर्तमान हालात की तुलना तब से की जा सकती है। वही आजादी का नारे, वही पाकिस्तान के झंडे, अब तो आईएस के झंडे लहराये जाने लगे हैं। पहले सिर्फ और सिर्फ पाकिस्तान, पाकिस्तान सेना, उसकी खुफिया एजैैंसी आईएसआई और आतंकी संगठनों को जिम्मेदार ठहराया जाता था परन्तु अब भीतरी ताकतें पूरी तरह शामिल हो चुकी हैं। शुक्रवार को पूरे राष्ट्र ने जो देखा वह काफी भयानक था। सीआरपीएफ के एक वाहन को सैकड़ों लोगों की भीड़ ने घेर रखा है। लोगों के हाथ में पत्थर थे। सीआरपीएफ का जवान धीरे-धीरे अपने वाहन को निकालने की कोशिश कर रहा था लेकिन भीड़ पीछे ही नहीं हट रही थी। इसी बीच उस वाहन ने तीन कश्मीरियों को अपनी चपेट में ले लिया। बाद में एक घायल की मौत हो गई। उसके बाद भीड़ उग्र हो गई।
अब सवाल यह है कि रजमान के दिनों में सीजफायर का क्या लाभ हुआ? 16 मई को सीजफायर के ऐलान के बाद से घाटी में हिंसा पहले से अधिक बढ़ी है। मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की सरकार द्वारा पत्थरबाजों की माफी देने का परिणाम क्या निकला? हैरानी होती है पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के ट्वीट पर जिन्होंने कहा है कि इससे पहले कश्मीरी युवक को जीप के सामने बांधा और प्रदर्शनकारियों को डराने के लिए गांव के चारों ओर घुमाया। अब वे प्रदर्शनकारियों पर सीधे अपनी जीप चढ़ा रहे हैं। क्या यह आपका नया तरीका है मुख्यमंत्री साहिबा? मैं पूछना चाहता हूं उमर अब्दुल्ला से कि एक जवान जब 500 लोगों की भीड़ से घिरा हो, पत्थरबाज उसकी जीप को पलटने की कोशिश कर रहे हों तो जवान क्या करेगा? क्या वह खुद को पत्थरबाजों के हाथों मरने के लिए उनके हवाले कर दे या फिर खुद को बचाने के लिए निकलने की कोशिश करे। निश्चित रूप से वाहन का ड्राइवर सीआरपीएफ जवान खुद की रक्षा का हरसम्भव प्रयास करेगा। जान बचाते हुए निकलने की कोशिश में उसके वाहन के पहिये के नीचे तीन लोग आ गए। संवैधानिक पद पर रहे उमर अब्दुल्ला का बयान शर्मनाक आैर निन्दनीय है।
सवाल यह उठता है कि आखिर कश्मीर में पत्थरबाज फिर सक्रिय कैसे हो गए? 1990 के दशक में कश्मीरियों ने बंदूक उठाई तो तत्कालीन मुख्यमंत्री डा. फारूक अब्दुल्ला यह कहने से नहीं चूकते थे कि बेरोजगारी से त्रस्त कश्मीरी बंदूक उठाने को मजबूर हुआ है और अब कश्मीरियों ने पत्थर उठाए तो भी तर्क यही है। अब यह पत्थरबाजी बड़े-बड़ों को डरा रही है। कश्मीर और कश्मीर आने वाले पर्यटकों को पत्थरबाज बंधक बना चुके हैं। आतंकवाद को दबाने में जो कामयाबी सुरक्षा बलों ने पाई उसे पत्थरबाजों ने मिट्टी में मिला दिया। अगर ऐसे ही जारी रहा तो कश्मीर में नए किस्म का आतंकवाद पनपने का खतरा पैदा हो जाएगा जिसे काबू करना कठिन हो जाएगा। आखिर पत्थरबाजों से सुरक्षा बलों को कौन बचाएगा? कौन नहीं जानता कि आतंकी संगठनों और अलगाववादी नेताओं ने पहले भाड़े के पत्थरबाजों के समूह तैयार किए। पाकिस्तान की फंडिंग से स्कूली बच्चों से लेकर युवाओं तक को दिहाड़ीदार पत्थरबाज बना दिया। अब कश्मीरी अवाम ही पत्थरबाज हो गया है। कश्मीर को दोजख बनाने के मुद्दों की गहमागहमी में इसे भूला नहीं जा सकता कि पिछले कुछ वर्षों से कश्मीर घाटी के हालात को साम्प्रदायिकता के साथ जोड़ने की भरपूर कोशिश हो रही है। मुख्यमंत्री महबूबा की सिफारिश पर रमजान के दौरान सीजफायर का ऐलान करने वाले गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने सुरक्षा बलों को संयम से काम करने की सलाह दी थी।
राष्ट्र रक्षा के लिए संवैधानिक शपथ से बंधे हुए जवान जब किसी सैनिक बल का भाग बनते हैं तो अपने आपको गौरवान्वित पाते हैं। उस युवा के माता-पिता, भाई-बहन व अन्य परिवारजन एवं िमत्रगण सबको गर्व होता है। बड़ी-बड़ी कठिनाइयों आैर भारी विपदाओं में रहकर प्रशिक्षण पाने वाले सैनिकों को अपने-अपने शौर्य प्रदर्शन की निरंतर प्रतीक्षा होती होगी? क्यों न हो वस्तुतः राष्ट्र अपनी सुरक्षा के लिए अपने वीर पुत्रों पर ही तो निर्भर करता है। किसी भी देश की सेनाएं व अन्य सुरक्षा बल अपने-अपने देश की संप्रभुता आैर स्वतंत्रता की रक्षा के लिए पूर्णतः कटिबद्ध होते हैं। इसी प्रकार भारत, जो एक स्वतंत्र राष्ट्र है, की सुरक्षा का उत्तरदायित्व भी तो उसके सैनिकों व अर्द्धसैनिक बलों का ही तो है। संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अम्बेडकर की जयन्ती प्रत्येक वर्ष धूमधाम से मनाई जाती है परन्तु उस संविधान की शपथ लेने वाले नेता सेनाओं को राष्ट्र की सुरक्षा के लिए उसका लेशमात्र भी अनुसरण करने का अधिकार नहीं देते, क्यों? लोकतंत्र की यह कैसी विडम्बना है कि केन्द्रीय व राज्य सरकारों के अधीन आने वाले सभी सुरक्षा बल उसमें चाहे सेना, अर्द्धसैनिक बल व पुलिस आदि हों, सभी के हाथ बंधे हुए हैं। यह एक राजनीतिक विवशता बन गई है कि अपराधी, देशद्रोही आैर आतंकवादी कितने ही बड़े-बड़े अपराध करता रहे परन्तु उदारता व संयम काे ढाल बनाकर सैनिकों को पलटवार करने से रोका जाता आ रहा है। कभी छद्म धर्मनिरपेक्षता तो कभी मानवाधिकार आगे आ जाते हैं परन्तु उन सब आपराधिक व आतंकी घटनाओं से पीड़ित सैनिकों व उनके परिवारों तथा सामान्य नागिरकों के मौलिक व संविधानिक अधिकारों का कोई महत्व नहीं…क्यों?
कश्मीर के कट्टरपंथियों से देशविरोधी हरकतें छोड़ देने की उम्मीद करना व्यर्थ है, वे शांति के पक्षधर नहीं बन सकते। पाकिस्तान और आतंकी तंजीमें बहुत खुश हैं क्योंकि न उसने सीमाओं पर फायरिंग रोकी और घाटी में भी पत्थरबाजों ने उनका काम कर दिया। पिछले 24 घंटों में घाटी में 6 जगह सुरक्षा बलों पर हमले किए गए। क्या हमारे जवान शहादत देने के लिए बने हैं? आचार्य चाणक्य ने कहा था- संसार में कोई किसी को जीने नहीं देता। प्रत्येक व्यक्ति/राष्ट्र अपने बल और पराक्रम से जीता है। यह संदेश हमको बहुत कुछ सोचने आैर करने का आह्वान करता है। भाजपा को सोचना होगा कि क्या महबूबा मुफ्ती की पीडीपी के साथ गठबंधन सरकार चलाना उसे महंगा तो नहीं पड़ रहा क्योंकि यह गठबंधन ही अस्वाभाविक है। एक माह के युद्धविराम से कुछ नहीं होगा जब तक कि शांति बहाली और समस्या के शांतिपूर्ण हल के लिए गम्भीर राजनीतिक प्रक्रिया शुरू नहीं की जाती। दूसरी ओर राष्ट्रवादियों के आत्मबल को जगाने आैर सुरक्षा बलों का मनोबल बढ़ाने के लिए आतंकवादियों पर पूरी शक्ति से प्रहार करना ही होगा।