एक्जिट पोलों का ताजा इतिहास - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

एक्जिट पोलों का ताजा इतिहास

सर्वप्रथम मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि एक्जिट पोल के औचित्य को मैं प्रारम्भ से ही सन्देहास्पद मानता रहा हूं क्योंकि भारत की सामाजिक व वर्गगत जातीय और आर्थिक विविधता व ग्रामीण और शहरी असमानता को देखते हुए कुछ नमूनों के आधार पर चुनाव परिणामों का गणित सुलझा देना गैर वैज्ञानिक होता है।

सर्वप्रथम मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि एक्जिट पोल के औचित्य को मैं प्रारम्भ से ही सन्देहास्पद मानता रहा हूं क्योंकि भारत की सामाजिक व वर्गगत जातीय और आर्थिक विविधता व ग्रामीण और शहरी असमानता को देखते हुए कुछ नमूनों के आधार पर चुनाव परिणामों का गणित सुलझा देना गैर वैज्ञानिक होता है। पश्चिमी देशों की परिस्थितियां पूर्णतः हर क्षेत्र और वर्ग में अलग होती हैं अतः एक्जिट पोल की विधा वहां कुछ नमूनों के आधार पर किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचने में यदा-कदा सफल हो जाती है। ‘राजनीति’ जिसे ‘विज्ञान’ कहा जाता है उसके सबसे क्लिष्ठ पक्ष चुनाव को भारतीय सन्दर्भों में नमूनों के आधार पर तस्वीर को साफ कर देना असंभव होता है। फिर भी कभी-कभी एक्जिट पोल एजेंसियों का ‘तुक्का’ तीर बन जाता है। मगर यह अपवाद ही होता है। इसके बावजूद यह स्पष्ट है कि गुजरात में जो चुनावी समीकरण और संसदीय प्रणालीगत सर्वाधिक वोट पाने वाले प्रत्याशी के हक में विजय का गणित बना उसे देखते हुए इस राज्य में भाजपा की पुनः सरकार बनना सुनिश्चित लगता है जबकि हिमाचल में परिस्थितियां पूरी तरह अलग हैं। यह भी निश्चित है कि यदि गुजरात में भाजपा की पिछले लगातार 27 साल से चली आ रही सरकार पुनः काबिज रहने में सफल रहती है तो यह प. बंगाल की वाम मोर्चा सरकार का रिकार्ड नहीं तोड़ पायेगी क्योंकि वहां लगातार 34 वर्षों तक वामपंथी शासन रहा था। 
दूसरी तरफ दिल्ली में नगर निगम चुनावों में आम आदमी पार्टी का बहुमत में आकर अपना महापौर चुनना प्रायः निश्चित लगता है क्योंकि इस महानगर में पिछले 15 साल से हुकूमत में बैठी भाजपा की स्थिति डगमग ही लगती थी। दिल्ली में केवल देखने वाली बात यह होगी कि आम आदमी पार्टी को दिल्ली विधानसभा चुनावों की तर्ज पर बहुमत मिलता है या वह बहुमत का साधारण आंकड़ा पार कर पाती है। जहां तक कांग्रेस का सवाल है तो वह दिल्ली में शुरू से ही पिछली बेंच पर बैठने वाले ‘विद्यार्थी’ के समान व्यवहार कर रही थी , हालांकि उसके पास भी दिल्ली की स्व. श्रीमती शीला दीक्षित की 15 साल अनवरत चली सरकार और पहले नगर निगम में हुकूमत करने की अच्छी विरासत थी। इसके बावजूद वह शुरू से ही पिछड़ी रही। जहां तक हिमाचल का सवाल है तो यहां स्वयं व्यापारिक चुनाव एक्जिट पोल एजेंसियां ही भ्रम में लगती हैं। इनमें कोई कांग्रेस को अधिक सीटें दे रहा है तो कोई भाजपा को। भारत में एक्जिट पोलों या चुनाव सर्वेक्षणों का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। वास्तव में इसकी शुरूआत 1971 में ही हुई थी। 
इस वर्ष हुए लोकसभा चुनावों में देश पर राज करने वाली पार्टी कांग्रेस दो धड़ों में बंट गई थी। यह स्वतन्त्र भारत की ऐतिहासिक घटना थी। उस समय श्रीमती इन्दिरा गांधी देश की प्रधानमन्त्री थीं और राष्ट्रपति चुनाव के मुद्दे पर उनकी अपनी ही पार्टी की सर्वोच्च निर्णयकारी संस्था ‘कांग्रेस कार्यकारिणी’ से ठन गई थी। श्रीमती इन्दिरा गांधी चाहती थीं कि बड़े निजी बैंकों का देशहित में राष्ट्रीय करण किया जाना चाहिए। इस बाबत उन्होंने 1968 के जयपुर में हुए कांग्रेस महाधिवेशन में प्रस्ताव भी लाना चाहा था मगर कांग्रेस कार्यकारिणी ने इसे कोई तवज्जों देना उचित नहीं समझा था। 1967 के आम चुनावों में कांग्रेस की हालत बहुत खराब हो गई थी। नौ राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारों का गठन हो चुका था और लोकसभा में महज 18 सांसदों का कांग्रेस को बहुमत मिल पाया था। अतः इन्दिरा जी की राय में बैंकों के राष्ट्रीयकरण करने से जनता में कांग्रेस पार्टी के प्रति आकर्षण फिर से पैदा किया जा सकता था। अतः डा. जाकिर हुसैन की राष्ट्रपति पद पर रहते हुए जब मृत्यु हो गई तो नये राष्ट्रपति के लिए चुनाव होना था और इन्दिरा जी चाहती थीं कि किसी समाजवादी सोच वाले नेता को नया राष्ट्रपति बनाया जाये मगर कार्यकारिणी ने तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष श्री नीलम संजीव रेड्डी का नाम सुझाया जो निजी स्तर पर कार्यकारिणी के सदस्यों वित्तमन्त्री  स्व. मोरारजी देसाई , निजलिंगप्पा, कामराज व अतुल्य घोष आदि के बहुत निकट थे और उसी पीढ़ी के थे। इन्दिरा जी ने कार्यकारिणी की बैठक में तो उनके नाम का समर्थन कर दिया मगर कुछ दिनों ही बाद उपराष्ट्रपति श्री वी.वी. गिरी को इशारा कर दिया कि वह स्वतन्त्र रूप से राष्ट्रपति पद के लिए खड़े हो जायें। श्री गिरी इस्तीफा देकर खड़े हो गये और इन्दिरा जी ने कांग्रेसी सांसदों व विधायकों से अपील कर दी कि वे अपनी ‘अर्न्तात्मा की आवाज’ पर वोट डालें। चुनाव में श्री गिरी बहुत कम अन्तर से जीत गये। 
इन्दिरा जी ने इसी समय फैसला किया कि वह 14 निजी बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण करेंगी। उन्होंने रात्रि में अध्यादेश की मार्फत बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया जिसकी खबर वित्तमन्त्री मोरारजी देसाई को सुबह अखबारों से ही मिली।  बस कांग्रेस के टूटने का पक्का इन्तजाम हो गया और यह नई कांग्रेस (इन्दिरा) व संगठन कांग्रेस (सिंडीकेट या कार्यकारिणी) में पूरी कानूनी प्रक्रिया चलने के बाद विभक्त हो गई। मगर सर्वोच्च न्यायालय ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण को अवैध करार दे दिया तो इन्दिरा जी ने लोकसभा भंग करने का प्रस्ताव राष्ट्रपति गिरी को भेज दिया जिसे स्वीकार कर लिया गया और चुनाव घोषित हो गए। इस पूरी प्रक्रिया में 1971 की शुरूआत हो गई और चुनावों में संगठन कांग्रेस, स्वतन्त्र पार्टी, जनसंघ व संसोपा के साथ अन्य क्षेत्रीय विरोधी दलों को मिलाकर संयुक्त मोर्चा बना जिसे ‘चौगुटा’ कहा गया। 
दूसरी तरफ इन्दिरा जी की नई कांग्रेस व भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का सहयोग बना और चुनाव हो गये। देश के सभी पूंजीपति व पूर्व राजा-महाराजा चौगुटे के साथ खड़े हो गये और इसके चिन्ह पर उन्होंने चुनाव भी लड़ा।  इस चुनाव में मतदान से पूर्व कयासबाजियों का दौर शुरू हुआ और चुनावी सर्वेक्षण प्रकाशित होने लगे। हालांकि जब चुनाव परिणाम आये तो सभी सर्वेक्षण एक सिरे से गलत साबित हुए। सभी पूंजीपति व अधिसंख्य  राजा महाराजा चुनाव हार गये। मगर परिणाम से पूर्व चुनावी परिणाम बताने की परम्परा शुरू हो गई।  इसके बहुत बाद टेलीविजन क्रान्ति होने के बाद एक्जिट पोल की नई परंपरा शुरू हुई और यह नया धंधा पनपने लगा। 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

11 − two =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।