भारत में कुल नौ धार्मिक दर्शन हैं जिनमें से छह दर्शनों के समागम को ‘षष्ठ दर्शन’ अर्थात ‘सनातन’ कहा गया। ऐसा स्वीकार किया जाता है कि ईसा से छह सदी पहले इन सभी दर्शनों की मीमांसा हुई और 11वीं सदी में ‘प्रबोध चन्द्रोदय’ पुस्तक लिखी गई और 14वीं सदी में स्वामी माधवाचार्य ने ‘सर्व दर्शन संग्रह’ को लिपीबद्ध किया। मगर ईसा से छह सदी पूर्व श्रमण संस्कृति का उदय हुआ। इस संस्कृति में जैन, बौद्ध, चारवाक या केश कम्बली, आजीवक, मरवति, गोशाल आदि ने अपने-अपने ढंग से सृष्टि रचना व ईश्वर की सत्ता या उसके अस्तित्त्व के न होने की व्याख्या की। बौद्ध आत्मा के अस्तित्व को नहीं मानते हैं जबकि सनातन आत्मा की तृप्ति के लिए विविध विधान बताता है। इनमें से सबसे अधिक विवादास्पद चार्वाक का दर्शन है जो स्वर्ग, नर्क और आत्मा की परिकल्पना का उपहास तक उड़ाता है और कहता है कि,
यावत जीवेत सुखं जीवेत- ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत
भस्मी भूतस्य बेहस्य पुनर्आगमनं कुतः
अर्थात जितने दिन भी जियो मौज से जियो और अगर जरूरत पड़े तो उधार लेकर भी ‘घी’ यानि सुख एश्वर्य के साथ जियो क्योंकि यह शरीर तो समाप्त हो जायेगा और पुनर्जन्म जैसी कोई चीज नहीं होती है। चार्वाक का दर्शन कहता है कि यह शरीर ही सब कुछ है। इसमें चेतना ही आत्मा है।
चैतन्य विशिष्टो देह एवं आत्मा
किण्वादिभ्यो मदशक्तिवत विज्ञानं
भारतीय दर्शन में विज्ञान का अर्थ चेतना होता है। अतः जब तक व्यक्ति चेतन है तभी तक उसका जीवन है और उसकी आत्मा यही चेतन है। इसलिए पूरी तरह आनन्दित होकर जीवन जियो और जम कर पियो।
पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा यावतपतरति भूतले
उत्थाय चःपुनः पीत्व पुनर्जन्म न विद्यते
संस्कृत के इस श्लोक का अर्थ है कि पियो, पियो और जमकर तब तक पियो जब तक कि भूमि पर लेट न जाओ। जब उठो तो फिर पियो क्योंकि अगले जन्म जैसी कोई चीज नहीं होती और न स्वर्ग-नर्क होता है। धर्म के चक्कर में मत पड़ो यह एक मानसिक रोग होता है। यह श्लोक इस प्रकार है,
सुखमेव स्वर्गं, दुखमेव नरकै
मरण एव अपवर्गः
अर्थात सुख ही स्वर्ग है और दुख ही नर्क है। सुख-दुख और स्वर्ग व नर्क की चार्वाक व्याख्या को 20वीं सदी के कई दर्शनशास्त्रियों ने भी सही ठहराया, जिनमें डी.एच. लारेंस प्रमुख हैं। जहां श्रमण संस्कृति की सात परंपराएं जिनमें जैन व बौद्ध सबसे अधिक प्रमुख हैं। मगर प्राचीन भारत में आजीवक परम्परा भी थी जो नियतिवाद को मानती थी और कहती थी कि जो हो रहा है और जो होगा वह सब नियति का खेल है। जो होना है वह तो होकर ही रहेगा तुम चाहे जितने उपक्रम कर लो। इतिहासकारों के अनुसार सम्राट चन्द्रगुप्त की पत्नी (पटरानी) आजीवक थीं जबकि चन्द्रगुप्त अंतिम समय में जैन हो गया था। मगर चार्वाक ने कहा कि जो सामने साफ दिखाई पड़ रहा है वहीं प्रमाण है इसके सिवाय कुछ नहीं। उन्होंने कहा कि –‘प्रत्यक्षमेव एकं प्रमाणं’। अक्सर हम चार्वाक का जिक्र गंभीरता के साथ नहीं करते परन्तु यह एक स्थापित दर्शन रहा है जो ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं रखता है। परन्तु इसके समानान्तर सनातन दर्शन भी है जिसमें ईश्वर की सत्ता और आत्मा व पूजा- पाठ का विधान है और ईश्वर के साकार स्वरूप की आराधना व पूजा का विधान है।
भारत की यही तो विशेषता है कि इसमें चार्वाक को भी ऋषि कहा गया और नारद को भी, जो दिन-रात नारायण-नारायण करते रहते हैं। यही तो भारत की वह विविधता है जिसे देख कर दुनिया दांतों तले अंगुली दबाती है। हमारे यहां तो आजीवक संस्कृति रही जिसमें कुछ अनैतिक था ही नहीं। अतः सनातन धर्म को लेकर विवाद तो पैदा किया जा सकता है परन्तु इसकी कटु आलोचना करना भी कुछ लोगों की भावनाओं को कष्ट पहुंचा सकता है क्योंकि भारत विभिन्न जातियों व उपजातियों में बंटा हुआ है अतः सबके लिए सनातन की मान्यताएं अलग-अलग हो सकती हैं। जब कोई कथित ऊंची जाति का व्यक्ति सत्यनाराण की कथा अपने घर में कराता है तो उसकी सजावट व तेवल दूसरे हो सकते हैं और जब कोई पिछड़े समाज का व्यक्ति यही पूजा कराता है तो उसे पंडित जी की दक्षिणा देना भी भारी पड़ जाता है। इसीलिए भारत वर्ष को विविधता वाला देश कहा जाता है। अतः यह बहस यदि आगे खिंचती है तो इसके परिणाम हिन्दू समाज के भीतर ही भेदभाव पैदा कर सकते हैं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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