भारत की धार्मिक विविधता के बीच बनी सामाजिक संरचना में महिलाओं के प्रति व्यवहार और सम्मान में एकरूपता का न होना विभिन्न समुदायों में उसकी उस पारिवारिक स्थिति से निर्देशित होता रहा है, जिसमें उसकी आर्थिक क्षमता प्रमुख भूमिका निभाती रही है। इसके साथ ही धर्म या मजहब में उसकी भूमिका को निर्धारित करने के प्रयास इस प्रकार होते रहे हैं जिससे उसकी अार्थिक स्वतन्त्रता नियन्त्रित रह सके। इसके लिए उसके स्वतन्त्र निर्णय के अधिकार को नियन्त्रित करने हेतु विभिन्न समाजों व धर्मों में एेसी परंपराओं को स्थापित किया गया जिससे वह आर्थिक रूप से लगातार आश्रित बनी रहे। यही वजह है कि आज भी खाप पंचायतों से लेकर दारूल कजाएं पारिवारिक समस्याएं सुलझाने के लिए बेताब रहती हैं और एेसे फरमान जारी करती हैं जिनसे महिलाएं आश्रिता की हैसियत से ऊपर न जा पाएं। हाल ही में आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड ने देशभर में अपने समाज के घरेलू मसले सुलझाने के लिए हर जिले में दारूल कजा की शाखा खोलने का जो प्रस्ताव रखा है वह पूरी तरह से दकियानूसी व कट्टरपंथी समाज की बुनियाद को बनाए रखने के अलावा और कुछ नहीं है। इन संगठनों को शरीया अदालत कहने की भी कोई तुक नहीं है क्योंकि भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में किसी भी धर्म की अदालतों के गठन की दूर-दूर तक कोई संभावना पैदा ही नहीं हो सकती।
मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड खुद ही मुसलमानों की नुमाइंदगी का दावा करके इस समाज के घरेलू मसलों में खुद मुख्तारी की भूमिका लेकर केवल दूसरे बहुसंख्यक हिन्दू समाज में कट्टरपंथी तत्वों को हवा देना चाहता है जिससे आगामी लोकसभा चुनावों में इसमें घुसी हुई कुछ राजनीतिक शख्सियतों की दाल-रोटी चल सके और हिन्दू व मुसलमान दोनों का ही उन ज्वलन्त समस्याओं से ध्यान हट सके जो उनके जीवन को लगातार कष्टकर बना रही हैं। बेशक 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने एडवोकेट विश्व लोचन मदान की जनहित याचिका पर फैसला देते हुए साफ किया था कि मुसलमानों की ऐसी पंचायतों को जिन्हें दारूल कजा कहा जाता है, की कोई वैधानिक स्थिति नहीं है और न ही इनके द्वारा दिए गए फैसलों को लागू करने का कोई विधान है और न ही इन्हें लागू करने का दारूल कजाओं के पास कोई अधिकार है, फिर भी इनकी मौजूदगी गैर-कानूनी नहीं है क्योंकि ये केवल शिकायत पर बीच-बचाव करने की सलाह देने वाली पंचायतें हैं मगर दारूल कजा या एेसी ही अन्य कोई दूसरे नाम वाली संस्था एेसा कोई फतवा या फैसला नहीं दे सकती जो किसी व्यक्ति के निजी मौलिक अधिकार, हैसियत और जिम्मेदारी के बारे में हो। अपने फैसले में विद्वान न्यायाधीशों ने यह भी स्पष्ट किया था कि सरकार को एेसे व्यक्ति की हिफाजत करने का पूरा हक है जो किसी फतवे को मानने से इंकार करे मगर दारूल कजा केवल एक धार्मिक मामला है। इसे धार्मिक मसलों पर अपनी राय देने का उस सीमा तक हक है जहां तक कि किसी व्यक्ति के उन अधिकारों का उल्लंघन न हो जो संविधान में दिए गए हैं। इससे स्पष्ट है कि दारूल कजा की शाखाएं हर जिले में खोलने का प्रस्ताव केवल राजनीतिक उद्देश्य से दिया गया है और चुनावी वर्ष में धार्मिक कट्टरता को सतह पर लाने की गरज से दिया गया है क्योंकि इसके जवाब में हिन्दू कट्टरपंथियों का सक्रिय होना स्वाभाविक प्रक्रिया होगी। हिन्दुओं में भी जिस प्रकार सामाजिक व धार्मिक मामलों के हल के लिए खुद मुख्तार संस्थाएं चारों तरफ पनप रही हैं उससे उन्हें अपना कार्य करने में सुविधा होगी। हकीकत यह है कि 1994 से लेकर 2011 तक दिल्ली जैसे शहर में केवल 341 मामले ही घरेलू मसले केे इस महानगर की दारूल कजा में गए थे। जाहिर है कि मुसलमानों में भी जागृति पैदा हो रही है और वे भी मौलवी, मुल्ला और मुफ्ती, काजी राज की दखलंदाजी अपने घरेलू मामलों में नहीं चाहते हैं।
मगर क्या कयामत है कि सियासत के सितमगर उन्हें लगातार पिछली सदियों में जीने का सामान मुहैया करा रहे हैं। ठीक एेसे ही कारनामे कुछ तत्व भी कर रहे हैं जो गौमांस या नवयुवक व नवयुवतियों के आपसी सम्बन्धों से लेकर उनकी पोशाकों तक पर अपने कानून लागू करना चाहते हैं। दरअसल चुनावी वर्ष में यह उस पुरानी राजनीति को पनपाने की साजिश है जिसमें लोग अपनी मूल समस्याएं भूल कर अपनी धार्मिक पहचान के जुनून में आ सकें। भारत जैसे उदार और बहुधर्मी समरसता वाले मुल्क के खिलाफ मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड की यह चाल किसी साजिश से कम नहीं है जो आम भारतीय में यह अवधारणा पैदा कर देना चाहती है कि इस देश के राष्ट्रभक्त मुसलमानों को भारतीय न्यायप्रणाली में यकीन अपनी धार्मिक पंचायतों के मुकाबले कम है। ये लोग भूल गए हैं कि हिन्दोस्तान में सात सौ साल तक मुस्लिम सुल्तानों और मुगलों का शासन रहने के बावजूद कभी भी इस मुल्क का मिजाज बदलने की किसी ने हिम्मत नहीं की और न किसी ने शहंशाह ने शरीया लागू तक करने के बारे में सोचा। हर मुगल बादशाह के दरबार में अगर एक इस्लाम धर्म का विद्वान रहा तो उसके समानान्तर ही हिन्दू धर्म का विशेषज्ञ संस्कृत का विद्वान भी रहा। इसलिए असीदुद्दीन ओवैसी कान खोल कर सुनें कि हिन्द की चादर को कोई भी ताकत मैली नहीं कर सकती। यह 21वीं सदी चल रही है और मुसलमान नागरिक जान चुके हैं कि उनके संवैधानिक अधिकार क्या हैं। धर्म उनका निजी मामला है।