सोशल, डिजीटल मीडिया और न्यायमूर्ति रमण - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

सोशल, डिजीटल मीडिया और न्यायमूर्ति रमण

भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एन.वी. रमण ने पत्रकारिता के स्तर के बारे में जो टिप्पणी की है, वह बहुत गंभीर और मनन योग्य विषय है

भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एन.वी. रमण ने पत्रकारिता के स्तर के बारे में जो टिप्पणी की है, वह बहुत गंभीर और मनन योग्य विषय है क्योंकि सूचना क्रान्ति के आने के बाद इस क्षेत्र में जो क्रान्तिकारी बदलाव आया है उससे लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ माने जाने वाले पत्रकारिता संस्थान की विश्वसनीयता पर एेसे सवाल खड़े हो रहे हैं जिनसे पत्रकार कहे जाने वाले हर व्यक्ति की प्रतिष्ठा पर आघात हो रहा है। श्री रमण ने सूचना क्रान्ति के दौर में उपजे सोशल मीडिया व डिजीटल मीडिया की भूमिका को यह कहते घोर सन्देह के घेरे में डाल दिया है कि इनकी जवाबदेही और जिम्मेदारी इस हद तक बेपरवाही की शिकार है कि ये ‘जजों’ तक के सवालों को अनदेखा कर देते हैं। यू-ट्यूब पर कोई भी व्यक्ति या संस्था अपना चैनल शुरू करके खबरों को अपने रंग में रंग कर दिखाने लगता है। इसमें भी सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न श्री रमण ने यह खड़ा किया है कि कुछ बाजाब्ता टीवी चैनल हर खबर को हिन्दू-मुस्लिम की साम्प्रदायिकता के रंग में सराबोर करके दिखाते हैं।  खबर में साम्प्रदायिक नजरिया ढूंढना वास्तव में महान भारत की मान्यताओं के पूरी तरह विरुद्ध है। अतः न्यायमूर्ति रमण का यह कहना पूरी तरह उचित है कि इससे सर्वज्ञ रूप से भारत की प्रतिष्ठा ही धूमिल होती है।
 नई पीढ़ी के पाठकों को याद दिलाने के लिए आवश्यक है कि अब से तीस वर्ष पहले तक भारत के सभी प्रतिष्ठित (हिन्दी- अंग्रेजी) अखबारों में कहीं भी साम्प्रदायिक दंगों तक के होने पर दो समुदायों की पहचान हिन्दू या मुस्लिम रूप में करना निषेध माना जाता था। केवल ही लिखा जाता था कि एक वर्ग के लोगों से दूसरे वर्ग या समुदाय के लोगों का झगड़ा-फसाद हुआ। मरने वालों तक की पहचान हिन्दू-मुस्लिम रूप में करना अनुचित समझा जाता था। एेसा इसलिए था जिससे भारत की विविधतापूर्ण संस्कृति के समाज में सामाजिक सौहार्द न बिगड़े परन्तु धीरे- धीरे इन रवायतों को छोड़ दिया गया और फिलहाल तो कुछ टीवी चैनलों के बीच इसी मुद्दे पर युद्ध हो रहा है कि कौन सा चैनल कैसे साम्प्रदायिक रंग देने में बाजी मारता है। यह स्थिति समूचे भारत की छवि के ​िलए बहुत दुखदायी और नुकसानदायक है। इससे देश की पूरी नई पीढ़ी को हम बजाये भारतीय बनाने के साम्प्रदायिक सांचे में ढाल रहे हैं।  न्यायमूर्ति रमण की चिन्ता इसी दिशा में ज्यादा दिखाई पड़ती है। 
हकीकत यह है कि वह समाज कभी तरक्की नहीं कर सकता जो अपनी राष्ट्रीय पहचान को संकुचित करके देखता है । इतिहास गवाह है कि जिस धार्मिक समुदाय के लोगों की एेसी सोच रही है वे लगातार पिछड़े ही बने रहे हैं। स्वतन्त्र पत्रकारिता जिम्मेदारी से परिपूर्ण होती है। एक मायने में एक पत्रकार की जिम्मेदारी किसी राजनीतिक दल के नेता से भी ऊपर होती है। यह जिम्मेदारी केवल आम जनता के हित (पब्लिक इन्ट्रेस्ट) में होती है। राजनीतिक दल के किसी भी नेता की जिम्मेदारी अपनी राजनीतिक पार्टी के हित के नजरिये से भी बनती है मगर पत्रकार की सीधी जिम्मेदारी बिना किसी को बीच में लाये आम जनता के प्रति बनती है। बेशक इस तर्क को यह कह कर काटा जा सकता है कि वर्तमान पत्रकारिता व्यापारिक या वाणिज्यिक रूप ले चुकी है अतः यह कोरोबारी नियमों को ज्यादा मानती है। यह इस मुद्दे का दूसरा पहलू है जिसकी व्याख्या फिर कभी की जा सकती है परन्तु आज का प्रश्न यह है कि खबरों को साम्प्रदायिक रंग में रंगने से समाज की मानसिकता को प्रदूषित करने के कितने भयंकर परिणाम भविष्य में हो सकते हैं। न्यायमूर्ति जब यह कहते हैं कि इससे देश की छवि खराब होती है तो उनका अभिप्राय स्पष्ट है कि राष्ट्रीय एकात्मता का भाव घायल होता है। इस बारे में सबसे ताजा उदाहरण ओलिम्पिक खेलों में भाला फेंक प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक विजेता नीरज चोपड़ा का है जिनकी परम पराक्रम को यू-ट्यूब से लेकर सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने साम्प्रदायिक कलेवर में ‘पागना’ चाहा।
 श्री रमण ने सोशल व डिजीटल मीडिया द्वारा कई बार भारतीय लोकतन्त्र के जायज संस्थानों की छवि को भी जिस तरह बिगाड़ कर पेश किये जाने पर बाकायदा गुस्सा जाहिर किया है और कहा है कि ‘एेसा लगता है कि ‘वेब पोर्टलों’ पर किसी का नियन्त्रण नहीं है। ये अपनी मनमर्जी के हिसाब से कुछ भी छाप देते हैं । यदि आप यू-ट्यूब पर जायें तो एक मिनट के भीतर ही ढेरों चीजें देखने को मिल जाती हैं इनमें कितनी सही हैं और कितनी सत्य से परे हैं और कितनी को अपने हिसाब से तोड़- मरोड़ कर पेश किया जाता है, किसी को कुछ पता नहीं’। मगर इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि पत्रकारिता पर किसी प्रकार का नियन्त्रण लगाया जाये या उसकी स्वतन्त्रता पर कोई अंकुश लागू हो, बल्कि अर्थ यह है कि पत्रकारिता अपनी स्वतन्त्रता को अक्षुण्य बनाये रखने के लिए स्वयं की जवाबदेही सर्वप्रथम आम जनता के प्रति तय करे और उस तक वस्तुगत तथ्यों को बिना किसी लाग-लपेट या किसी एक पक्षीय चाशनी में भिगो कर पेश करे। न्यायमूर्ति रमण का आशय मात्र इतना ही लगता है। वैसे भी पत्रकारिता का मूल ‘धर्मं चर, सत्यं वद’ (धर्म का आचरण करो और सत्य बोलो) सिद्धांत ही होता है। 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

two × four =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।