तमिलनाडु : संविधान से खिलवाड़ - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

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तमिलनाडु : संविधान से खिलवाड़

जब हम कहते हैं कि भारत संविधान से चलने वाला देश है तो देश के सभी संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों की प्राथमिक जिम्मेदारी हो जाती है कि वे अपने कार्य का निर्वाह करते समय पूरी बुद्धि व पूरे अन्तःकरण से खुद को मिली संवैधानिक शक्तियों का इस्तेमाल करें।

जब हम कहते हैं कि भारत संविधान से चलने वाला देश है तो देश के सभी संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों की प्राथमिक जिम्मेदारी हो जाती है कि वे अपने कार्य का निर्वाह करते समय पूरी बुद्धि व पूरे  अन्तःकरण से खुद को मिली संवैधानिक शक्तियों का इस्तेमाल करें। मगर लगता है कि तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि कसम खाकर बैठे हैं कि वह अपने पद के प्रतीकात्मक ‘रूआब’ के मुताबिक संविधान के प्रावधानों का इस्तेमाल इस तरह करेंगे कि राज्य की जनता द्वारा अपने वोट की ताकत से चुनी गई सरकार की हैसियत भी उनके सामने किसी ‘हुक्काबरदार’ की हो जाये। लोकतन्त्र में ऐसी सोच के व्यक्ति की कोई जगह नहीं होती क्योंकि वह ‘सेवक’ की तरह नहीं बल्कि ‘मालिक’ की तरह सोचता है। भारत में जब से संविधान लागू हुआ है तब से यह पहला मौका है कि किसी राज्यपाल ने अपने संविधान प्रदत्त अधिकारों से बाहर जाकर मुख्यमन्त्री के मशविरे दिये बगैर उसके मन्त्रिमंडल के किसी मन्त्री को बर्खास्त कर दिया हो। हमारा संविधान कहता है कि केन्द्र में प्रधानमन्त्री व राज्य में मुख्यमन्त्री का यह विशेषाधिकार होता है कि वह जिसे चाहे उसे मन्त्रिमंडल में शामिल करे बशर्ते वह व्यक्ति संवैधानिक शर्तों पर खरा उतरता हो। 
तमिलनाडु के मन्त्री सेंथिल बाला जी को 2015 में हुए एक  भ्रष्टाचार के मामले में विगत 14 जून को प्रवर्तन निदेशालय ने गिरफ्तार किया और वह फिलहाल न्यायिक हिरासत में हैं। राज्यपाल रवि ने बिना यह सोचे कि संविधान का कोई भी प्रावधान राज्य की बहुमत की सरकार के किसी मन्त्री पर उन्हें अपनी तरफ से कार्रवाई करने की इजाजत नहीं देता, सेंथिल को बर्खास्त करने का आदेश जारी कर दिया। संविधान कहता है कि राज्यपाल केवल मुख्यमन्त्री की सलाह व मशविरे से ही राज-काज के किसी मामले में दखल दे सकते हैं। बेशक मुख्यमन्त्री को राज्यपाल ही नियुक्त करते हैं और उनकी नियुक्ति करते समय वह अपने विवेक का इस्तेमाल उस संवैधानिक जरूरत को पूरा करने के लिए करेंगे जिसमें कहा गया है कि राज्य विधानसभा में बहुमत का समर्थन प्राप्त व्यक्ति ही मुख्यमन्त्री बनाया जायेगा। इसके साथ ही किसी मुख्यमन्त्री का विधानसभा में बहुमत समाप्त होने पर वह उसकी सरकार को बर्खास्त कर सकते हैं। विशेष परिस्थितियों में यदि किसी राज्य में संवैधानिक व्यवस्था समाप्त हो गई हो तो भी वह राष्ट्रपति से उसे बर्खास्त करने की अनुशंसा कर सकते हैं मगर किसी बहुमत का समर्थन पाये मुख्यमन्त्री की सरकार के किसी मन्त्री को तब तक बर्खास्त नहीं कर सकते जब तक कि स्वयं मुख्यमन्त्री उनसे इसकी सिफारिश न करें। राज्यपाल किसी मन्त्री को केवल मुख्यमन्त्री की सलाह पर ही नियुक्त करते हैं। 
श्री रवि को ध्यान रखना चाहिए था कि अभी विगत फऱवरी महीने में ही महाराष्ट्र के पूर्व राज्यपाल भगत सिंह कोशियारी की विवादास्पद भूमिका के बारे मे फैसला देते हुए साफ किया था कि राज्यपाल का पद पूरी तरह से अराजनैतिक होता है और वह अपने राज्य की दलगत राजनीति के क्षेत्र में दखल नहीं दे सकते। उनका काम किसी भी राजनैतिक दल की आन्तरिक राजनीति या विभिन्न दलों की आपसी राजनीति में पड़ना नहीं है। उनका काम राज्य में बहुमत का शासन देखना है। जिसका फैसला विधानसभा के अन्दर ही होना होता है।  संविधान के अनुच्छेद 164(1) में यह जरूर लिखा हुआ है कि ‘राज्यपाल मुख्यमन्त्री को नियुक्त करेंगे और उनकी सलाह पर अन्य मन्त्रियों को नियुक्त करेंगे जो अपना काम राज्यपाल की प्रसन्नता के चलते करेंगे।’ मगर यहां ‘प्रसन्नता’ का मतलब वैसी ‘प्रसन्नता’ से नहीं है जो स्वयं राज्यपाल के कार्यकाल के लिए राष्ट्रपति की ‘प्रसन्नता’ होती है। 
राष्ट्रपति किसी भी राज्यपाल को बिना कोई कारण बताये केवल इसलिए बर्खास्त कर सकते हैं कि वह अब उनकी प्रसन्नता का हकदार नहीं रहा है। यह नियम स्वयं रवि पर ही लागू होता है। मगर राज्यपाल की प्रसन्नता मुख्यमन्त्री के विधानसभा में बहुमत के समर्थन से बंधी हुई है। बहुत साफ है कि जब तक किसी मुख्यमन्त्री को बहुमत प्राप्त है तब तक राज्यपाल उसके मन्त्रिमंडल के किसी भी मन्त्री से अप्रसन्न नहीं हो सकते और उन्हें मुख्यमन्त्री की सलाह पर ही चलना होगा। इस सन्दर्भ में सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ का 1974 का फैसला भी है जिसमें कहा गया है कि राज्यपाल को अपने सभी औपचारिक संवैधानिक अधिकारों का प्रयोग राज्य सरकार की सलाह व मशविरे पर ही करना चाहिए केवल कुछ अपवादों को छोड़ कर जिनका जिक्र मैंने ऊपर किया है जो कि मुख्यमन्त्री की नियुक्ति व उसकी सरकार की बर्खास्तगी के बारे में हैं। यहां यह सवाल नहीं है कि सेंथिल बालाजी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हुए हैं। इसके लिए न्यायालय है जहां से अन्तिम फैसला आयेगा। सेंथिल बाला जी को मुख्यमन्त्री श्री एम.के. स्टालिन इसके बावजूद अगर अपनी सरकार में रखना चाहते हैं  और संविधान अगर इसकी इजाजत देता है तो यह उनका राजनैतिक फैसला है। मुख्यमन्त्री के अधिकार क्षेत्र में राज्यपाल किस तरह प्रवेश कर सकता है। मगर राज्यपाल आर.एन. रवि ने अपने फैसले पर कुछ घंटों में ही पुनर्विचार किया और वक्तव्य जारी किया कि वह इस मामले में कानूनी सलाह ले रहे हैं तब तक उनका पहला फैसला स्थगित रहेगा। इसका क्या मतलब निकल सकता है? जाहिर है कि राज्यपाल को अपने ऊपर भरोसा ही नहीं है। इसके साथ यह भी सवाल खड़ा होता है कि जिस राज्यपाल में इतनी समझ न हो कि वह संवैधानिक प्रावधान लागू करने से पहले सुलभ कानूनी या विधी विशेषज्ञों की राय लेना जरूरी  समझे, वह संवैधानिक मुखिया का कर्त्तव्य कैसे निभाने लायक हो सकता है। यह तो ‘नादां की दोस्ती जी का जंजाल’ ही साबित होगा।

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