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गुमनाम लोगों को सबसे बड़ा पुरस्कार-यही देश का गौरव

देश के गौरव की बातचीत की जाए तो इसमें जो अपना योगदान देते हैं उनमें कई  लोग ऐसे भी हैं जो गुमनाम होते हैं। वह अपना काम बहुत पहले कर जाते हैं और उनके नाम के बारे में देश और देशवासियों को बाद में पता चलता है

देश के गौरव की बातचीत की जाए तो इसमें जो अपना योगदान देते हैं उनमें कई  लोग ऐसे भी हैं जो गुमनाम होते हैं। वह अपना काम बहुत पहले कर जाते हैं और उनके नाम के बारे में देश और देशवासियों को बाद में पता चलता है। इस कड़ी में अगर गणतंत्र दिवस के मौके पर 106 लोगों की बातचीत की जाए जिन्हें पद्म सम्मान के लिए चुना गया है तो उनमें से कई ऐसे हैं जो अपनी देश के नाम उपलब्धि सामने आने से पूर्व एकदम गुमनाम थे। इनके काम ऐसे हैं जो देखने में बहुत छोटे लेकिन जब उनका आंकलन किया जाए तो उनके काम की महानता का पता चलता है। इसीलिए कहा गया है कि काम कभी छोटा-बड़ा नहीं होता। माना कि काम को छोटा-बड़ा आंकने वालों की कमी नहीं है परंतु बड़ी बात यह है कि उस छोटे या बड़े काम के पीछे जूनून देखना चाहिए कि कौन व्यक्ति किस हद तक जाकर अपना काम कर रहा है। बिहार की 87 वर्षीय श्रीमती सुभद्रा देवी एक ऐसी हस्ती हैं जो पद्म पुरस्कार के लिए चुनी गई। इसी तरह असम की एक ओर महिला वह भी गुमनाम थी लेकिन पद्म पुरस्कार के लिए चुनी गई हैं और कर्नाटक की एक ऐसी जो हर दृष्टिकोण से गुमनाम थी लेकिन उनके महान कामों ने उन्हें देश के गौरवशाली पुरस्कार विजेताओं की श्रेणी में ला खड़ा किया है। अब इनके जुनून की बात करते हैं कि उन्हें ये प्रतिष्ठित पुरस्कार कैसे मिल पाए? 
असम की हेमप्रभा चुटिया ने श्रीमद्भगद्गीता की एक रेशम के कपड़े पर संस्कृत में बुनाई कर डाली। यह अद्वितीय काम था और उन्हें पदमश्री पुरस्कार के लिए चुना गया। कर्नाटक की वल्ली दुदेकुला ने अपने कर्नाटक के अनेक इलाकों में ऐसा बाजरा जो खत्म होने की कगार पर था को बचाने का काम किया और उन्हें पदमश्री पुरस्कार प्रदान किया गया। जबकि बिहार की सुभद्रा देवी एक कलाकार है। कहने का मतलब ये काम देखने में छोटे लग सकते हैं लेकिन इन्हें करने वाले लोग साधारण हो सकते है लेकिन उनकी मेहनत, लगन और जुनून बहुत असाधारण हैं। महाराष्ट्र के गढ़ चिरौली में रहने वाला परशुराम खुने एक रंगमंच कलाकार हैं। वह पिछले पचास साल से अपने राज्य की संस्कृति का अभिनय के माध्यम से प्रसार कर रहे हैं। उन्हें बॉलीवुड बुलाया गया लेकिन वह कहते हैं कि मुझे संस्कृति से प्यार है। उनकी उम्र भी 70 साल हो चली है। इसी कड़ी में एक 81 वर्षीय संतूर शिल्पकार हैं मोहम्मद जाज। इस संतूर को और इसके सामान को इकट्ठा करने में उन्हें बड़ी मेहनत करनी पड़ी। संतूर बहुत कठिन वाद्य यंत्र है और इसे बनाना बहुत कठिन लेकिन जो संतूर के कद्रदान हैं वह उन्हीं का बनाया संतूर ही स्वीकार करते हैं। वह कहते हैं कि आज मेरे पिता, दादा और चाचा भी चले गए। काश, वह भी जिंदा होते तो मेरी इस उपलब्धि को देख पाते। खास जनजाति द्वारा एक भाषा बोली जाती है और इस भाषा को संरक्षित रखना कठिन काम है। वह बराबर इसकी लिपि तैयार करके झारखंड के सिंघभूम इलाके में सक्रिय रहते हैं और इसी भाषा के संरक्षण में उनके योगदान को देखकर उन्हें यह पुरस्कार दिया गया। इसी तरह एक बहुत कठिन वाद्ययंत्र सरिंजा है और 101 साल के जलपाईगुड़ी के केराय को इस खास वाद्य यंत्र में उनके योगदान के लिए चुना गया है और जब वह यह यंत्र बजाते थे तो उन्हें कोई आर्थिक सुरक्षा नहीं मिली। वह गरीबी में जी रहे थे और आज पदमश्री मिलने पर वह खुश हैं कि हमारी मोदी सरकार कलाकारों के टैलेंट को पहचान कर उन्हें इतना बड़ा सम्मान दे रही है। बड़ी बात यह है कि पदम पुरस्कार जिन लोगों को मिले हैं वह सारे के सारे सीनियर सीटीजन हैं। 
मैं तो एक बात दावे के साथ कह सकती हूं कि हमारे वरिष्ठ नागरिक केसरी क्लब के मेरे बच्चे (60 साल से लेकर 103 वर्ष तक के बुजुर्ग) भी बहुत टैलेंटेड हैं। इस उम्र में वे कैटवॉक करते हैं, एक्टिंग करते हैं, नाचते  हैं और गाते हैं इतना ही नहीं टॉप स्टार्स की मिमिक्री करते हैं। कहने का मतलब टैलेंट की कोई उम्र नहीं होती। त्रिपुरा में उग्रवाद जब सिर उठा रहा था तो आदिवासियों के आंदोलन को तेज करने के लिए विक्रम बहादुर जमातिया ने बढ़-चढ़कर काम किया और उन्हें पदम पुरस्कार से सम्मानित किया जायेगा। कुल मिलाकर टैलेंट और उम्र का कोई रिश्ता नहीं होता। जो लोग सर्वोच्च पुरस्कारों से सम्मानित किये गये वह बधाई के पात्र हैं और उनकी कला को जिस मोदी सरकार ने पहचाना वह भी बधाई की पात्र है। जुनून कभी थकता नहीं रूकता नहीं। बुजुर्गों के सम्मान और मानवता की खातिर अगर हमारे जीवन में भी यही जुनून है तो भगवान से यही दुआ है कि हम सब इसे लेकर आगे बढ़ते रहें और मानवता को सुरक्षित रखें।

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