नया तो नहीं दलबदल अन्तर्रात्मा का सिलसिला - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

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नया तो नहीं दलबदल अन्तर्रात्मा का सिलसिला

अंतर्रात्मा भी भारतीय राजनीति का एक पुराना खेल है। बड़े स्तर पर शुरूआत श्रीमती इन्दिरा गांधी के कार्यकाल में तब हुई थी जब उन्होंने अपनी ही पार्टी के राष्ट्रपति-पद के प्रत्याशी को इसी अंतर्रात्मा के नाम पर हरवा दिया था। तब कांग्रेस के अपने घोषित प्रत्याशी संजीवा रेड्डी को उन्होंने अंतर्रात्मा के नाम पर पराजित कराया था।
काश! अंतर्रात्माएं सही संदर्भों में जगी रहतीं तो देश को दशकों तक उठापटक न भोगनी पड़ती। मगर ऐसे आसार फिलहाल दिखाई नहीं देते।
दलबदल तो ब्रिटेन के बहुचर्चित प्रधानमंत्री विन्सटन चर्चिल ने भी किया था। उन्होंने तीन बार दल बदला। वर्ष 1904 में वह दलबदल कर ही लिबरल पार्टी में शामिल हुए थे। वर्ष 1924 में वह फिर से अपने पुराने दल ‘कंज़रवेटिव पार्टी में लौट आए। इससे पहले वर्ष 1922 में चर्चिल ने निर्दलीय रूप में भी चुनाव लड़ा था।
हमारे देश में इक्का-दुक्का दलबदल तो शुरुआती दौर में भी चला लेकिन व्यापक स्तर पर, अंतर्रात्मा की आवाज का नारा देकर श्रीमती इन्दिरा गांधी ने राष्ट्रपति पद के लिए अपनी ही पार्टी के अधिकृत प्रत्याशी संजीवा रेड्डी के विरुद्ध मतदान का नेतृत्व किया था और श्री वीवी गिरी को राष्ट्रपति बनवा दिया था। उसके पश्चात राष्ट्रीय स्तर पर यह सिलसिला थमा नहीं। आपातकाल ऐसी ही राजनीतिक परिस्थितियों में स्वयं को असुरक्षित महसूस करते हुए श्रीमती गांधी को लागू करना पड़ा था। इससे भी पूर्व गैर- कांग्रेसवाद के नाम पर देश के विभिन्न प्रदेशों में बड़े स्तर पर दलबदल हुए।
स्वतंत्र भारत की राजनीति में यह सिलसिला वैसे वर्ष 1948 में आरंभ हो गया था। उस वर्ष कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नाम से व्यापक स्तर पर राजनेताओं ने कांग्रेस छोड़ दी थी। उन सबने विधानसभाओं से त्याग पत्र दे दिए थे और नए-नए बैनरों के साथ चुनाव लडऩे की घोषणा की। तब ‘जन कांग्रेस के नाम से नया संगठन सत्ता में आया था।
उत्तर प्रदेश में वर्ष 1958 में 98 कांग्रेस विधायकों ने दल बदला और वहां की सम्पूर्णानंद सरकार का पतन करा डाला। वर्ष 1953 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नेता टी. प्रकाशम ने सदस्यता ले ली। इस दलबदल से वह आंध्र के मुख्यमंत्री बन गए। यही काम त्रावणकोर-कोचीन में पट्टम थानु मिल्लई ने किया था।
इस तरह वर्ष 1957-67 तक का विधायकों ने दलबदलू होने का श्रेय लिया और कांग्रेस छोड़ी। मगर इसी अवधि में 419 विधायक दलबदल कर कांग्रेस में आ गए।
वर्ष 1967 में देश के 16 राज्यों में चुनाव हुए। कांग्रेस को 8 राज्यों में बहुमत नहीं मिला। मगर शेष में भी कांग्रेस सबसे बड़े दल के रूप में ही उभर पाई। स्पष्ट बहुमत के लिए दलबदल का सहारा लेना पड़ा।
इस राजनीतिक उठा-पटक में अनेक क्षेत्रीय दल उभरे। हरियाणा सर्वाधिक चर्चा में रहा और यहां की राजनीतिक उठापटक ने ‘आया राम गया राम के मुहावरे को जन्म दिया। यह मुहावरा एक विधायक श्री गया लाल के नाम से जुड़ा था, जिन्होंने एक ही दिन में तीन-तीन बार दल बदला। उस वर्ष दलबदल के कई दौर चले। परिणामस्वरूप विधानसभा भंग करनी पड़ी। वर्ष 1968 में नए चुनाव हुए। श्री गया लाल दलबदल के आरोपों के बावजूद चुनावी मैदान में उतरते रहे। वर्ष 1974 में उन्होंने लोकदल प्रत्याशी के रूप में भी चुनाव जीता।
दरअसल, हरियाणा में वर्ष 1966 में नए प्रदेश के गठन के साथ ही यह रोग प्रवेश कर गया था। पूरे के पूरे विधायक दल के ही दलबदल करने के कीर्तिमान यहां स्थापित हुए। यहीं के एक विधायक ने होस्टल की पाइप के सहारे नीचे उतर कर ही दलबदल की गंगा में नहाने का अवसर लिया था। प्रदेश की पहली सरकार मात्र कुछ माह ही चल पाई और राव बीरेंद्र सिंह की सरकार बरासता दलबदल सत्ता में आई। इस रोग का वीभत्स रूप में चौधरी भजनलाल ने सत्ता में आने का समय मिला। मगर इस दौड़ में भी वह अकेले नहीं थे। पंजाब, हिमाचल, मध्यप्रदेश, राजस्थान व दक्षिण भारतीय राज्यों में भी यही होता रहा। सिलसिले तब तक चले जब तक वर्ष 1985 में दलबदल कानून नहीं बना।
मगर इस कानून के बावजूद तोड़ फोड़, दलबदल थमा नहीं। प्रार्थना करें कि लोकतंत्र किसी भी ढब, किन्हीं भी परिस्थितियां में सुरक्षित रहे।

– डॉ.चन्द्र त्रिखा

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