लोकतन्त्र में जनता ही इसकी मालिक होती है और वह कभी-कभी आश्चर्यजनक काम भी कर डालती है। अपने एक वोट की असीम ताकत से वह जब चाहे इस व्यस्था में बनने वाली सरकारों की चाबी अपनी जेब में रखकर सबूत दे देती है कि जनता के राज अर्थात लोकतन्त्र में गठित होने वाली सरकारें कभी मालिक नहीं होतीं बल्कि पांच साल के लिए उसकी सेवादार या नौकर होती हैं। भारत के आम लोगों को यह बेमिसाल ‘बादशाहत’ महात्मा गांधी ही देकर गये हैं जिसे बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने संविधान लिख कर जमीन पर उतारा। स्वतन्त्र भारत के चुनावी इतिहास में ऐसे मौके भी कई बार आये हैं जब किसी राज्य का पदासीन मुख्यमन्त्री चुनाव हारा है। ऐसा उत्तर प्रदेश में 1970 में हुआ था जब विपक्षी दलों की मिली-जुली सरकार के मुख्यमन्त्री स्व. त्रिभुवन नारायण सिंह चुनाव हार गये थे। इतना ही नहीं 1977 के लोकसभा चुनावों में प्रधानमन्त्री पद पर रहते हुए स्व. इन्दिरा गांधी भी उत्तर प्रदेश की ही रायबरेली सीट से समाजवादी नेता स्व. राजनारायण से धराशायी हो गई थीं। इसके बाद झारखंड के मुख्यमन्त्री श्री शीबू सोरेन भी चुनाव हार गये थे। इसके बाद 2022 के विधानसभा चुनाव में प. बंगाल की मुख्यमन्त्री ममता दी भी अपने चुनाव क्षेत्र नन्दी ग्राम से चुनाव हार गई थीं मगर बाद में उपचुनाव लड़ कर जीत गई थीं।
ठीक ऐसा ही 1967 के आम चुनावों में कांग्रेस के महाशक्ति शाली अध्यक्ष स्व. कामराज नाडार के साथ हुआ था जब वह तमिलनाडु की नागरकोइल लोकसभा सीट से चुनाव हार गये थे हालांकि बाद में एक साल के भीतर ही हुए उपचुनाव में उनकी जीत हुई थी और वह लोकसभा में पहुंच गये थे। प. बंगाल में भी ममता दी के अलावा और कई चुनावी परिणाम इस रूप में साठ व सत्तर के दशक में आये और 2011 में मार्क्सवादी पार्टी के मुख्यमन्त्री बुद्धदेव भट्टाचार्य भी चुनाव हार गये थे। मगर राजस्थान में इन सब नजीरों से अलग हट कर इस राज्य की जनता ने नया कीर्तिमान या रिकार्ड बनाया है। एक महीने पहले ही हुए चुनावों में इस प्रदेश की जनता ने भाजपा को 200 सदस्यीय विधानसभा में 115 सीटें देकर उसकी सरकार बनवाई और सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी को केवल 69 सीटें दीं। राज्य में भाजपा की श्री भजनलाल शर्मा के नेतृत्व में सरकार भी गठित हो गई। इस सरकार में श्री सुरेन्द्र सिंह टी.टी. को मन्त्री बनाया गया हालांकि उनकी करणपुर सीट पर कांग्रेस प्रत्याशी स्व. गुरुमीत सिंह कूनर की मृत्यु हो जाने की वजह से चुनाव मुल्तवी हो गया था। भजनलाल सरकार में वह स्वतन्त्र प्रभार राज्यमन्त्री बनाये गये। उन्हें चार-चार मन्त्रालय दिये गये जबकि वह विधायक भी नहीं बन पाये थे।
संवैधानिक रूप से इसमें कुछ भी गलत नहीं था क्योंकि भारत का संविधान कहता है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी राज्य सरकार में मुख्यमन्त्री या मन्त्री बन सकता है मगर छह महीने के भीतर उसे विधानसभा में चुन कर आना पड़ेगा। यदि वह एेसा नहीं कर पाता है तो उसकी कुर्सी जाती रहेगी। श्री सुरेन्द्र सिंह करणपुर सीट से भाजपा के प्रत्याशी तो थे ही। चुनाव आयोग ने जब इस सीट पर पिछली 5 जनवरी को मतदान कराया तो वह कांग्रेस प्रत्याशी रुपिन्दर सिंह कूनर से लगभग 12 हजार मतों से हार गये। रुपिन्दर सिंह कूनर स्व. गुरुमीत सिंह कूनर के सुपुत्र ही हैं। अतः राजस्थान की जनता ने किसी पदेन मन्त्री को चुनाव हरा दिया। करणपुर क्षेत्र की जनता ने सिद्ध कर दिया कि उस पर किसी प्रत्याशी के चुने जाने से पूर्व ही मन्त्री बन जाने का कोई असर नहीं पड़ता और वह पार्टी व प्रत्याशी का गुण-दोष देखकर ही अपना फैसला करेगी। राज्य के पूर्व मुख्यमन्त्री और कांग्रेस नेता श्री अशोक गहलोत ने अपने पार्टी प्रत्याशी की इस जीत को नैतिकता की जीत बताया है और कहा है कि भाजपा ने चुनावों के चलते ही अपने एक प्रत्याशी को मन्त्री बनाकर लोकतन्त्र के अनुरूप आचरण नहीं किया जिसे लोगों ने भी स्वीकार नहीं किया और करणपुर से उस व्यक्ति को हरा दिया जिसे आगे रखकर ऐसा काम किया गया था। परन्तु वास्तव में यह लोकतन्त्र और जनता की जीत है। लोकतन्त्र के बारे में राजनीतिक मनीषियों व दार्शनिकों की यह अवधारणा पूरी तरह सही है कि इसमें ‘निरापद’ कोई नहीं होता। जनतन्त्र में आखिर में जनता ही अन्तिम अदालत होती है। हमारा संविधान का ढांचा ही इस व्यवस्था को हर कदम पर बताता रहता है। अगर एक महीने बाद ही करणपुर की जनता यह सन्देश देती है कि उसकी पसन्द वह नहीं है जो मुख्यमन्त्री भजन लाल की है तो इसका मतलब यही निकलता है कि जनता ही असली मालिक है। लोकतन्त्र की व्याख्या जब एक कवि ने निम्न लिखित कविता के अनुसार की तो लोगों को लगा कि वे ही इसके असली मालिक हैं।
‘‘निरापद कुछ भी नहीं है चन्द्रगुप्त
जो था, वह भी नहीं है चन्द्रगुप्त
अब क्या करोगे चन्द्रगुप्त?
लो एक बीड़ी पियो चन्द्रगुप्त!’’
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com