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हरिद्वार से वैर के स्वर

भारत के सन्दर्भ में सर्वप्रथम यह समझने की जरूरत है कि इसकी प्राचीन संस्कृति में आदिकाल से ही लोकतन्त्र और धर्म निरपेक्षता का भाव अन्तर्निहित रहा है

भारत के सन्दर्भ में सर्वप्रथम यह समझने की जरूरत है कि इसकी प्राचीन संस्कृति में आदिकाल से ही लोकतन्त्र और धर्म निरपेक्षता का भाव अन्तर्निहित रहा है जिसका प्रमाण ‘ऋग वेद’ की वे ऋचाएं हैं जिनमें ईश्वर की सत्ता के बारे में तर्कपूर्ण विवेचना है और कहा गया है कि सृष्टि का निर्माणकर्ता ईश्वर है या इसके विपरीत ईश्वर की सत्ता प्रतिस्थापित की गई है। यदि ईसा से पूर्व के भारत के इतिहास का विश्लेषण करें तो ‘श्रमण’ संस्कृति व ‘सनातन’ संस्कृति के बीच वैर-भाव देखने को नहीं मिलता है। ये दोनों संस्कृतियां आज भी भारत में समानान्तर रूप से कायम हैं। विवाद आठवीं सदी के शुरू 712 में भारत के सिन्ध प्रान्त पर तत्कालीन मुस्लिम खलीफा के एक सूबेदार सिपहसालार मुहम्मद बिन कासिम के शासन से शुरू होता है जिसने वहां के हिन्दू राजा को परास्त करके रियासत हथियाई थी। भारत में इस्लाम धर्म के पदार्पण का यह मोटा इतिहास माना जाता है। यह समय इस्लाम धर्म के संस्थापक हजरत मोहम्मद साहब के स्वर्गवास के बाद के लगभग साठ वर्षों का है। मुहम्मद बिन कासिम के हमले की वजह उस समय सिन्ध में सक्रिय समुद्री लुटेरों का सफाया करना भी माना जाता है परन्तु इसके बाद भारत की सम्पदा और समृद्धि को देख कर मुस्लिम सुल्तानों का आक्रमण जारी रहा और उन्होंने इस देश की न केवल सम्पदा को लूटा बल्कि यहां की मानवीय सम्पत्ति को भी हथियाया और उसे अपने देश में स्थानान्तरित किया। 
15 वीं सदी के शुरू तक यह सिलसिला कमोबेश चलता रहा और अन्तिम सुल्तान इब्राहीम लोदी को हरा कर जब बाबर ने यहां मुगल वंश के राज की स्थापना की तो यह सिलसिला बन्द हो गया हालांकि उसके बाद कुछ समय के लिए शेरशाह सूरी (पठान) भी दिल्ली की गद्दी पर बैठा और उसने भारत के विकास की कई परियोजनाएं शुरू कीं जिनमें सबसे प्रमुख कोलकोता से पेशावर तक सड़क मार्ग का निर्माण माना जाता है। इसके बाद बाबर के पुत्र हुमायूं का शासन आया और उसकी मृत्यु के बाद जब अकबर इस देश का बादशाह बना तो उसने इस्लाम धर्म का पूरी तरह भारतीयकरण करने का प्रयास किया जिसे बाद में उसके प्रपौत्र औरंगजेब ने तहस-नहस कर डाला मगर दुर्भाग्य यह रहा कि मुगल बादशाहों में औरंगजेब का शासन ही सबसे लम्बी अवधि का रहा। अतः उसके शासन के दौरान उठाये गये मजहबी कट्टरपंथी कदमों के नक्श से भारत आज भी कभी-कभी कुलबुलाने लगता है। 
यह लम्बा इतिहास संक्षिप्त में लिखने का एक ही आशय है कि हम उस गंगा-जमुनी तहजीब की असलियत को समझें जिसके तहत 1857 में पहली बार भारत के हिन्दू-मुसलमानों ने इकट्ठा होकर तत्कालीम अंग्रेजी ‘ईस्ट इंडिया कम्पनी’ के निजाम के खिलाफ बगावत की थी और अन्तिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को भारत का शहंशाह घोषित किया था। बेशक धर्म की बुनियाद पर ही इसके बाद  1947 में मुहम्मद अली जिन्ना ने मुसलमानों को अलग कौम बता कर भारत से पाकिस्तान को अलग कर डाला मगर वह पंजाब व बंगाल के मुसलमानों के अलावा शेष भारत के मुस्लिमों के उस भारतीय जज्बे को नहीं तोड़ सका जो हिन्दोस्तानी तहजीब की वजह से उनकी रगों में समा चुका था। इसकी वजह यह थी कि भारत के 90 प्रतिशत से अधिक मुसलमान मूल रूप से भारतीय ही थे और मुसलमान होने के बावजूद इनकी रवायतों में हिन्दू संस्कृति दौड़ती थी। इसलिए भारतीय उपमहाद्वीप के हर मुसलमान को अगर हम ‘हिन्दू-मुसलमान’ भी कहें तो मुस्लिम उलेमाओं को ऐतराज नहीं होना चाहिए क्योंकि जब भारत के मुसलमान आज भी ‘मक्का-मदीने’ की जियारत करने जाते हैं तो उन्हें ‘हिन्दी’कहा जाता है। अतः हरिद्वार में पिछले दिनों जिस तरह कुछ उग्र हिन्दू साधूवेश धारी लोगों ने मुसलमानों के खिलाफ हिंसा करने की पैरवी की है वह पूरी तरह न केवल असंवैधानिक है बल्कि सदियों पुरानी कबायली मानसिकता की परिचायक भी है। 21वीं सदी का भारत कैसे भूल सकता है कि आजादी के बाद भारत के मुसलमानों ने एक से बढ़ कर एक देशभक्ति के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं और इस देश की आधारभूत अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने में अपना योगदान किया है परन्तु चुनावों से पहले जिस तरह के नजारे आम मतदाताओं को दिखाने के प्रयास किये जाते हैं उनसे सबसे बड़ा नुकसान आम भारतीय को ही होता है क्योंकि हिन्दू-मुस्लिम शिरकत से बना भारत का ग्रामीण रोजगार ढांचा कमजोर होने लगता है। 
भारत के लोकतन्त्र में प्रत्येक मतदाता की सत्ता में भागीदारी तय करने का उद्देश्य यही था कि जो भी सरकार बने वह केवल संविधान का पालन करते हुए ही शासन चलाये। मगर हो उल्टा रहा है। इत्तेहादे मुसलमीन के नेता असीदुद्दीन ओवैसी खुली चुनौती दे रहे हैं कि वे वक्त आने पर पुलिस तक को देख लेंगे। ऐसा  करके हम कुछ वोट जरूर बटोर सकते हैं मगर इसकी बुनियाद में राष्ट्र विरोधी कृत्य ही होगा। ठीक ऐसा ही हरिद्वार में दिये गये वक्तव्यों के मामले में भी है। दो सम्प्रदायों की धार्मिक पहचान का असल भारतीय पहचान से क्या मतलब हो सकता है ? और फिर इसका उनके संवैधानिक अधिकारों से क्या लेना-देना है। भारत की चुनाव प्रणाली किसी भी धर्म को मानने वाले व्यक्ति को किसी भी वैध राजनीतिक पार्टी से चुनाव लड़ने की इजाजत देती है। मगर चुनाव आते ही हम केवल सम्प्रदायों में ही नहीं बल्कि जातियों में भी बंट जाते हैं। जातिगत व सम्प्रदाय आधार पर गठजोड़ बनाने लगते हैं और भारतीयता को भूल जाते हैं। सभी हिन्दू-मुसलमानों को याद रखना चाहिए कि उनके धर्म अलग हो सकते हैं परन्तु सामाजिक रवायतें एक जैसी ही हैं। हकीकत तो यह है कि आज तक पाकिस्तान से भी इन रवायतों को नहीं मिटाया जा सका है जबकि वह एक इस्लामी देश है जिसका सबसे बड़ा प्रमाण इसके पंजाब व सिन्ध प्रान्त हैं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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