अब अपनी जिंदगी में महानायकों की तलाश छोड़ देना ही बेहतर होगा। अक्सर हर सुबह एक-दो खबरें ऐसी पढ़ने-सुनने को मिलती हैं कि जिस शख्स को हम बीती शाम तक अपना ‘आइकॉन’ आदर्श-नायक मान रहे थे, अगली ही सुबह गंभीर अपराधों में उसके आसपास छापों की खबरें मिलने लगती हैं। छापों की गिरफ्त में सिर्फ वे लोग नहीं हैं जो वर्तमान सत्तातंत्र के विरोधी हैं। वे लोग भी आ जाते हैं, जो सत्तातंत्र के करीबी होते हैं। छापों के मध्य कोई भी नहीं मानता कि उससे कुछ भूलें हुई हैं। वे लोग अपने विरुद्ध किसी भी जांच का खुलेमन से स्वागत भी नहीं करते। उनके बयानों में इतना ही होता है कि ‘छापे बदले की कार्यवाही’ हैं। यानि सभी को ऐसा लगता है कि उन्हें दबाने का प्रयास हो रहा है। अगर छापों की गिरफ्त में आने वाले सभी लोग मासूम हैं या कट्टर ईमानदार हैं तो वे किसी भी जांच का स्वागत क्यों नहीं करते?
आम आदमी का का संकट यह है कि आरोपों-प्रत्यारोपों की इस बौछार में उसे आभास भी नहीं हो पाता कि दोषी कौन है? सभी मासूम हैं या सभी साफ-सुथरे हैं तो हमारे सुखद माहौल का खून किसने किया है। हर सुबह किसानों के आंदोलन से जुड़ी खबरें नाश्ते में हमें मिलती हैं। साथ ही चिंता की लकीरें भी उभरने लगती हैं कि अपने दफ्तर या दुकान या क्लीनिक तक किस रास्ते से होकर जाना होगा। रास्तों पर या तो पुलिस तंत्र का पहरा है या आंदोलनकारियों का। मेहनत-मशक्कत करने वालों को तो अपने कारोबारी स्थल या दुकान-दफ्तर तक पहुंचने का कोई भी छोटा-मोटा रास्ता दे दें तो भी उनका काम चल जाएगा। मगर दोनों पक्षों की दलील है आपको छोटा-मोटा रास्ता दे दिया तो कानून व्यवस्था या शांति खतरे में पड़ जाएगी। दोनों पक्षों में से कोई भी मानने को तैयार नहीं। आम आदमी की शिकायत यही है-
मैं किसके हाथ पे,
अपना लहू तलाश करूं!
तमाम शहर ने पहने
हुए हैं दस्ताने
या फिर दुष्यंत याद आ जाते हैं-
‘आप बच कर चल सकें,
ऐसी कोई सूरत नहीं
रास्ते रोके हुए मुर्दे
खड़े हैं बेशुमार !!
आम आदमी नहीं जानता ‘एमएसपी’ क्या होता है। गांवों का 88 फीसदी कृषि मजदूर या छोटा किसान भी नहीं जानता कि ‘एमएसपी’ नाम की हल्दी की इस गांठ से उसका नसीब कैसे चमकेगा? छोटी-मोटी खेती से उसका तो सिर्फ घर-खर्च ही चल पाता है। किसी बुरे दिन या संकट के लिए उसकी जेब खाली ही रहती है। विकल्प के रूप में उसके सामने सिर्फ कर्ज का रास्ता खुला होता है या फिर खुदकुशी का या घर से भाग जाने का। अब सरकारें भी कब तक कर्जा माफी कर पाएंगी। सब फसलों पर एमएसपी दी तो सरकारें अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से कर्जें लेंगी।
देश के मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस, उत्तर प्रदेश की सपा, बिहार की जदयू, तमिलनाडु की द्रमुक, उड़ीसा की बीजेडी, बंगाल की तृणमूल कांग्रेस आदि अन्य सभी क्षेत्रीय दलों में भीतर ही भीतर भी असंतोष तो उमड़ रहा है। कांग्रेस का एक बड़ा वर्ग भीतर ही भीतर राहुल गांधी को बोझ मानता है। यही स्थिति सभी दलों के भीतर है। सत्तापक्ष में भी किसी न किसी बात को लेकर असहमतियां तो उठती हैं। मगर वहां पर दलगत अनुशासन के दृष्टिगत अपनी बात दबे स्वर या सुझावात्मक रूप में ही कह ली जाती है। बात सुन भी ली जाती है। लेकिन इन सारी भीतरी विसंगतियों के बावजूद देश में लोकतंत्र जि़ंदा है, हालांकि किसी सर्वमान्य महानायक का नज़र आना खटकता है।
प्रधानमंत्री से आप किसी बात पर असहमत भले ही हों लेकिन इस बात पर देश का एक बड़ा वर्ग सहमत है कि यह व्यक्ति संकल्प लेता है तो विरोधी स्वरों के बावजूद वे संकल्प पूरे कर दिखाता है। कभी-कभी कुछ प्रतिपक्षी नेताओं के प्रति सद् व्यवहार का तौर-तरीका भी दिखाता है। अयोध्या, वाराणसी जाता है तो कांग्रेस के पूर्व प्रवक्ता आचार्य प्रमोद कृष्णन के कल्कि धाम भी हो आता है। खाड़ी के मुस्लिम देशों के बीच भी उसने सम्मान कमाया है। लेकिन पड़ौसी देशों पाकिस्तान, श्रीलंका, बर्मा आदि के साथ रिश्तों की सामान्य बहाली अभी नहीं हो पाई। यह शख्स आने वाले समय में शरद पवार, वाईएसआर और द्रमुक-नेतृत्व के साथ भी सौहार्द के द्वार खोल सकता है। केवल केजरीवाल, सोनिया-परिवार, ममता बनर्जी, अखिलेश यादव-परिवार ही ऐसे हैं जिनमें फिलहाल सेंध लगा पाना या सौहार्द की दस्तक बिछा पाना मुमकिन नहीं है उसके लिए।
मगर आने वाले वक्त का कोई सही अनुमान ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ वाले भी नहीं लगा पाएंगे। मोदी है तो मुमकिन है, वाला मुहावरा अभी भी प्रासंगिक है। इन सब सुखद संकेतों के बावजूद किसी न किसी कारण से हताशाएं तो उमड़ती रहती हैं। उल्टे-सीधे बयान, चरित्रहरण के प्रयास, चौतरफा ज़हरीले बयानों की बारिश डराती है कि आगे क्या? डर लगता है कि वैकल्पिक नेतृत्व कहां से आएगा। सोनिया-राहुल की अनुपस्थिति में कांग्रेस के पल्ले क्या बचेगा।
भाजपा में मोदी-अमित शाह के विकल्प के रूप में थोड़ा संकट तो होगा, हालांकि संघ-नेतृत्व भविष्य के बारे में सदा सचेत रहता है। कुल मिलाकर स्थिति यही है कि बड़ी-बड़ी विकास योजनाओं, मजबूत अर्थव्यवस्था, सुदृढ़ प्रतिरक्षा और सफल विदेश नीति के बावजूद शांति, सौहार्द, सहिष्णुता का माहौल बन नहीं पा रहा। किसी ठोस कारण के बारे में भी साफ-साफ सपाट बयानी मुमकिन नहीं। जहरीली बारिश, ‘अमृत महोत्सव’ के बावजूद जारी है। इस माहौल को अपने-अपने स्तर पर रोकने का प्रयास सभी को करना होगा, वरना आने वाली नस्लों को दमघोंटू माहौल देने का आरोप हमारी वर्तमान पीढ़ी पर लगेगा। फिर हम धर्मवीर भारती को दोहराने पर मजबूर होंगे :-
हम सब के दामन पर दाग,
हम सब के माथे पर शर्म।
हम सब की आत्मा में झूठ,
हम सबके हाथों में टूटी
तलवारों की मूंठ
हम सब सैनिक अपराजेय…
– डॉ. चंद्र त्रिखा