चौतरफा सुखों, सुविधाओं, विकास योजनाओं की बारिशें हो रही हैं। सिर्फ एक क्लिक पर सभी सूचनाएं, सभी सुविधाएं। मगर सुकून कहां है? चौतरफा सूचना-क्रांति का धमाल मचा है। ‘आर्टिफिशियल-इंटेलिजेंस’ यानि कृत्रिम मेधा (छोटा नाम एआई), ‘डीपफेक’ की सुविधा, आसपास फैला इंटरनेट, गूगल आदि का जाल, मगर मन अशांत है। आध्यात्मिक चर्चाएं भी बढ़ गई हैं। ‘गॉडमैन’ बढ़ते जा रहे हैं। हर चौक-चौराहे, कस्बे, शहर में कथाएं आयोजित हो रही हैं। कवि सम्मेलन, मुशायरे, नाटक सब कुछ ‘ऑनलाइन’ उपलब्ध है। यानि जो-जो भी इस ब्रह्मांड में संभव है, परोसा जा रहा है।
मगर संतोष का भाव किसी भी चेहरे पर मौजूद नहीं है। कोई भी खुलकर खिलखिलाता, हंसता खेलता दिखाई नहीं देता। नए-नए अस्पताल खुल गए है, सिर्फ मृत्यु के अलावा सभी बीमारियों का इलाज उपलब्ध है। पैसा नहीं है तो बीमा योजनाएं निरंतर मोबाइल पर और आपके द्वार पर दस्तकें बिछाए हुए हैं, मगर अधिकांश चेहरे मुरझाए से बीमार दिखाई दे रहे हैं।
आपको यह भी सुविधा है कि आप किसी भी वारदात को गंभीरता से न लें। संसद की गरिमा पर हमला हुआ है तो मन को न लगाएं। अगले ही पल कोई नई वारदात हो सकती है। आप पिछली वारदात को हाशिए पर रखनेे के लिए विवश हो जाएंगे। आखिर कितनी घटनाओं, वारदातों, खबरों से रोज-रोज रुबरु होते रहेंगे।
इसी बीच एक नया शब्द हमारे रोजमर्रा के आलोचकों ने गढ़ डाला है। वह शब्द है ‘आंदोलनजीवी’। यह शब्द प्रतिपक्षियों पर चस्पां होता है। यानि हर नारेबाज़, हड़ताली, धरना-प्रदर्शन में लगा व्यक्ति या नेता ‘आंदोलन जीवी’ है। आने वाले समय में क्या-क्या नए शब्द आएंगे, कुछ पता नहीं।
संकट सिर्फ इस बात का है कि इस धमाचौकड़ी में हम धीरे-धीरे संवेदनहीन होते जा रहे हैं। हर नेता अपना नाम, अपना चित्र व अपनी प्रशस्ति, मीडिया में देखना चाहता है। इसके लिए यदि जेब भी हल्की करनी पड़े तो उसे संकोच नहीं होता।
इस समय हमारे अपने देश में यू-ट्यूब और अपने-अपने ‘सोशल-मीडिया’ का प्रयोग करने वालों की संख्या 8 करोड़ तक पहुंच चुकी है। इनमें 1.5 लाख यू-ट्यूबर्स ऐसे हैं जिन्हें अपने-अपने चैनल से कुछ कमाई भी हो जाती है। इन डेढ़ लाख कमाऊ यू-ट्यूबर्स को भी प्रति माह औसतन 16 हज़ार से 20 हज़ार रुपए तक विज्ञापनों के माध्यम से मिल जाते हैं।
इन 8 करोड़ सोशल मीडिया ‘एक्टिविस्ट’ में ब्लॉगर्स भी शामिल हैं, ओटीटी प्लेटफार्म वाले भी शामिल हैं। यानि यह तथ्य उभरकर सामने आ चुका है कि हमारे देश में सोशल मीडिया अन्य देशों की अपेक्षा अधिक ‘ब्लागर्स’ और ‘यू-ट्यूबर्स’ हैं। मगर अभी तक इन पर न तो कोई अंकुश है और न ही कोई कानूनी प्रावधान।
इतना तकनीक-प्रधान होते हुए भी देश में रचनात्मक जागरुकता गायब है। इसका सदुपयोग हो और सही दिशा बोध हो तो देश में सूचना क्रांति व बौद्धिक-क्रांति का एक नया अध्याय खुल सकता है। मगर इस समय इनका जमकर दुरुपयोग हो रहा है और सबसे बड़ी आशंका यही है कि अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनावों में इनका खुलकर दुरुपयोग होगा। खतरा यह भी है कि इनके माध्यम से सामाजिक घृणा और साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने के प्रयास भी हों।
अतीत में कमोबेश सभी राजनैतिक दल चुनावों से पूर्व अपने-अपने ‘वार-रूम’ स्थापित करते रहे हैं। इन केंद्रों में कुप्रयास, मिथ्या प्रचार और एक-दूसरे के विरुद्ध ज़हरीला अभियान, चरित्र हनन सब चलता रहा है। इस बार यह खतरा ज्यादा गंभीर है। अब ‘डीपफेक’ और ‘आर्टिफिशियल-इंटेलिजेंस’ के माध्यम से मतदाताओं को असंख्य झूठ परोसे जाने की तैयारियां आरंभ हो चुकी हैं। ऐसी स्थिति सुखद नहीं है। हाल ही में ‘संसद’ में घटी घटना के संदर्भ में हम देख चुके हैं कि अपने देश में ऐसे दलों, ऐसे राजनीतिज्ञों व संगठनों की संख्या भी कम नहीं है जो संसद की गरिमाओं को तार-तार करने वालों के पक्ष में खड़े हो रहे हैं। उन्हें बेतुकी दलीलों के कवच पहनाए जा रहे हैं। ऐसी स्थिति से बचाव आवश्यक है क्योंकि यह स्थिति किसी भी राज्य में या केंद्र में किसी भी सरकार के समक्ष कभी भी पैदा हो सकती है। ऐसे माहौल में मिजर्ा गालिब की बात अनायास याद हो आती है-
मैंने मजनूं पे, लड़कपन में ‘असद’
संग उठाया था कि शेर याद आया
अर्थात् ‘मजनूं’ पर पत्थर फैंकने के लिए जब हाथ उठा, तभी याद आ गया कि ऐसा वक्त भी आ सकता है, जब मेरे सर पर भी लोग पत्थर बरसाने पर आमादा हो जाएं। कमी अखरती है तो इस बात की कि नेतागण, राष्ट्र की अस्मिता के बारे में भी आम सहमति बनाने से परहेज़ करते हैं। ऐसी स्थिति देश की अखण्डता, गरिमा व लोकतंत्र के चारों स्तम्भों के लिए खतरनाक है।
– डॉ. चंद्र त्रिखा
chandertrikha@gmail.com