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एग्जिट पोल की उपयोगिता?

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणामों के बारे में ‘एग्जिट पोल’ ने जो भविष्यवाणी की है उसकी सत्यता का पता कल रविवार को ही चल जायेगा मगर जिस प्रकार नतीजों को लेकर विभिन्न पोलों के बीच ही भिन्नता बनी हुई है उसे देख कर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि परिणाम जानने के लिए कोई वैज्ञानिक तरीका एग्जिट पोल करने वाली इन संस्थाओं के पास नहीं है। विज्ञान में किसी समीकरण का परिणाम अंत में एक ही आता है चाहे उसे हल करने के तरीके अलग-अलग ही क्यों न हो। हकीकत यह है कि संसदीय प्रणाली की चुनाव प्रणाली में नतीजे जानने का तरीका केवल एक ही होता है और वह होता है अनुभवी व निष्पक्ष पत्रकारों की पारखी आंख-कान व बुद्धि। मतदाताओं के नमूने लेकर उनसे सवाल-जवाब करने से उनके मन के भेद को जानना संभव नहीं होता, इसीलिए एग्जिट पोल के नतीजे अधिकतर गलत ही निकलते हैं जबकि ये अपने नतीजों में पांच प्रतिशत से भी अधिक का गलत-सही का ‘मिजान’ लगा कर चलते हैं। लेकिन इसके बावजूद ये जमीन की ‘हकीकत को ख्वाब’ बनाकर भी कभी-कभी पेश कर देते हैं।
उदाहरण के लिए अगर हम मध्य प्रदेश के चुनाव नतीजों को लें तो पांच एग्जिट पोल अलग-अलग परिणाम इस तरह बता रहे हैं कि एक भाजपा को ‘चांद’ तोड़कर दे रहा है तो दूसरा तारे उसकी गोदी में ‘सितारे’ डाल रहा है जबकि तीसरा उसे ‘आसमान’ पर बैठा रहा है और चौथा ‘सान्त्वना’ देता लग रहा है और पांचवां उसके ‘होश’ ही उड़ा रहा है और बता रहा है कि सरकार बनाने के सपने छोड़कर विपक्ष में बैठने की तैयारी करो। आखिरकार इसका क्या मतलब दर्शक और पाठक निकालेंगे? पांचों एग्जिट पोल में छत्तीसगढ़ व तेलंगाना में कांग्रेस की सरकार बनने की भविष्यवाणी की है। इस मामले में सभी में एकता इस वजह लगती है कि दोनों राज्यों की जमीनी चुनावी माहौल चीख-चीख कर कांग्रेस की हवा बता रहा है। जिसका अनुमान सामान्य मतदाता भी आसानी से लगा सकता है। तेलंगाना में तो गजब का माहौल बना हुआ है जहां मुख्यमन्त्री के. चन्द्रशेखर राव के पिछले दस साल के शासन के खिलाफ बगावत जैसा वातावरण बना हुआ है। छत्तीसगढ़ में भी यहां के कांग्रेसी मुख्यमन्त्री भूपेश बघेल की जो जन कल्याणकारी योजनाएं पिछले पांच सालों में चली हैं उनकी वजह से उनकी सरकार के पक्ष में ही हवा बहती नजर आ रही है।
असल में भारत की चुनाव प्रणाली में एग्जिट पोल का न कोई अर्थ है और न उनकी कोई उपयोगिता है। मतदान समाप्त होने से लेकर चुनाव परिणाम घोषित होने के दिन के बीच जो ‘खाली स्थान’ बना रहता है उसे भरने का काम ही एग्जिट पोलों के नतीजे करते हैं और टीवी चैनलों पर कुछ दिन के लिए शोर- शराबा और आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलने के साथ ही ‘बुद्धि विलास’ भी चलता रहता है। इसलिए एग्जिट पोल का एक मात्र उद्देश्य ‘समय बिताने के लिए अन्ताक्षरी’ खेलने से ज्यादा नहीं लगता है। इस अन्ताक्षरी प्रतियोगिता में टीवी चैनलों में प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी राजनैतिक दलों के नेताओं के साथ कुछ स्वनामधन्य पत्रकार भी बैठकर एक-दूसरी पार्टी के खेल में पार्टियां बनकर अपने-अपने गान सुनाते रहते हैं और जनता का मनोरंजन होता रहता है। एग्जिट पोल की स्थिति यदि मनोरंजन का साधन जुटाने के सामन के रूप में हो रही है तो उनकी ‘गंभीरता’ का अन्दाजा आसानी से लगाया जा सकता है। एग्जिट पोल राजस्थान के परिणामों को लेकर भी खासा मनोरंजक दृश्य प्रस्तुत कर रहे हैं। पांचों पोल भाजपा को 80 से लेकर 128 सीटें तक देने का हिसाब अलग-अलग कोण से दे रहे हैं। इसका मतलब एक मानता है कि स्पष्ट बहुमत भाजपा के पास आयेगा, दूसरा मानता है कि वह अल्पमत में बैठेगी, तीसरा मानता है कि त्रिशंकु विधानसभा बनेगी और चौथा व पांचवां भी इन दोनों का औसत निकाल कर कांग्रेस व भाजपा को सीटें बांट रहा है। मगर एग्जिट पोल असली नतीजे आने से पहले अपने परिणाम देकर राजनैतिक दलों के बीच कड़वाहट को घोलने का काम भी करते हैं क्योंकि असली नतीजों में पाले बदल जाने से सत्ताधारी व विपक्षी दल के बीच कड़वाहट का भाव पैदा होने की संभावना बढ़ ही जाती है। जबकि लोकतन्त्र में राजनैतिक दल अपनी हार व जीत दोनों ही मतदाताओं का आशीर्वाद समझकर स्वीकार करते हैं और जनादेश के अनुसार विधानसभा में पहुंच कर व्यवहार करते हैं। जहां तक जनादेश का सवाल है तो हमें विधानसभा चुनावों में अन्य राज्यों में जनता द्वारा दिये गये जनादेश पर निगाह डालनी चाहिए।
पिछले दिनों कर्नाटक, हिमाचल व गुजरात के चुनावों में जनता ने स्पष्ट जनादेश दिया और त्रिशंकु विधानसभा की संभावनाओं को नकारा। इससे यह तो अंदाजा लगाया ही जा सकता है इन पांच राज्यों में भी मतदाता किसी एक दल को पूर्ण बहुमत देकर स्थायी सरकार बनाने का जनादेश देंगे। परन्तु असली चुनाव नतीजे आने से पहले एग्जिट पोल अपने नतीजे देकर सामान्य नागरिक मतदाता को भी चुनौती देने का काम परोक्ष रूप से करते हैं इसीलिए बहुत से देशों में इन पर प्रतिबन्ध है। सबसे बड़ी बात है कि जो संस्थाएं पोल करती हैं उनकी विश्वसनीयता का पैमाना क्या है? क्या इनके पिछले एग्जिट पोल सही निकले हैं? इस बात की क्या गारंटी है कि उनके निकाले गये नतीजों का मनोवैज्ञानिक दुष्प्रभाव मतदाताओं पर नहीं पड़ेगा? क्या राजनैतिक दल अपने-अपने पक्ष में इन्हें प्रायोजित नहीं करा सकते? सवाल बहुत से उठाये जा सकते हैं।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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