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‘इंडिया’ गठबंधन की राहें ?

लोकतान्त्रिक प्रणाली की शासन व्यवस्था की सफलता की एक प्राथमिक शर्त यह भी होती है कि विपक्ष सर्वदा मजबूत रहे और जनता के सामने कभी भी विकल्पों की कमी न हो। लोकतन्त्र का दूसरा नाम विकल्प चुनने की आजादी का भी होता है

लोकतान्त्रिक प्रणाली की शासन व्यवस्था की सफलता की एक प्राथमिक शर्त यह भी होती है कि विपक्ष सर्वदा मजबूत रहे और जनता के सामने कभी भी विकल्पों की कमी न हो। लोकतन्त्र का दूसरा नाम विकल्प चुनने की आजादी का भी होता है जिससे शासन प्रणाली में लगातार शुचिता बनी रहे। इसीलिए लोकतान्त्रिक व्यवस्था को दुनिया की सर्वश्रेष्ठ शासन व्यवस्था माना जाता है। इसके मूल में वह तन्त्र होता है जिसके तहत ‘कुदाल’ लेकर जमीन की खुदाई करने वाले औऱ अपने ‘निजी विमान’ से आसमान में उड़ने वाले व्यक्ति के अधिकार भी एक समान होते हैं क्योंकि दोनों के वोट का मूल्य बराबर ही होता है। आजाद भारत में स्वतन्त्रता सेनानियों ने अंग्रेजों से संघर्ष करके उन्हें बाहर निकालने के बाद देशवासियों को यह सबसे बड़ा अधिकार दिया जिसे संविधान निर्माता डा. बाबा साहेब अम्बेडकर ने ‘राजनैतिक स्वतन्त्रता’ का नाम दिया। हमारे संविधान निर्माताओं ने हर पांच वर्ष बाद चुनाव की जो व्यवस्था की उसका मन्तव्य हर हाल में देश में लोकोन्मुखी शासन इस तरह कायम करने का था कि सत्ता में आये किसी भी राजनैतिक दल को कभी भी स्वयं के ‘स्वयंभू’ होने का विचार सपने में भी न आ सके। अतः किसी भी राजनैतिक दल को केवल जनता से शक्ति प्राप्त करने के लिए बांध दिया गया और जनता को लोकतन्त्र का मालिक घोषित कर दिया गया। पूरी प्रक्रिया में जनता की वोट की ताकत को स्थिरांक (कांस्टेंट) बना कर राजनैतिक दलों की ताकत को अस्थिर (वेरियेबल) बनाया गया। जरा कोई सोचे कि क्या इससे बेहतर भी कोई शासन प्रणाली हो सकती है? अतः 2024 के चुनावों की तैयारी के लिए विपक्ष की जिन 28 पार्टियों के गठबन्धन ‘इंडिया’ का जो दो दिवसीय सम्मेलन मुम्बई में चल रहा है उसे हमें इसी पृष्ठभूमि में देखना होगा।
लोकतन्त्र में सत्तारूढ़ पार्टी की जगह लेने के लिए विपक्षी दल हमेशा कवायद करते रहते हैं। यदि एेसा न होता तो हम पिछले 76 वर्षों के दौरान केन्द्र में सत्ता में आयी विभिन्न राजनैतिक पार्टियों का शासन भी न देखते। ‘इंडिया’ गठबन्धन और इसके जवाब में 38 राजनैतिक दलों के सत्तारूढ़ गठबन्धन ‘एनडीए’ को हमें इसी नजरिये से देखना होगा। इंडिया में जहां कांग्रेस सबसे बड़ी एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी है वहीं एनडीए में भाजपा की यही स्थिति है। बेशक दो गठबन्धन अस्तित्व में हैं परन्तु व्यावहारिक तौर पर हमें असली लड़ाई कांग्रेस व भाजपा में ही देखने को मिलेगी हालांकि कांग्रेस की ताकत विभिन्न मजबूत क्षेत्रीय दलों ने किसी हद तक हजम कर रखी है परन्तु जमीन पर इस वास्तविकता को देखते हुए ही विभिन्न विपक्षी दलों ने एकजुट होने का फैसला किया है जबकि दूसरी तरफ भाजपा की अपनी निजी ताकत में ही गुणात्मक वृद्धि हुई है और इसके विभिन्न सहयोगी दल हाशिये पर ही जोर आजमाइश करने वाली पार्टियां हैं। विपक्षी दलों के गठबन्धन का मुख्य कारण भी यही है। इंडिया गठबन्धन के सामने सबसे बड़ी समस्या यह है कि विभिन्न मजबूत क्षेत्रीय दलों के बीच भिन्न-भिन्न विचारधाराओं का समन्वय किस प्रकार हो जिससे भाजपा के समक्ष एक ठोस विमर्श खड़ा किया जा सके औऱ आम जनता को आश्वस्त किया जा सके कि सत्ता में पहुंचने पर उनके बीच विचारधारा का संकट नहीं रहेगा और वे सभी एक तयशुदा कार्यक्रम के तहत काम करेंगे। अतः गठबन्धन के लिए न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार करना पहली वरीयता होगी। इसके साथ ही इंडिया की एकता इस बात पर निर्भर करेगी कि इसके अलग-अलग पार्टी के नेता जनता के बीच एक ही जबान में बोलें अर्थात उनका एक संयुक्त निर्विवादित एजेंडा हो। इसमें शामिल दलों की पहचान बेशक अलग हो सकती है मगर जनता उनकी पैमाइश एक ही तरीके से करे। यह कार्य निश्चित रूप से किसी कद्दावर नेता को गठबन्धन का ‘संयोजक’ बनाये बिना नहीं हो सकता।
इंडिया के पास एेसे केवल दो ही नेता हैं। एक तो कांग्रेस अध्यक्ष श्री मल्लिकार्जुन खड़गे और दूसरे राष्ट्रवादी कांग्रेस के अध्यक्ष श्री शरद पवार। दोनों जमीनी नेता हैं और आम जनता के बीच संघर्ष करके शिखर तक पहुंचे हैं हालांकि सुश्री ममता बनर्जी को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है परन्तु उनकी पहुंच बांग्लाभाषियों में सिमटी हुई है। सबसे बड़ी समस्या लोकसभा के टिकट बंटवारे की है। इस बारे में एक नजीर 1977 की हमारे सामने है। उस समय विपक्षी खेमे में आज की सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा भी शामिल थी। विपक्षी गठबन्धन के सिर पर जयप्रकाश नारायण व अचार्य कृपलानी जैसे नेताओं का साया भी था परन्तु विपक्षी गठबन्धन के प्रत्याशियों को टिकट बांटने का काम स्वयं चौधरी चरण सिंह को दिया गया था। हमें मालूम है कि दक्षिण भारत में इंडिया की स्थिति मजबूत नजर आ रही है अतः असली चुनौती उत्तर-पूर्व व पश्चिम भारत में ही है।
आचार्य कृपलानी ने चौधरी चरण सिंह को टिकट देने का प्रभारी इसलिए बनाया था क्योंकि तब के विपक्षी गठबन्धन को दक्षिण भारत से ज्यादा उम्मीद थी। आज की परिस्थिति इसके ठीक उलट है। विपक्षी गठबन्धन को उत्तर भारत में ही भाजपा का कड़ा मुकाबला करना होगा। अतः चुनावी माहौल को वहीं नेता सूंघ सकता है जो जमीन पर संघर्षरत रहा हो खास कर मजदूर, किसान व गरीब वर्ग के लोगों की राजनैतिक मानसिकता का अन्दाजा लगा सकता हो। ये चुनाव राष्ट्रीय होंगे अतः राष्ट्र स्तर पर भी उसे सम्मान की नजर से देखा जाता हो। यह चुनौती बहुत बड़ी है। इसका समाधान इंडिया को जल्दी ही निकालना होगा। जहां तक इंडिया गठबन्धन के एकल नेतृत्व का सवाल है तो संसदीय लोकतन्त्र में यह इसलिए खड़ा हो रहा है क्योंकि प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता पर भाजपा को पूरा भरोसा है परन्तु भारत में 543 लोकसभा सीटों पर व्यक्तिगत रूप से चुनावी हार-जीत होती है और दलगत आधार पर होती है। इंडिया को लगता है कि उसके पास प्रधानमन्त्री पद के दावेदार नेताओं की कमी नहीं है परन्तु अन्ततः चुनावों के बाद नेतृत्व उसी नेता को मिलेगा जिसकी पार्टी के सांसदों की संख्या सर्वाधिक होगी। हालांकि यह कोई सुनिश्चित नियम नहीं है। इसलिए विपक्ष के लिए रास्ता बहुत कंकटाकीर्ण है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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