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हम सब हिन्द के वासी

हम भारतवासियों के लिए स्वतन्त्रता के बाद से देश का संविधान ऐसी पुस्तक रही है जिसका स्थान किसी भी धार्मिक पुस्तक से बहुत ऊपर रहा है क्योंकि हमारा संविधान भारत राष्ट्र की परिभाषा जब परिभाषित करता है

हम भारतवासियों के लिए स्वतन्त्रता के बाद से देश का संविधान ऐसी पुस्तक रही है जिसका स्थान किसी भी धार्मिक पुस्तक से बहुत ऊपर रहा है क्योंकि हमारा संविधान भारत राष्ट्र की परिभाषा जब परिभाषित करता है तो इसकी भौगोलिक भूमि की ही बात नहीं करता बल्कि इसमें रहने वालों की बात भी करता है और ये लोग विभिन्न धर्मों व मतों को मानने वाले हैं और इनकी सांस्कृतिक विविधता भी समूचे भारत में फैली हुई है,  इसके बावजूद ये सभी भारतीय हैं और अपने धर्मों के अनुसार निजी जीवन भी गुजारते हैं। इसका मतलब यही होता है कि प्रत्येक हिन्दोस्तानी की पहली पहचान भारतीय है। मगर हम यह भी जानते हैं कि 1947 में धर्म को आधार बना कर ही मुहम्मद अली जिन्ना ने भारत  मुसमानों को इस हद तक बरगलाया और पथ भ्रष्ट किया कि वे अपनी भारतीय पहचान को पीछे करके पहले मुसलमान होने का दावा करने लगे और इसके आधार पर ही अलग राष्ट्र की मांग करने लगे। दरअसल यह जिन्ना का वह अस्त्र था जिसने भारतीयता को बीच से चीरने का काम किया और उसने यह काम मुस्लिम उलेमाओं या मुल्ला-मोलवियों की मदद से ही किया जिनमें इस्लाम के वरेलवी स्कूल के मौलाना सबसे आगे थे। इन्होंने मुसलमानों की भारतीय समाज में अलग पहचान बनाने के लिए धर्म का जमकर इस्तेमाल किया।
 स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान महात्मा गांधी के नेतृत्व में जब कांग्रेस आन्दोलन चला रही थी तो इसमें उस समय भारत की आबादी  लगभग 26 प्रतिशत मुसमानों की भागीदारी भी इस आन्दोलन में बहुत जरूरी थी जिसकी वजह से कांग्रेस पार्टी के 1931 में हुए कराची सम्मेलन में अंग्रेजों से पूर्ण स्वतन्त्रता की मांग के बाद इसमें भारतीय नागरिकों को मूलभूत अधिकार या मानवीय निजी नागरिक अधिकार देने का प्रस्ताव पारित किया गया। यह सम्मेलन शहीद-ए-आजम भगत सिंह को फांसी पर लटकाये जाने के बाद हो रहा था। इसकी अध्यक्षता सरदार बल्लभ भाई पटेल ने की थी। नागरिक अधिकारों के प्रस्ताव को पारित करते हुए इस सम्मेलन में मुसलमान नागरिकों के लिए यह छूट दी गई कि उनका इस्लामी शरीयत कानून उनके घरेलू मामलों में काबिज रहेगा जबकि अन्य सभी दूसरे मामलों में उन पर सरकार द्वारा बनाये गये कानून ही लागू होंगे और उनके समाज के हर सदस्य को भी निजी स्वतन्त्रता का अधिकार होगा जिसका दायरा सरकारी कानून होंगे। कांग्रेस ने महात्मा गांधी के निर्देशन में मुसलमानों को यह विशेष छूट इसलिए दी थी जिससे वे राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन हिन्दुओं व समाज के अन्य लोगों के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर अंग्रेजों के खिलाफ चलाई जा रही तहरीक में शामिल हो सकें और मुस्लिम लीग के बहकावे में न आयें। बाद में 1919 में सिखों के साथ भी अंग्रेजों ने यही किया। इसी तर्ज पर अंग्रेज बाद में दलितों का भी अलग निर्वाचन मंडल करना चाहते थे जिसका विरोध महात्मा गांधी ने पुरजोर तरीके से किया था और दलितों को हिन्दू समाज का ही अभिन्न अंग बताया था और इसी वजह से उन्होंने दलितों को समाज में सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए उन्हें हरिजन कहा और हिन्दू समाज में जातिवाद समाप्त करने का आन्दोलन भी चलाया और अछूत कहे जाने वाले लोगों के लिए एक समान धार्मिक अधिकारों को भी दिलाया। अतः 1932 में महात्मा गांधी व दलितों के नेता डा. भीमराव अम्बेडकर के बीच पूना में जो समझौता हुआ उसमें बापू ने डा. अम्बेडकर को आश्वासन दिया।
 स्वतन्त्र भारत में दलितों को विभिन्न स्तर पर आरक्षण दिया जायेगा जिससे उनका सामाजिक व आर्थिक उत्थान हो सके और अस्पृश्यता को जड़ से समाप्त किया जा सके। अतः भारत का जो संविधान बना उसमें ये सभी शर्तें लागू भी हुईं परन्तु भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू से आजादी मिलने के बाद एक बहुत बड़ी चूक हो गई कि उन्होंने भारत में बचे मुसलमानों के लिए कांग्रेस के 1931 में पारित किये गये प्रस्ताव को ही लागू करने का फैसला किया जबकि 1947 में पाकिस्तान बनने के साथ ही भारत स्वतन्त्र हुआ। बेशक पं. नेहरू धर्म निरपेक्षता के बहुत बड़े अलम्बरदार थे और स्वतन्त्र भारत की सरकार का कोई भी धर्म नहीं चाहते थे मगर उन्होंने इसी धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के तहत मुसलमानों को विशेष छूट देने का फैसला किया जिससे भारत की धर्मनिरपेक्ष एकाकार में ऐसी नहीं बन सकी क्योंकि मुस्लिम नागरिकों को अपने घरेलू नागरिक मामलों में अपनी धर्म पुस्तिका के अनुसार चलने की छूट थी। एक समान नागरिक आचार संहिता का लागू न किया जाना भी यही बताता है। जबकि डा. अम्बेडकर ने इस तरफ 1941 में ही ध्यान दिलाया था और लिखा था कि मुस्लिम समाज को दकियानूसी प्रथाओं से उसी तरह आजाद करने की जरूरत है जिस तरह हिन्दू समाज को। बल्कि हिन्दू समाज ने तो स्वयं में सुधार करने की गरज से कई सामाजिक आन्दोलन भी चलाये थे। हम जो आज कर्नाटक में स्कूली छात्रों के हिजाब पहनने के आन्दोलन को इस्लामी रंग देने की कोशिशें देख रहे हैं वे हमारी गलत नीतियों का नतीजा कही जा सकती हैं अतः देश के प्रत्येक राजनीतिक दल को मुसलमानों का समर्थन प्राप्त करने के लालच में एक और एतिहासिक गलती नहीं करनी चाहिए क्योंकि हम सभी हिन्द के वासी हैं और हिन्द का संविधान हमारा ईमान है।

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