दिल्ली में मतदान सम्पन्न हो गया है और राजधानी के सजग मतदाताओं ने अपना जनादेश ईवीएम मशीनों में बन्द कर दिया है। चुनाव परिणाम क्या होंगे इस बारे में 11 फरवरी को साफ हो जायेगा परन्तु विभिन्न एक्जिट पोल के नतीजों के बारे में जिक्र करना इसलिए उचित नहीं है क्योंकि ये सिर्फ कयास पर ही निर्भर हैं। इस बारे में बेशक बहस हो सकती है कि मतदान का प्रतिशत औसत ही क्यों रहा ? यह भी शीशे की तरह साफ है कि दिल्ली के चुनाव अभी तक के स्वतन्त्र भारत के चुनाव में सबसे ज्यादा ‘कसैले’ वातावरण में सम्पन्न हुए हैं जिनमें इस महानगर के मूल चरित्र के विरुद्ध आख्यान होते रहे हैं। चुनावी मैदान में ऐसी कशीदगी की हिमायत दिल्ली वालों ने कभी नहीं की और हर वातावरण में खुद को एक ‘नागरिक’ की हैसियत में ही देखा। हकीकत यह है कि भारत का संसदीय लोकतन्त्र एक नागरिक या मतदाता के निजी विकास की आधारभूमि पर खड़ा हुआ है।
अतः संविधान प्रत्येक नागरिक को वैयक्तिक आधार पर अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के साथ ही धार्मिक स्वतन्त्रता देने की गारंटी उसके स्वाभिमान को बरकरार रखते हुए देता है परन्तु अक्सर देखा गया है कि चुनावी बाजियों में इस तरह चौसर बिछाई जाती है जिसमें नागरिकों के निजी अस्तित्व की ऊष्मा को निष्प्रभ करते हुए राजनीतिज्ञ उन्हें अपने मायाजाल में फासने की चक्रव्यूह रचना करते हैं। लोकतन्त्र इन्ही प्रयासों को एक सिरे से खारिज करते हुए प्रत्येक नागरिक को एक वोट का अधिकार देता है और प्रत्येक चुनावी मतगणना का नतीजा केवल एक वोट से इधर से उधर होने का भी जोखिम लिये रहता है। अतः एक वोट की ताकत का अन्दाजा इसी हकीकत से लगाया जाना चाहिए।
चुनाव प्रायः वह पार्टी जीतती है जो अपने एजेंडे पर अपनी विरोधी पार्टियों को रक्षात्मक बना कर उनके जवाब की तलबगार बन जाती है। जब कोई चुनावी विमर्श खड़ा किया जाता है तो उसके केन्द्र में निश्चित रूप से मतदाता ही रहता है क्योंकि अन्ततः उसी के वोट से हार-जीत होती है। यह एजेंडा या विमर्श राजनैतिक दल अपनी सुविधा के हिसाब से तय करते हैं जिससे वे अपने विरोधियों को जबावदेह बना सकें। दिल्ली के चुनावों में इस बार खास बात यह रही कि प्रमुख राजनैतिक दल अपने खड़े किये गये एजेंडे पर ज्यादा समय तक टिक नहीं सके और आपस में ही एक-दूसरे के बुने जाल में फंसते रहे। चुनावी मैदान में जिस तरह राजधानी के शाहीन बाग में नागरिकता कानून के विरोध में चल रहे आन्दोलन को एजेंडे में लाया गया उसने चुनावी तैवर बदलने की तरफ अहम भूमिका निभाई मगर इसे जिस अन्दाज में जंगी जामा पहनाने की कोशिश की गई उससे राजधानी के नागरिकों में उदासी ने भी जन्म लिया ।
दिल्ली में जो नागरिक रहते हैं उनमें अधिसंख्या दूसरे राज्यों से आये हुए वे लोग हैं जो अपनी रोजी-रोटी की गरज से अपना घर-बार छोड़कर आते हैं और यहां खुशहाल जिन्दगी जीना चाहते हैं। बदनामी का डर उन्हें कभी सुहाता नहीं है। यही वजह है कि राजधानी के चुनाव में जब शिष्टता की हदें पार की जाती हैं तो मतदाता अपनी नाराजगी प्रकट करते हैं। हमें ध्यान रखना चाहिए कि सत्तर के दशक तक दिल्ली पाकिस्तान से आये पंजाबी शरणार्थियों के बहुमत का शहर था जिन्होंने अपना सब कुछ गंवा कर इस शहर में आशियाना बसाया था और अपनी मेहनत के बूते पर अपनी माली हालत को बेहतर बनाया था। अतः जब-जब भी राजधानी में लोगों के बीच आपसी भिड़ंत का मुद्दा चुनावों में बना तब-तब दिल्ली की जनता ने नतीजे अपने हिसाब से दिये हालांकि अब सामाजिक संरचना बदल चुकी है और तीस प्रतिशत लोग पूर्वी भारत के इस महानगर में बसे हुए हैं परन्तु उन्हें भी दिल्ली की रौनक ही अपने घेरे में लिये रहती है यहां का समाज जातिमूलक व समुदाय गत आग्रहों को तिलांजिली देकर आर्थिक आग्रहों पर चलता है और जिसका सम्बन्ध सीधे तौर पर रोजगार से होता है।
अतः दिल्ली के स्थानीय चुनावों में अक्सर हमें चमत्कार देखने को मिलता रहता है। वास्तव में यह चमत्कार नहीं होता बल्कि इस महानगर की जरूरत होती है। वाणिज्यिक व औद्योगिक सम्बन्धों से निर्देशित यहां की सामाजिक संरचना की निदेशिका में ‘समरसता’ आमुख वाक्य होती है और कमजोर को सहारा देने की राजनीति फलती-फूलती है। इस मामले में राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी आम आदमी पार्टी व केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा के बीच जमकर रस्साकशी खूब चली है जिसकी वजह से इस महानगर की डेढ़ हजार से ज्यादा अवैध कालोनियां वैध की गईं जबकि आप की सरकार इन्हीं कालोनियों में जल वितरण व सीवर की व्यवस्था में पिछले पांच सालों से लगी रही लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इस राज्य के लोगों के लिए राष्ट्रवाद कोई मायने नहीं रखता मगर यहां के निवासियों को कट्टरवाद से चिढ़ है।
मुस्लिम कट्टरपंथी भी इस महानगर में नाकाम रहे हैं और हिन्दू कट्टरपंथी भी पिछला चुनावी इतिहास इसका गवाह है। दरअसल दिल्ली का मिजाज इसके बारे में कही गई इस कहावत से ही मिलता है कि ‘नौ दिल्ली दस बादली किला वजीराबाद’ यह शहर अपने आगोश में ऐसी फिजाएं समेटे रहता है जिसमें रामलीला की शुरूआत अन्तिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ने जमुना किनारे शुरू कराई थी और चांदनी चौक की गिरवी रखी हुई फतेहपुरी मस्जिद को उस समय के नगर रईस सेठ छुन्ना मल ने रकम अदा करके छुड़वाया था। बेशक आज की दिल्ली बदल चुकी है मगर इसके नागरिक प्रगति व विकास के वैज्ञानिक युग में आर्थिक सम्बन्धों से ही चल रहे हैं। इसका लाभ जो राजनैतिक दल भी उठा कर ले गया वहीं 11 फरवरी को सिकन्दर कहलायेगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा