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क्यों बदला अमेरिका ने रुख

इजराइली और फिलस्तीनी वर्षों से पवित्र भूमि पर दावों को लेकर संघर्ष करते रहे हैं और यह संघर्ष लम्बेे समय से दुनिया के सबसे कठिन संघर्षों में से एक रहा है। अमेरिका इजराइल का एक मजबूत समर्थक है। कई अमेरिकी सरकारों ने इस समस्या के राजनयिक समाधान के​ लिए रोड मैप प्रस्तावित किया और दो राष्ट्रों के सिद्धांत को सामने रखा लेकिन शांति स्थापित नहीं हो सकी। मध्यपूर्व लम्बे समय से अमेरिका के​ लिए केन्द्रीय महत्व का विषय रहा है। क्योंकि अमेरिकी सरकारों ने महत्वपूर्ण ऊर्जा संसाधनों को सुरक्षित करने, पूर्व सोवियत संघ (अब रूस) और ईरानी प्रभाव को राेकने, इजराइल और अरब सहयोगियों के अस्तित्व और सुरक्षा को सुनिश्चित करने, आतंकवाद का मुकाबला करने सहित परस्पर लक्ष्यों को पूरा करने के लिए रणनीति के तहत इजराइल का समर्थन किया। 2011-12 में अरब स्प्रिंग के दौरान सीरिया और यमन युद्ध क्षेत्र में प्रभुत्व के लिए ईरान का दबाव और अलकायदा और आईएसआईएस जैसे आतंकवादी समूहों ने अमेरिका के लिए बहुत बड़े खतरे पैदा कर दिए। इसके बाद अमेरिका अपने खतरों से निपटने के लिए तैयारी करने लगा लेकिन वह सैद्धांतिक रूप से इजराइल के साथ खड़ा रहा।
पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने विवादास्पद नीतियों को लागू करके द्विराष्ट्र समाधान की सम्भावनाओं को सीमित कर दिया था। इजराइल-हमास मौजूदा युद्ध के दौरान भी राष्ट्रपति बाइडेन ने इजराइल को सैन्य और कूटनीतिक मदद की लेकिन उन्होंने साथ ही इजराइल को चेताया था कि वह बदले की आग में अंधा न बने जैसा अमेरिका पर 2001 के 9/11 के अलकायदा हमले के बाद हुआ था। बाइडेन हमास द्वारा बंधक बनाए गए इजराइली नागरिकों की रिहाई के साथ हमास का खात्मा भी चाहते हैं लेकिन इजराइल-हमास युद्ध का खामियाजा अब लाखों फिलस्तीनियों को भुगतना पड़ रहा है। इजराइल युद्ध कानूनों का घोर उल्लंघन कर रहा है। गाजा भुखमरी के कगार पर है। बच्चे भूख से दम तोड़ रहे हैं। इजराइल भाेजन लेने की पंक्ति में खड़े लोगों पर गोलियां बरसा रहा है। अस्पताल तबाह हो चुके हैं। बहुत बड़ा मानवीय संकट खड़ा हो चुका है। पूरी दुनिया युद्ध रोकने की गुहार लगा रही है लेकिन अब इजराइल रुकने का नाम ही नहीं ले रहा। इजराइल भूख और बीमारी से ग्रस्त फिलस्तीनियों तक राहत सामग्री भी पहुंचाने में बाधाएं खड़ी कर रहा है। ऐसे सबूतों का ढेर लग गया है ​कि इजराइल मानवाधिकारों को कुचल रहा है। इजराइली प्रधानमंत्री बैंजामिन नेतन्याहू कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हैं। अब तक 30 हजार से अधिक फिलस्तीनियों की मौत हो चुकी है, जिनमें अधिकांश आम नागरिक हैं लेकिन सच यह भी है कि इजराइल ने जिन हथियारों से हमले किए हैं वह भी अमेरिका के ही दिए हुए हैं।
अब अमेरिका का एक अलग रुख सामने आया है। इजराइल-हमास में साढ़े 5 महीने से जारी जंग के बीच पहली बार गाजा में युद्धविराम के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद यानी यूएनएससी में प्रस्ताव पारित हुआ है। रमजान के महीने में हुई इस बैठक के दौरान 15 में से 14 सदस्यों ने प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया, जबकि अमेरिका ने वोटिंग से दूरी बनाई। प्रस्ताव में बिना शर्त के सभी बंधकों की तत्काल रिहाई की मांग की गई। साथ ही गाजा में मानवीय सहायता पहुंचाने के लिए सभी बाधाओं को हटाने के लिए कहा गया है। यह पहली बार है जब अमेरिका ने सीजफायर के प्रस्ताव पर वोट नहीं डाला। इससे पहले 3 बार वो यूएनएससी में इन प्रस्तावों पर वीटो लगा चुका है।
अमेरिका का वीटो न करना इस बात का संकेत है कि हमेशा से दोस्ती निभाने वाले अमेरिका और इजराइल के बीच सब कुछ ठीक नहीं है। वोटिंग में अमेरिका का हिस्सा न लेना इजराइल को नागवार गुजरा है और उसने अपने प्रतिनिधिमंडल की अमेरिका की प्रस्तावित यात्रा को रद्द कर दिया है। ऐसा लगता है कि बाइडेन ने यह मान लिया है कि इजराइल ने उनकी सलाह को नजरंदाज करने की सभी सीमाएं पार कर दी हैं। एक बड़ा कारण यह भी है कि बाइडेन सरकार की ओर से इस संकट का हल निकालने के लिए दिए गए प्रस्ताव को इजराइल ने ठुकरा दिया है जिससे बाइडेन की छवि खराब हुई है। अमेरिका ने वीटो न करके इजराइल द्वारा किए जा रहे नरसंहार के लिए खुद को जिम्मेदार ठहराए जाने संबंधी आरोपों से छुटकारा पाने की कोशिश की है। यद्यपि अमेरिकी राष्ट्रपति ने हमास के हमले के बाद इजराइल का दौरा कर बंधकों के परिवारों से मिलकर उनका दुख-दर्द बांटा था और नेतन्याहू को गले लगाया था लेकिन उनके साथ बाइडेन के रिश्ते कभी भी सहज नहीं रहे हैं। अमेरिका लगातार इजराइल को अन्तर्राष्ट्रीय मानवीय कानूनों का सम्मान करने को कह रहा है जिसमें आम लोगों की सुरक्षा भी शामिल है। नेतन्याहू की गठबंधन सरकार यहूदी धुर राष्ट्रवादियों के समर्थन से चल रही है। इस​लिए नेतन्याहू पर सुरक्षा परिषद प्रस्ताव न मानने का भी बड़ा दबाव है। अब देखना यह है कि अमेरिका के बदले रुख का इजराइल पर क्या प्रभाव पड़ता है लेकिन मानवता चीख-चीख कर कह रही है कि युद्ध विराम अब लागू होना ही चाहिए। अगर युद्ध विराम नहीं होता है तो इसे अमेरिका की नौटंकी ही कहा जाएगा।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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