सबने देखा कि एक के बाद एक सरकार ने 6 महानुभावों को भारत रत्न प्रदान किए, जो कि पिछली सरकारों के बस का नहीं था, मगर उसमें एक कमी रह गई कि भारत के सही मायनों में स्वतंत्रता सेनानी, विनायक दामोदर सावरकर को फिर उनके भारत रत्न के अधिकार से वंचित कर दिया गया, बावजूद इसके कि भारत को आज़ाद कराने के लिए जिस प्रकार की वेदनाएं उन्होंने झेली थीं और बलिदान दिए थे, ऐसा दूसरा कोई व्यक्ति दिखाई नहीं देता। देश के कई बुद्धिजीवी अनेकों बार सावरकर को इस सम्मान के दिए जाने के लिए लिखते रहे हैं, मगर न तो उन्हें इस अवार्ड से नवाजा गया और न ही कारण बताया गया कि ऐसा उनके साथ क्यों हो रहा है। वैसे सच्चाई तो यह है कि स्वतंत्रता सेनानियों में उनका कद इतना ऊंचा है कि इस प्रकार के सभी इनाम उनके सामने बौने नजर आते हैं। आने वाली 26 फरवरी को उनकी पुण्य तिथि है।
कुछ तो बात है कि स्वातंत्र्यवीर, वीर सावरकर पर आज भी मंथन हो रहा है, पुस्तकें लिखी जा रही हैं, नाटक कराए जा रहे हैं, चर्चाएं होती रहती हैं। बतौर एक सच्चे व संस्कारी राष्ट्र भक्त, उन्होंने देश पर अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया था। खेद का विषय है कि जिस प्रकार से धड़ल्ले से भारत रत्न प्रदान किए जा रहे हैं, इस सरकार ने उन्हें उनका अधिकार अभी तक नहीं दिया है। इसका दुःख वरिष्ठ लेखक व दिल्ली के हंसराज कॉलेज के प्राध्यापक डॉ. सुधांशु कुमार शुक्ला को भी है, जिनकी ताज़ा किताब, ‘‘सावरकर की चिंतन-दृष्टि’’ बाजार में आई है। अपने शब्दों में पुस्तक के बारे में उन्होंने बताया कि जिस प्रकार से भारत के इस सपूत को निरूपित किया है, वह सैद्धांतिक से अधिक व्यावहारिक और आदर्श से अधिक यथार्थवादी है। पुस्तक सावरकर पर मौलिक उद्भावना का प्रतीक है। किस विचार ने सावरकर को गदगद कर दिया उसे जनमानस में अनुगुंजित होना चाहिए।
किस प्रकार से सावरकर ने जेल में कीड़ों, छिपकलियों, कौकरोचों युक्त सब्जी खाई, पांच फुट लम्बी काल कोठरी में लेटना पड़ता था, जहां उनके सर पर किसी के पांव लगते थे और उनके पांव दूसरे क़ैदी के सर से टच होते थे, कैसे वे सूख कर माचिस की तीली समान पतले और बीमार हो गए थे, इन सभी बातों का दर्द सावरकर के चिंतन में छलकता है, डॉ. सुधांशु ने अपनी लेखनी से उभारा है। कैसे उन्होंने कोयलों, कंकड़ों आदि द्वारा जेल की दीवारों पर लिख, अपने विचार व्यक्त किए, कविताएं लिखीं और अंग्रेज़ों द्वारा भारत को प्रताड़ित किया गया, सबका एक चिंतन की भाषा में वर्णन है। इस पुस्तक के बारे में सावरकर पर इतिहासकार व नाटककार दिनेश कपूर ने कहा कि सावरकर का पूर्ण जीवन एक ऐसी सांस्कृतिक विरासत है, जिसके बारे में देश के विद्यालयों और महाविद्यालयों में उन्हें पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए।
जहां किसी की निगाह नहीं जाती थी, सावरकर की सोच पहुंचती थी। वीर सावरकर ने राष्ट्रध्वज तिरंगे के बीच में धर्म चक्र लगाने का सुझाव सर्वप्रथम दिया था जिसे राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने माना। उन्होंने ही सबसे पहले पूर्ण स्वतंत्रता को भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का लक्ष्य घोषित किया। वे ऐसे प्रथम राजनीतिक बंदी थे जिन्हें विदेशी (फ्रांस) भूमि पर बंदी बनाने के कारण हेग के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में मामला पहुंचा। जिस “माफीनामे” या खुशामद का इल्ज़ाम कांग्रेसी और कुछ नकारात्मक सोच वाले लगाते हैं, वह वास्तव में महात्मा गांधी का आचरण था, जिसमें अंग्रेज़ी अफसरों को पत्र लिखते समय सरकार का हुक्म था कि शब्द, “योर हंबल सर्वेंट” (आपका चरण दास), “योर स्लेव” (आपका गुलाम) आदि लिखा जाए, अतः न केवल विनायक दामोदर सावरकर ऐसा लिखते थे, गांधीजी, नेहरू आदि भी लिखा करते थे।
जिसको ये आलोचक “माफ़ीनामा” कहते हैं, वह एक पत्र सावरकर ने अंग्रेज़ जेल अध्यक्ष को उनकी “डी” जेल कैटेगरी से हटा कर “ए” कैटेगरी में बदलने के लिए किया गया आग्रह था, क्योंकि अंग्रेजों ने गांधी, पंडित नेहरू और मौलाना आज़ाद को तो “ए” श्रेणी में क़ैद किया था, मगर सावरकर को “निहायत ही खतरनाक” बता कर, कि यदि इसको घोर दंड न दिया है, या भूलकर छोड़ दिया गया तो इस अकेले ही भारतीय में इतना दम है कि यह अंग्रेजों के चंगुल से भारत को आज़ाद करा लेगा। अफ़सोस की बात तो यह है कि अंग्रेजों और 1947 के पश्चात काले अंग्रेजों ने जो उनके अधिकारों का हनन कर के जो ज़ुल्म किया है, उसकी आज तक भरपाई नहीं हो पाई है।
नई दिल्ली के 30 जनवरी मार्ग स्थित गांधी स्मृति ने पिछले वर्ष मई में इसके अध्यक्ष विजय गोयल ने एक सावरकर विशेषांक जारी किया था, जो काफ़ी प्रशंसनीय था। लेखक जब उन्हें मुबारकबाद देने और सावरकर पर एक संगोष्ठी की प्रार्थना लेकर गया तो उसे यह कह कर टाल दिया गया कि विपक्ष धमाल मचाएगा, जो कि एक घुटने टेक देने वाली बात थी। जब अपने ही मुंह फेर रहे हैं तो गैरों से क्या शिकायत, ऐसे में आज के समय में सावरकर के विचारों को जन-जन तक पहुंचाने का प्रयास होना चाहिए।
लेखक डॉ. सुधांशु के अनुसार, वे पहले क्रांतिकारी थे जिन्होंने राष्ट्र के सर्वांगीण विकास का चिंतन किया तथा बंदी जीवन समाप्त होते ही जिन्होंने अस्पृश्यता आदि कुरीतियों के विरुद्ध आंदोलन शुरू किया। दुनिया में सावरकर ऐसे पहले कवि थे जिन्होंने अंडमान के एकांत कारावास में जेल की दीवारों पर कील और कोयले से कविताएं लिखीं और फिर उन्हें याद किया। इस प्रकार याद की हुई 10 हजार पंक्तियों को उन्होंने जेल से बाहर आकर प्रकाशित करवाया। सावरकर द्वारा लिखित पुस्तक ‘‘द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस : 1857’’, एक सनसनीखेज पुस्तक रही जिसने ब्रिटिश शासन की नींव को हिला डाला था। विनायक दामोदर सावरकर दुनिया के अकेले स्वातंत्र्य-योद्धा थे जिन्हें 2-2 आजीवन कारावास की सजा मिली, सजा को पूरा किया और फिर से वे राष्ट्र जीवन में सक्रिय हो गए। वे विश्व के ऐसे पहले लेखक थे जिनकी कृति 1857 का प्रथम स्वतंत्रता को 2-2 देशों ने प्रकाशन से पहले ही प्रतिबंधित कर दिया।
वे पहले स्नातक थे जिनकी स्नातक की उपाधि को स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के कारण अंग्रेज सरकार ने वापस ले लिया। डॉ. सुधांशु की इस पुस्तक से उनके विपक्षियों की आंखे भी खुलेंगी। पार्टी सियासत से ऊपर उठ कर वक्त की ज़रूरत है कि आज के युवा वर्ग को सावरकर के चिंतन जगत से परिचित करवाकर और प्रतिबद्धता के साथ जोड़कर अनेक आयामों में राष्ट्रहित को साधा जा सकता है। इस दृष्टि से डॉ. सुधांशु शुक्ला का यह ग्रंथ निश्चित तौर पर मौलिक व प्रासंगिक सिद्ध होगा। भारत के महान क्रांतिकारी वीर सावरकर के निधन 26 फरवरी 1966 को भारत का एक बहादुर, निर्भीक, दमदार, शानदार, सेवादार, कामदार, वफादार और सबसे अधिक विशेषता कि ईमानदार रत्न सदा के लिए हमारी आंखों से ओझल हो गया।
– फ़िरोज़ बख्त अहमद