‘‘किताबें झांकती हैं
बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरताें से ताकती महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थीं, अब अक्सर गुज़र जाती हैं कम्पयूटर के पर्दों पर।’’
गुलजार साहब की पंक्तियों को इस बार का विश्व पुस्तक मेला कुछ कह रहा है। लाखों लोगों का इस पुस्तक मेले में आना, देश-विदेशों के प्रकाशकों का इसमें हिस्सा लेना यह कह रहा है कि जितना भी डिजिटल समय आ जाए किताबों ने अपना चार्म नहीं खोया और जो इस विश्व पुस्तक मेले को नैशनल बुक ट्रस्ट ने जिस खूबसूरत ढंग से आयोजित किया हुआ था उसके लिए मेरे पास शब्द नहीं। इतने हाल, फिर ढेरों स्टाल, फिर ऊपर से बेतहाशा भीड़, जो उनके स्वागत क्षेत्र अर्थात वीआईपी लाऊज (स्वागत कक्ष) पर थीं, उसके एक-एक सदस्य का आने-जाने वालों का अभिनंदन करना बहुत ही अच्छा सलीका था।
मुझे वीआईपी लाऊज में राजस्थान पत्रिका के मालिक और सम्पादक गुलाब चंद कोठारी जी से मुलाकात हुई। वह अश्विनी जी को बहुत याद कर रहे थे। कह रहे थे वैसा व्यक्तित्व वाला व्यक्ति निराला पैदा होता है। उनकी हंसी-मजाक, एमपी टूर पर जाना कभी नहीं भूल सकते। उन्होंने अपने बेटे से भी मिलवाया। जब उनको मैंने बताया कि यहां मैं अश्विनी जी की पुस्तक ‘रोम-रोम में राम’ की चर्चा के लिए आई हूं, जिसका विमोचन आदरणीय राजनाथ जी ने उनकी पुण्यतिथि पर किया। श्री कोठारी जी ने बताया कि वह भी अपनी पुस्तक ‘गहने क्यों पहने’ का िवमोचन के लिए आए हैं। उन्होंने आज मुझे पुस्तक भेज दी।
वास्तव में वहां बहुत से स्टाल लगे थे। बहुत सी चर्चाएं हो रही थीं परन्तु प्रभात पब्लिकेशन का स्टॉल बहुत ही अद्भुत और बहुत सी पुस्तकों से भरा था। इतनी भीड़ थी कि पूछो मत। प्रभात जी और उनके छोटे भाई स्वयं मौजूद थे। मेरे लिए पुस्तक मेले में जाना और एक लेखक की तरह हिस्सा लेना यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि की तरह थी। मेरी पुस्तक ‘रोम-रोम में राम’ पर हुई परिचर्चा काे सफल बनाने में प्रभात प्रकाशन की भूमिका और इन्द्रप्रस्थ विश्व हिन्दू परिषद के श्री कपिल खन्ना और दीनदयाल उपाध्याय कॉलेज की डा. चारू कालरा का बहुत बड़ा हाथ था और उस पर भी चार चांद लग गए जब प्रसिद्ध साहित्यकार सविता चड्ढा बहुत से साहित्यकारों के साथ मौजूद थीं आैर बहुत ही प्रबुद्ध पत्रकार संजना शर्मा और रवि पराशर मौजूद थे।
प्रगति मैदान में सदा कुछ न कुछ चलता रहता है लेकिन इसकी पहचान पुस्तक प्रदर्शनी और पुस्तक मेले से ज्यादा जुड़ी है। इस बार का विश्व पुस्तक मेला एक अलग थीम लेकर चला है जो है बहुतभाषी भारत एक जीवंत परंपरा। मेले में भारत की विभिन्न भाषाओं की पुस्तकों को शामिल किया गया है और जब आप पाठक के रूप में इन्हें पढ़ते हैं तो भारत की एक अलग शान नजर आती है। इसीलिए कहा गया है कि जीवन में पुस्तकें अनमौल स्थान रखती हैं। किसी भी देश के समृद्ध साहित्य का दीदार बहुभाषी पुस्तकों के जरिये किया जा सकता है। अगर दुनिया में कोई चेतना या भावनाएं पैदा की जा सकती हैं तो उनमें पुस्तकों का योगदान बहुत ज्यादा है। भारत में कहते हैं कि हर पांच कोस के बाद भाषा बदल जाती है और यह भारत की पुस्तकें ही हैं जो दुनिया में अपना ज्ञान प्रसारित करती रही हैं। मैं बचपन से ही पुस्तकें पढ़ने और उसमें लिखी बातों को आत्मसात करने में यकीन रखती हूं। व्यक्तिगत तौर पर मैं पुस्तकों के बारे में विद्वानों, लेखकों और विचारकों से बात करती रहती हूं जो पुस्तकों के महत्व के बारे में अपनी बात रखते हैं।
मेरा अपना मानना है कि नई पीढ़ी आज कंप्यूटर की तरफ या डिजिटल की राह पर तेजी से आगे बढ़ रही है। ऐसा लगता है कि पुस्तकों के प्रति उनका रूझान कम हो रहा है क्योंकि समय के साथ चीजें तेजी से बदल रही हैं लेकिन यह एक कड़वा सच है कि शैक्षिणक यात्रा में हमारी नई पीढ़ी पुस्तकों से जुड़े बिना आगे नहीं बढ़ सकती। आप किसी भी पुस्त्क मेले या पुस्तक प्रदर्शनी में जाइये तो वहां अलग-अलग आयु वर्ग को सीखने-सिखाने के लिए अलग-अलग तरीके इजाद किये गये हैं। ठीक ऐसे ही जैसे हमारी शिक्षा का स्तर है। नर्सरी, प्राइमरी, मीडिल, बारहवीं, ग्रेजुएशन, पोस्टग्रेजुएशन, पीएचडी और डी.लिट इत्यादि। जैसा स्तर वैसी ही पुस्तकें। पुस्तकों के बारे में कहा गया है कि जिसने इनमें छिपे ज्ञान को जीवन में उतार लिया समझो उसका करियर बन गया। पुस्तक पढ़ने के बारे में ही भारतीय जगत में विचारकों ने कहा है कि आज सभी पढ़ना चाहते हैं लेकिन पुस्तकें कैसे पढ़ी जाये यह बात बहुत कम लोग जानते हैं। इस पंक्ति के एक-एक शब्द में गहराई है। पुस्तकें हमें वह गहरा ज्ञान देती हैं जो हमें किसी भी कंपीटीशन में सफल बनकर उतारता है।
आज की बदलती दुनिया में अभिभावकों को चाहिए कि बच्चों को उनकी जीवन यात्रा में पुस्तकों केे अलावा जितनी अलग जानकारी किसी कंटेंट के माध्यम से दी जाये तो और भी अच्छा है। पुस्तकें कभी भी बोझ नहीं होती। नई शिक्षा नीति आज लर्निंग के नये-नये तरीके नई पीढ़ी को सीखा रही है जिसका सम्मान किया जाना चाहिए। बच्चों के माता-पिता को बच्चों को जहां डिजिटल संस्करण से जोड़ना है वहां पुस्तकों की पढनियता को लेकर भी उनमें शौक पालना होगा। जब हम स्कूली बच्चे थे तो चंदा मामा, चंपक, बाल भारती, नंदन जैसी पुस्तकेें हमारे बालजीवन का हिस्सा हुआ करती थी। समय के साथ-साथ साहित्यक पुस्तकों के प्रति हमारा प्रेम बढ़ने लगा और आज समाज से जोड़ने के काम में पुस्तकें अलग भूमिका निभा रही हैं। कुल मिलाकर विश्व पुस्तक मेले ने एक बड़ा अवसर दिया जिसके लिए प्रभात पब्लिकेशन हमारी प्रेरणा है लेकिन बड़ी बात यह है कि पुस्तकों के प्रति राष्ट्रीय स्तर पर प्रेम बढ़ना चाहिए। भले ही डिजिटल तेजी से उभर रहा है लेकिन पुस्तकों का आकर्षण भी जीवित रहना चाहिए और ध्यान रखना चाहिए कि ओल्ड इज आलवेज गोल्ड अर्थात पुस्तकों में छिपा प्राचीन ज्ञान हमारे लिए सोने का भंडार है।