भारत के महान लोकतन्त्र को जो लोग लोकशक्ति के इतर कम करके आंकने की गलती करते हैं वे गांधी बाबा द्वारा चलाये गये अद्वितीय अहिंसक स्वतन्त्रता आंदोलन के दौरान भारतीयों में भरे गये उन संस्कारों की अवहेलना करते हैं जिन्होंने प्रत्येक भारतीय के रक्त में आत्मसम्मान का भाव इस तरह भरा था कि आजादी मिलते ही इस देश के प्रत्येक नागरिक को अपनी सरकार अपने एक वोट से खुद चुनने का अधिकार मिला।
स्वतन्त्रता सेनानियों का यह भारत की जनता पर अटूट विश्वास था कि वह हर काल में लोकतन्त्र की जीवन्तता को अपने वोट की ताकत पर बनाये रख सकती है और सिद्ध कर सकती है कि उसकी इच्छा ही इस व्यवस्था में सर्वोपरि स्थान रखेगी। अतः जब 1934 के करीब ब्रिटेन की संसद के ‘हाऊस आफ लार्ड्स’ में दो अंग्रेज विद्वानों ने भारत द्वारा संसदीय लोकतन्त्र की एक समान वोट अधिकार प्रणाली चुनने का फैसला करने पर यह कहा था कि ‘भारत ने एक ऐसे अंधे कुएं में छलांग लगाने का फैसला किया है जिसके भीतर क्या है किसी को नहीं मालूम’ तो महात्मा गांधी ने केवल इतना ही कहा था कि ‘भारतीयों को अपनी बुद्धि और सामर्थ्य पर पूरा विश्वास है।’
राष्ट्रपिता के इस विश्वास को भारत की जनता ने स्वतन्त्रता के बाद हर दौर में जीवित रखा है और अपनी बुद्धिमत्ता का सबूत इस प्रकार दिया है कि राजनीति को ही नई दिशा मिलती दिखाई दे। अतः भारतीय मतदाताओं पर यह कहावत पूरी तरह चरितार्थ होती है कि जब राजनीतिज्ञ रास्ता भूलने लगते हैं तो वे स्वयं खड़े होकर रास्ता बता देते हैं। हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव परिणामों का सन्देश केवल यही है कि मतदाता ढाल बनकर लोकतन्त्र को जीवन्त बना देते हैं और राजनीति की सरस विविधता को बरकरार रखते हैं। चुनावों में राजनैतिक दलों की हार-जीत होती रहती है परन्तु जो सबसे महत्वपूर्ण होता है वह लोकतन्त्र की जीत होती है।
चुनाव लोकतन्त्र का पर्व इसलिए नहीं होते कि इनके माध्यम से किसी विशेष राजनैतिक दल के हाथ में सत्ता सौंपने का कार्य आम जनता करती है बल्कि इसलिए होते हैं कि ये जनता के इस पूरी व्यवस्था के मालिक होने का प्रमाण देते हैं। यह लोक महोत्सव लोकशाही के समक्ष सत्ता की जवाबदेही का जश्न होता है। यह जवाबदेही कभी भी लुका-छिपी की वकालत नहीं करती और आंख में आंख डाल कर जवाब-तलबी करती है। जवाब-तलबी की इस प्रक्रिया में ही जनता के मुद्दे चुनावी मैदान में उभरते हैं जिनसे भाग पाना किसी भी राजनैतिक दल के वश में नहीं होता।
लोकतन्त्र जिस लोकलज्जा से चलता है उसकी कोई पार्टी नहीं होती। इसी वजह से इस तत्व की उपेक्षा करने का दंड समय-समय पर सत्ताधारी दलों को भारत के मतदाता देते रहे हैं। इसके मूल में भी राजनीति का आधार जनपक्ष होता है जिसमें सभी प्रकार के वाद-विवादों को समेकित करके उन्हें अलग-अलग सिद्धान्तों में प्रतिपादित करने की असीमित क्षमता होती है, अतः राजनीति बिना जनसंवाद के एक पक्षीय विचार प्रवाह को कभी स्वीकार नहीं करती परन्तु सफलता के जोश में अक्सर राजनैतिक दल ऐसी गलती आत्म प्रशंसा के लोभ में कर जाते हैं जिसे आम जनता ही संशोधित करके उन्हें रास्ता दिखाने का काम करती है।
लोकतन्त्र की असली ताकत यही होती है और भारत इसीलिये महान है कि इसके कम पढे़-लिखे व गरीब समझे जाने वाले लोग प्रायः वक्त की नजाकत देखकर दीवार पर ऐसी इबारत लिख देते हैं जिससे हुकूमत में रहने वाले लोगों को यह हमेशा इल्म रहे कि लोकतन्त्र के मालिक वे नहीं बल्कि इस मुल्क के मुफलिस समझे जाने वाले लोग हैं और उन्हें इस बात की अक्ल ईश्वर ने अता की है कि उनके लिए कौन सा रास्ता बेहतर है। आज इतना ही लिखा जाना पर्याप्त होगा क्योंकि लोकतन्त्र का नृत्य दोनों राज्यों में सरकारंे बनने तक जारी रहेगा।