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दक्षिण में भाजपा की रणनीति

भाजपा नीत एनडीए गठबन्धन लगातार अपना विस्तार करता जा रहा है और उत्तर से दक्षिण की तरफ कूच करता दिख रहा है। भारतीय जनता पार्टी अपने जनसंघ के काल से ही देश के विभिन्न क्षेत्रीय दलों के साथ सहयोग व गठबन्धन करने में सिद्धहस्त इस प्रकार रही है कि हर गठजोड़ के बाद इसकी जमीनी ताकत में वृद्धि हुई है। दक्षिण के राज्य आन्ध्र प्रदेश में भाजपा अपने बूते पर कोई महत्वपूर्ण राजनैतिक ताकत नहीं है परन्तु वर्तमान राजनैतिक सन्दर्भों में वे सभी क्षेत्रीय दल इसके साथ आने को बेताब लगते हैं जिनका विपक्षी इंडिया गठबन्धन के साथ कोई तालमेल नहीं है। इस राज्य की तेलुगू देशम पार्टी ने 1983 में स्थापना के बाद एक बारगी कांग्रेस का सफाया कर दिया था और इसके संस्थापक स्व. एन.टी. रामराव ने सत्ता की बागडोर अपने हाथ में ले ली थी। स्व. राव तेलुगू फिल्मों के बहुत लोकप्रिय अभिनेता थे। राजनीति में आने पर राज्य की जनता ने उन्हें तब हाथोंहाथ लिया था और उस समय के केन्द्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी की नेता स्व. इन्दिरा गांधी के पैरों के नीचे से जमीन खिसका दी थी, हालांकि श्रीमती गांधी भी राष्ट्रीय स्तर पर बहुत ही लोकप्रिय नेता थीं।
तेलुगू देशम की स्थापना के बाद से आन्ध्र प्रदेश की राजनीति में जहां क्षेत्रीय अपेक्षाओं का प्रादुर्भाव बढ़ा वहीं इसका असर अन्य राज्यों पर भी पड़ा और देखते-देखते ही इसके बाद उत्तर भारत के राज्यों में भी क्षेत्रीय दल पनपने लगे। 90 का दशक इनके लिए बहुत फलने-फूलने वाला कहा जा सकता है। इसकी जड़ में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होना भी माना जाता है जिसकी वजह से समूचे उत्तर भारत की राजनीति में हमें गुणात्मक बदलाव देखने को मिला, मगर इसके समानान्तर आश्चर्यजनक रूप से भाजपा का प्रभाव भी इन राज्यों में बढ़ा। इसका कारण राम मन्दिर आन्दोलन माना जाता है। राम मन्दिर आन्दोलन ने जिस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की लहर को पूरे उत्तर भारत समेत दक्षिण के द्वार कर्नाटक तक पहुंचाया, उसी का यह परिणाम है कि भाजपा आज सांस्कृतिक पुनरुत्थान की प्रणेता बनी हुई है और इस कार्य को प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में हिन्दुत्ववादी कलेवर में बाखूबी किया गया है। अब ऐसा लग रहा है कि देश का कोई क्षेत्र इससे अछूता नहीं बचा है क्योंकि केरल जैसे धुर दक्षिणपंथी राज्य से जिस तरह कांग्रेसी नेता इस पार्टी में प्रवेश कर रहे हैं उससे यही लगता है कि भाजपा का यह राजनैतिक विमर्श जमीन पर जरूर हलचल मचा रहा है। इसके साथ ही भाजपा तमिलनाडु की दूसरे नम्बर की क्षेत्रीय पार्टी अन्ना द्रमुक के साथ भी पुनः गठबन्धन करने की तैयारी में लगती है। इस पार्टी के साथ इसका पहले गठबन्धन था मगर वह टूट गया था। जहां तक आन्ध्र प्रदेश का सम्बन्ध है तो तेलगू देशम यहां की मुख्य विपक्षी पार्टी है जबकि सत्तारूढ़ वाईएसआर कांग्रेस को अपने घर के भीतर से ही कड़ा मुकाबला करना पड़ रहा है। बेशक यह मुकाबला मुख्यमन्त्री जगन रेड्डी की सगी बहन वाईएस शर्मीला ही दे रही है जो कि पिछले दिनों ही कांग्रेस पार्टी में आई है। उनके कांग्रेस में आने के बाद से राज्य की राजनीति में कांग्रेस का प्रभाव बढ़ा है। पहले यह समझा जा रहा था कि इस बार लोकसभा चुनावों में असली मुकाबला कांग्रेस पार्टी व वाईएसआर कांग्रेस के बीच ही होगा। मगर भाजपा ने अपनी गठबन्धन की राजनीति की चौसर बिछा कर इसे त्रिकोणात्मक करने की रणनीति लागू कर दी है। राज्य में इसी वर्ष के अन्त तक लोकसभा चुनावों के बाद विधानसभा चुनाव भी होने हैं। तेलगू देशम चाहती है कि लोकसभा की सीमित सीटों पर ही भाजपा जोर-आजमाइश करे और विधानसभा की अधिसंख्य सीटें उसके हवाले करे। जिन राजनैतिक पंडितों को भाजपा की ‘मेलजोल’ की राजनीति की जानकारी है वे जानते होंगे कि पार्टी ने किस प्रकार महाराष्ट्र में शिवसेना के छोटे भाई की भूमिका स्वीकार करके अपने प्रभाव क्षेत्र में जबर्दस्त इजाफा किया। दरअसल भाजपा को इस राज्य में जमाने वाली शिवसेना ही थी जिसके साथ इसका तीन साल पहले तक मजबूत गठबन्धन था। मगर यह टूट गया और एेसा टूटा कि अब शिवसेना ही दो फाड़ हो चुकी है। अतः आन्ध्र प्रदेश में भाजपा फिलहाल तेलगू देशम के साथ कनिष्ठ भूमिका में आ सकती है मगर इसकी मार्फत वह अपना राजनैतिक सन्देश दक्षिण के इस राज्य में देने में कामयाब होगी। इसके साथ ही पवन कल्याण की जनसेना भी इस गठबन्धन की सदस्य होगी। तेलगूदेशम के साथ इसका गठजोड़ है। इसका सीधा परिणाम यह होगा कि लोकसभा चुनावों में भाजपा दक्षिण के राज्यो में भी ताल ठोकती नजर आयेगी और इस क्षेत्र में मजबूत समझी जाने वाली कांग्रेस के सामने तीसरी शक्ति बन कर उभरेगी।

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