स्वतन्त्रता दिवस के अवसर पर नेपाल के प्रधानमंत्री श्री केपी शर्मा औली ने प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी को फोन करके जो शुभकामना सन्देश दिया, उससे यही रेखांकित होता है कि भारत व नेपाल के सम्बन्ध ऐसे अटूट धागे से बन्धे हुए हैं जिसका सिरा दोनों देशों के नागरिकों के हाथों में रहता है। भौगोलिक सीमाओं को लेकर दोनों देशों के बीच पिछले दिनों जो खटास आयी है उसे केवल वार्ता के जरिये ही समाप्त किया जा सकता है। हालांकि श्री औली ने प्रधानमंत्री के साथ टेलीफोन वार्ता में इस बारे में कोई जिक्र नहीं किया परन्तु कूटनीतिक रूप से भारत पर अपने पड़ोसी देशों के साथ मधुर सम्बन्ध बनाये रखने की जिम्मेदारी डाल दी और उन्होंने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य बनने के लिए बधाई दी तथा यह जिम्मेदारी सफलता पूर्वक निभाने के लिए शुभकामनाएं दीं।
श्री औली ने प्रधानमंत्री मोदी की इस बात के लिए भी प्रशंसा की कि उन्होंने अपने स्वतन्त्रता दिवस के भाषण में पड़ोसी देशों के साथ सम्बन्धों पर जोर दिया है। वास्तव में श्री औली का विगत मई महीने में भारत-नेपाल के बीच भौगोलिक सीमा को लेकर हुए विवाद के बाद श्री मोदी को पहली बार टेलीफोन करना बताता है कि उन्होंने नेपाली लोगों की भारत के बारे में सद्भावनाओं का संज्ञान लिया है और आगे बातचीत करने पर जोर दिया है परन्तु इसके साथ ही बहुत चतुरता के साथ उन्होंने सारी जिम्मेदारी भारत पर डालने की कोशिश भी की है क्योंकि श्री औली व उनकी कम्युनिस्ट पार्टी की जिद की वजह से ही नेपाली संसद में वह विधेयक पारित कराया गया था जिसमें उत्तराखंड के धारचूला से लगते नेपाल व चीन के त्रिकोण की कालापानी-लिपुलेख-लिम्पियाधुरा भूमि का 370 वर्ग किलोमीटर हिस्सा नेपाल ने अपनी भौगोलिक सीमा में माना था और इस बाबत नया नक्शा जारी किया था। अब यह नक्शा नेपाली संसद के दोनों सदनों में पारित हो चुका है और वहां के राष्ट्रपति की भी उसे मंजूरी मिल चुकी है। नेपाल की इस कार्रवाई को भारत ने गंभीरता से लिया और प्रतिक्रिया व्यक्त की कि ऐतिहासिक रूप से यह भूभाग भारत का अंग रहा है जिसका सत्यापन 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय भी हुआ था। इस इलाके में भारतीय सैनिक चौकियां थीं जो नेपाल व भारत दोनों की ही राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण थीं, परन्तु विगत मई महीने में जब भारत के रक्षा मन्त्री श्री राजनाथ सिंह ने तिब्बत (चीन) में स्थित कैलाश-मानसरोवर यात्रा को सुगम बनाने के लिए धारचूला से लिपुलेख सड़क का उद्घाटन किया तो नेपाल की औली सरकार ने इसे सहजता से न लेते हुए रोषपूर्ण तेवर अख्तियार किये और जवाब में एक नया नक्शा जारी कर दिया जिसमें धारचूला से आगे के रास्ते को नेपाल का अंग दिखाया गया था। बाद में इस नक्शे की मंजूरी संविधान संशोधन विधेयक पेश करके संसद से ली गई। इससे दोनों देशों के बीच वार्ता में अवरोध की स्थिति बन गई जबकि भारत का आग्रह था कि नेपाल के साथ किसी भी प्रकार के विवाद पर खुल कर वार्ता हो सकती है। जाहिर है कि भारत-नेपाल के आत्मीय सम्बंधों को देखते हुए नेपाल की तरफ से की गई यह कार्रवाई उत्तेजना फैलानी वाली थी परन्तु भारत ने सब्र से काम लिया और ताकीद की कि दोनों देशों के बीच किसी भी स्तर पर किसी प्रकार की कटुता की कोई गुंजाइश नहीं हो सकती। वास्तव में नेपाल के सर्वांगीण विकास के लिए भारत स्वतन्त्रता के बाद से ही प्रतिबद्ध रहा है जिसका प्रमाण 1950 की वह भारत-नेपाल सन्धि है जो प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने नेपाल के तत्कालीन महाराजाधिराज वीर महेन्द्र विक्रम देव शाह के साथ की थी। यह सन्धि भारत में नेपाली नागरिकों को बिना किसी पासपोर्ट या वीजा के आने की इजाजत देती थी और भारत में आजीविका कमाने की इजाजत देती थी। बाद में इस सन्धि में कई बार परिवर्तन हुए और नए आपसी समझौते भी हुए मगर स्व. प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के कार्यकाल में जो संशोधन किये गये उसके बाद से ही दोनों देशों के बीच मनमुटाव पैदा होना शुरू हुआ। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने ही जम्मू-कश्मीर समस्या को भी आतंकवाद का नया आयाम दिया। यह इतिहासकारों के लिए शोध का विषय रहेगा कि अपने 11 महीने के कार्यकाल में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इस देश को किस तरफ मोड़ने का प्रयास किया? नेपाल के सन्दर्भ में हकीकत यह है कि जब विगत वर्ष नवम्बर महीने में भारत ने जम्मू- कश्मीर राज्य को दो अर्ध राज्यों में बांटने के बाद नया भौगोलिक- राजनीतिक नक्शा जारी किया था तब नेपाल की औली सरकार ने भौगोलिक सीमा के बारे में वार्तालाप करने की पेशकश की थी। इस पर फौरी तौर पर बातचीत की तारीख मार्च महीने में तय करने पर सहमति हुई थी मगर कोरोना वायरस के कहर के चलते यह बातचीत टलती रही। तब नेपाल ने वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिये दोनों देशों के विदेश सचिवों में बातचीत का प्रस्ताव रखा जो सिरे नहीं चढ़ सका तो नेपाल ने आरोप लगा दिया कि भारत मामले को आगे टाल रहा है। इसके बाद मई महीने में धारचूला-लिपुलेख सड़क का उद्घाटन भारत द्वारा करने पर नेपाल की भंवें तन गईं और उसने अपना नया नक्शा जारी करके उसे अपनी संसद से मंजूरी दिला दी।
गौर से देखा जाये तो नेपाल ने यह कार्य चीन के बहकावे में आकर तब किया जब उसने श्री औली की कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार को परोक्ष रूप से अल्पमत में आने से बचाया और काठमांडौ स्थित इसके राजदूत ने इसमें सक्रिय भूमिका निभाई। इसके बाद श्री औली ने रामजन्म से जुड़ी नेपाली अयोध्या के विवाद को भी जन्म दिया मगर लगता है कि नेपाल के लोगों के रुख को देखते हुए अब उनके रवैये में कुछ परिवर्तन आया है। देखना केवल यह होगा कि नेपाल किस तरह भारत-चीन-नेपाल त्रिकोणात्मक भूमि अंश पर भारत के हक को देखता है और दोनों देशों की जनता के बीच स्थापित आत्मीय सम्बन्धों की लाज रखता है।