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नेताजी को याद करने का दिन

आज 23 जनवरी है, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का जन्म दिवस।

आज 23 जनवरी है, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का जन्म दिवस। यह दिन गणतन्त्र दिवस 26 जनवरी से तीन दिन पहले पड़ता है और हमें याद दिलाता है कि भारत की स्वतन्त्रता के लिए जिन बलिदानियों ने जो सपने संजोए थे हम उन पर खरा उतरने की कोशिश करें। नेताजी का भारत को अंग्रेजी दासता से मुक्ति दिलाने का तरीका बेशक ‘सैनिक’ था, मगर भारत के लोग पूर्ण आजादी और स्वतन्त्र भारत में उनके सम्पूर्ण आत्मसम्मान के वह प्रबल समर्थक थे और मानते थे कि महात्मा गांधी ने भारत के जन-जन में आजादी की जो अलख जगाई है वह भारत के इतिहास का अनूठा व अद्वितीय अध्याय है। नेताजी स्वतन्त्रता से पहले कांग्रेस पार्टी के ‘गरम दल’ के पैरोकार समझे जाते थे और उनका झुकाव समाजवादी नीतियों की तरफ था। मगर देश की स्वतन्त्रता के लिए वह अधिक प्रतीक्षा नहीं करना चाहते थे जिसकी वजह से 1938 में कांग्रेस के पुनः अध्यक्ष चुने जाने पर उन्होंने पार्टी के पद से इस्तीफा महात्मा गांधी से मतभेद होने की वजह से दे दिया और अपनी अलग पार्टी ‘फारवर्ड ब्लाक’ भी बनाई।  
यह सवाल उठना वाजिब है कि नेताजी भारत की आजादी के लिए व्यग्र क्यों थे? इसके पीछे तर्क दिया जाता है कि वह द्वितीय विश्व युद्ध का जमाना था और अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ जर्मनी, इटली, जापान के अलावा अन्य राष्ट्र के भी युद्ध छेड़ देने से उन्हें महसूस हुआ था कि यदि ऐसे समय में अंग्रेजों की सेना का मुकाबला सैनिक स्तर पर किया जाता है तो भारत को आजादी जल्दी मिल सकती है। इसी वजह से उन्होंने विदेश में जाकर पहले से ही बनी हुई ‘आजाद हिन्द फौज’ को और मजबूत किया जिसमें अंग्रेजों की तरफ से द्वितीय विश्व युद्ध में लड़ने वाले वे सैनिक ही थे जिन्हें अंग्रेजों की दुश्मन जर्मनी व जापान की फौजों ने युद्धबन्दी के तौर पर पकड़ा था। इन्हीं सैनिकों की मदद से आईएनए का गठन किया गया था। इसमें दिक्कत यह थी कि अंग्रजों की ब्रिटिश इंडियन आर्मी  या भारतीय फौज का मुकाबला आजाद हिन्द फौज से होना था और अंग्रेजों की सेना में भी भारतीय जवान ही थे। अतः भारत की आजादी के लिए दोनों तरफ से भारत के सैनिक ही आमने- सामने होने थे। कांग्रेस के नेताओं ने सैनिक युद्ध को व्यावहारिक हल नहीं माना और अंग्रेज सरकार के खिलाफ जनान्दोलन तेज करने की मुहीम चलाई। 
द्वितीय विश्व युद्ध सितम्बर 1939 में शुरू हो गया था जो 1945 तक चला। मगर नेताजी के सैनिक संघर्ष का भारत में यह असर पड़ा कि महात्मा गांधी को 8 अगस्त, 1942 को ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ आन्दोलन का आह्वान करना पड़ा और अंग्रेज फौज में भारतीयों की भर्ती के विरोध में व्यापक अभियान चलाना पड़ा। इसकी भी कई वजहें बताई जाती हैं। नेताजी ने जापानियों की मदद से अंडमान निकोबार द्वीप समूह पर अपनी फौज से अधिकार कर लिया था और वहां भारत की आरजी ‘आजाद हिन्द सरकार’ का गठन भी कर दिया था जिसके मुखिया नेताजी थे। इस आजाद हिन्द सरकार का पूरा तन्त्र नेताजी ने वहां स्थापित कर दिया था जिसे उस समय बीस से अधिक देशों की सरकारों ने मान्यता भी प्रदान कर दी थी। परन्तु नेताजी ने ही आजाद हिन्द सरकार के भारतवासियों के प्रति रेडियो सन्देश में महात्मा गांधी को सर्वप्रथम ‘राष्ट्रपिता’ कह कर सम्बोधित किया। उनका ‘दिल्ली चलो’ व ‘तुम मुझे खून दो-मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ नारा भारत के युवाओं में बहुत आकर्षण का केन्द्र भी बना, मगर इसमें कई व्यावहारिक कठिनाइयां भी थीं। मसलन भारतीय युवा पीढ़ी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द सरकार के समर्थन में सीधे कोई कदम नहीं उठा सकती थी लेकिन ब्रिटिश सरकार की भारतीय फौज में शामिल सैनिकों में यह भाव जागने लगा था कि वे ब्रिटिश सम्राट के प्रति वफादारी की कसम उठा कर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज का मुकाबला क्यों करें? शायद यही वजह थी कि महात्मा गांधी ने 1942 में ही अग्रेजों के सामने यह शर्त रख दी थी कि वे विश्व युद्ध में यदि भारत का सहयोग चाहते हैं तो उससे पहले भारत की पूर्ण आजादी की घोषणा करें। मगर इसी दौरान मुस्लिम लीग के मोहम्मद अली जिन्ना और हिन्दू महासभा के नेताओं ने अंग्रेजों की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया और अंग्रेजी फौज में हिन्दू व मुसलमानों की भर्ती के लिए अभियान चलाया। 
मुस्लिम लीग ने अंग्रेजों का साथ देने के लिए अपने सारे रास्ते खोल दिये और पाकिस्तान का गठन करने की मांग पर अंग्रेजों की हमदर्दी अपने समर्थन के बदले हासिल की। दूसरी तरफ पूरी कांग्रेस और महात्मा गांधी अंग्रेजों के दुश्मन नम्बर एक हो गये और पूरे भारत से कांग्रेस के छोटे से लेकर बड़े नेता को जेलों में बन्द कर दिया गया। मोहम्मद अली जिन्ना के लिए अब रास्ता साफ हो गया था तथा दूसरी तरफ कम्युनिस्टों ने भी अंग्रेजों का साथ देना शुरू कर दिया क्योंकि सोवियत संघ व अंग्रेजों ने मिल कर जर्मनी व जापान का मुकाबला करने में सहयोग शुरू कर दिया था। कम्युनिस्टों ने तब अंग्रेजों के पक्ष को जनता का पक्ष कहना शुरू कर दिया। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस अपना सैनिक विरोध करते रहे मगर द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों की ही जीत हुई जिनके साथ बाद में अमेरिका भी आ गया था। अंग्रेजों ने आजाद हिन्द के फौजियों को भी बन्दी बनाया और उन पर राजद्रोह तक के मुकदमे चलाये गये। परन्तु 1946 में अंग्रेजों ने भारत को आजाद करने का फैसला कर लिया और उससे पहले ही नेताजी की विमान दुर्घटना में मृत्यु होने की खबर फैल गई। हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि नेताजी भारत के समग्र विकास में समाजवादी नीतियों के ही पैरोकार थे क्योंकि कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने ही भारत में योजनागत तरीके से देश के विकास के लिए पंच वर्षीय राष्ट्रीय योजना समिति का विचार रखा था जो स्वतन्त्र भारत में योजना आयोग के रूप में लागू हुआ, मगर बाजार मूलक अर्थव्यवस्था शुरू होने से इसकी प्रासंगिकता समाप्त हो गई। उनका जन्म दिवस हमें देश पर मर मिटने के लिए ही प्रेरित करता है। 

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