भारतीय व्यवस्था में ‘दम’ भरने के लिए वित्त मन्त्री श्रीमती निर्मला सीतारमन ने आज जिन उपायों की घोषणा की है उनका असर निश्चित रूप से केन्द्र सरकार के कर्मचारियों पर पड़ेगा और वे प्रसन्न भी होंगे परन्तु इससे समूची अर्थव्यवस्था पर कितना प्रभाव पड़ेगा और इससे बाजार में माल की मांग पर कितना असर पड़ेगा, यह देखने वाली बात होगी।
असल सवाल अर्थव्यवस्था के इस भयानक मन्दी के दौर में मांग में वृद्धि करने का ही है। यह सही है कि वित्त मन्त्री ने स्वीकार किया है कि अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए बाजार में प्रत्यक्ष रूप से नकद रोकड़ा को डालने की जरूरत है जिससे माल की मांग बढे़ और उत्पादन गतिविधियों में सुधार हो।
जिनकी नौकरियां चली गई उन्हें भी नकदी की दरकार है। इनमें सबसे बड़ा वर्ग वह है जो असंगठित क्षेत्र में छोटी, मध्यम या लघु उत्पादन इकाइयों में लगा हुआ है और कोरोना महामारी के चलते बेरोजगारी की हालत मे पहुंच चुका है। लाॅकडाऊन काल के दौरान जो लोग शहरों से गांवों की तरफ पलायन कर रहे थे, वे ऐसे ही लोग थे। अतः सरकार को उनकी तरफ भी ध्यान देना चाहिए।
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि रिजर्व बैंक के गवर्नर ने कुछ दिनों पहले यह स्वयं स्वीकार किया था कि अर्थव्यवस्था के इस जर्जर दौर में ग्रामीण क्षेत्र की कारोबारी गतिविधियों ने गजब की प्रतिरोधक क्षमता का प्रदर्शन किया है। हकीकत यह है कि इस क्षेत्र ने अपने बूते पर स्वयं मजबूत होने का प्रयास किया है। अतः यदि इस क्षेत्र में हम नकद रोकड़ा की भरपाई करते तो अर्थव्यवस्था को तुरन्त लाभ हो सकता था।
वित्त मन्त्री ने देश के सभी राज्यों को 12 हजार करोड़ रु. की अतिरिक्त धनराशि देने का एेलान भी किया जो कि एक सही दिशा में उठाया गया कदम है। यह धनराशि पूंजीगत खर्च के लिए दी जायेगी मगर सवाल वही है कि क्या सभी राज्यों के वर्तमान वित्त वर्ष में सकल नौ लाख करोड़ रुपए के खर्च को देखते हुए इस धनराशि से कोई फर्क पड़ेगा? राज्यों की माली हालत सुधारने के लिए केन्द्र सरकार को इस मद में मदद करने के लिए और खुला दिल दिखाना चाहिए था।
हालांकि नीतिगत रूप से इस फैसले का स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि जब रिजर्व बैंक यह स्वयं स्वीकार कर रहा है कि चालू वित्त वर्ष 2020-21 में सकल उत्पादन में वृद्धि की दर नकारात्मक खांचे में जाकर 9.5 प्रतिशत तक रहेगी तो इस खाई को पाटने में भारत को कई वर्ष और लग सकते हैं।
2019-20 वित्त वर्ष में सकल विकास वृद्धि की दर 4.2 प्रतिशत ही रही थी। इसका सीधा मतलब यह है कि हमें अगले वर्ष पुरानी जगह आने के लिए दस प्रतिशत की पक्की वृद्धि दर प्राप्त करनी पड़ेगी तब जाकर अर्थव्यवस्था ऊपर जाने की स्थिति में आयेगी।
जो कि नामुमकिन ख्याल है क्योंकि भारत की अधिकतम वृद्धि दर पिछले दस वर्षों के किसी एक वर्ष में 8.3 प्रतिशत ही रही है। इसे देखते हुए हमें चालू वित्त वर्ष के दौरान बाजार में इतनी नकद रोकड़ा राशि डालनी होगी जिससे वृद्धि दर कम से कम इतनी हो सके कि अगले वर्ष के दौरान हम ऊपर की तरफ जाने की अपेक्षा कर सकें।
गौर से देखें तो वित्त मन्त्री द्वारा आज की गई घोषणा से केवल केन्द्रीय कर्मचारी ही चुनीन्दा वस्तुओं की खरीदारी उस रकम से कर सकेंगे जो उन्हें अवकाश पर्यटन भत्ते ( लीव ट्रेवल अलाऊंस) की एवज में मिलेगा। यह धनराशि उन्हें पहले भी मिलनी ही थी। हालांकि इसके खर्च करने का तरीका दूसरा था मगर इस मद में सरकार को अतिरिक्त व्यय नहीं करना पड़ेगा। यह खर्चा पहले से ही बजट में है।
जहां तक त्योहारी अग्रिम धनराशि प्रत्येक सरकारी कर्मचारी को दस-दस हजार रु. देने का सवाल है तो यह अगले दस महीनों में एक-एक हजार रु. करके सरकारी कोष में जमा हो जायेगा। इसमें सरकार को केवल ब्याज का ही नुकसान होगा। यह सुविधा कोरोना की वजह से ही एक बार के लिए शुरू की गई है। इस मद में अधिकतम साढे़ चार हजार करोड़ रु. खर्च होंगे। कहने का मतलब यह है कि सरकार को अपनी दृष्टि में उन लोगों को भी लाना चाहिए जो बेरोजगार हो चुके हैं या जिनकी आमदनी का जरिया समाप्त हो चुका है।
यह समझने की जरूरत इसलिए है क्योंकि पिछली एक सदी में एेसा समय भारत ने कभी नहीं देखा जब सभी लोगों को महीनों तक अपने-अपने घर में बन्द होकर रहना पड़ा हो। जब किसी महामारी के चलते फैिक्ट्रयों में काम बन्द हो गया है और दुकानें बन्द कर दी गई हों। यह असाधारण समय था।
अतः इससे निपटने के उपाय भी असाधारण ही होंगे। इससे सबसे ज्यादा प्रभावित दैनिक मजदूरी करने वालों से लेकर निजी संस्थानों में काम करने वाले लोग हो रहे हैं। उनकी क्रय क्षमता कोरोना और लाॅकडाऊन ने बुरी तरह तोड़ डाली तो उन्हें सबसे ज्यादा मदद की जरूरत है। केन्द्रीय कर्मचारियों को जो सहूलियत दी गई है निश्चित रूप से उसका स्वागत है परन्तु इस नीति का विस्तार किया जाना चाहिए।