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‘पराली’ से ‘पेट्रोल’ तक

किसी भी देश की तरक्की का राज इस तथ्य में छिपा होता है कि वह अपने यहां उपलब्ध विविध प्राकृतिक स्रोतों का उपयोग समय की मांग के अनुसार किन रूपान्तरित तत्वों के रूप में कर पाता है।

प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने दो दिन पहले ही खेतों में गेहूं कटाई के बाद बेकार जाने वाली पुराल या पराली से इथनाल (पेट्रोल) बनाने के विशाल संयन्त्र की जो आधारशिला रखी है उसमें बदलते भारत की विज्ञान की तकनीकों के प्रयोग से स्वयं को हर क्षेत्र में आत्म निर्भर बनाते हुए आम लोगों की आर्थिक तरक्की को आगे बढ़ाने का ‘गुर’ छिपा हुआ है। किसी भी देश की तरक्की का राज इस तथ्य में छिपा होता है कि वह अपने यहां उपलब्ध विविध प्राकृतिक स्रोतों का उपयोग समय की मांग के अनुसार किन रूपान्तरित तत्वों के रूप में कर पाता है। इसे ही शोध कहते हैं। शोध का उपयोग जीवनोपयोगी वस्तुओं के उत्पादन में जब  वाणिज्यिक आधार पर किया जाने लगता है तो प्राकृतिक असन्तुलन का खतरा भी पैदा हो जाता है। इस असन्तुलन को समाप्त करने के उपाय भी प्रकृति जन्म साधनों में ही समाहित रहते हैं, जैसे औद्योगिक विकास के लिए वृक्षों को काटे जाने से उत्पन्न हुई रिक्तता को केवल वृक्षारोपण करके ही पाटा जा सकता है। परन्तु प्रकृति स्वयं भी कुछ कचरा छोड़ती है जो मनुष्य द्वारा प्रकृति से ही जीवनोपयोगी वस्तुएं प्राप्त करने की प्रक्रिया का एक अंग होता है। 
जमीन पर खेती करने का विकास होने के बाद गेहूं व चावल की भूसी के सदुपयोग की प्रक्रिया भी विकसित हुई। चावल की भूसी से तेल निकलने लगा और गेहूं की भूसी मवेशियों या पशुओं की खाद्य सामग्री के रूप में सीमित मात्रा में उपयोग होने लगी। गेहूं की बाल काटे जाने के बाद खेतों में ही जो पुराली खड़ी रहती है, उसका उपयोग उत्तर भारत के लोग जाड़ों के मौसम में पहले अपने कच्चे घरों को उसे जमीन पर बिछा कर गर्म रखने में भी करते थे परन्तु इसके बावजूद पुराली खेतों में अधिक मात्रा में जला दिया करते थे जिससे वातावरण में धुएं का प्रदूषण होता था और वायुमंडल की आक्सीजन को भी कम कर देता था। भारत में शहरीकरण की प्रक्रिया चालू होने के बाद गांवों के खेतों में पराली को किसानों द्वारा जलाये जाना एक समस्या का रूप लेता जा रहा था । इसे रोकने के लिए प्रारम्भिक स्तर पर केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा जो प्रयास किये गये वे पर्याप्त साबित नहीं हुए और किसानों को इस महंगी प्रणाली की तरफ प्रेरित नहीं किया जा सका। अतः पराली को लेकर वैज्ञानिक स्तर पर शोध होते रहे और परिणाम यह निकला कि पराली को यदि गन्ने की खोई व  कृषि जन्य कचरे के साथ मिला कर रासायनिक प्रक्रियाओं से गुजारा जाये तो पेट्रोलियम पदार्थ इथनाल की उत्पत्ति होती है। इथनाल को पेट्रोल के साथ मिला कर मोटर वाहनों में आसानी से प्रयोग किया जा सकता है। ऐसा करने से भारत की पेट्रोल आयात पर निर्भरता कम होगी और यह अपेक्षाकृत सस्ता भी होता जायेगा। मगर इसका सबसे ज्यादा असर किसानों की आय पर पड़ेगा। उनकी पराली अच्छे भावों पर बिकेगी और ‘आम के आम गुठलियों के दाम’ भी मिलेंगे। इससे पूर्व उत्तर प्रदेश में भी इथनाल के एक बड़े कारखाने से भी इथनाल का उत्पादन शुरू हो चुका है।  
वर्तमान वैश्विक आर्थिक प्रतियोगिता के माहौल में वही देश आगे बढ़ सकता है जो ‘वेल्थ फ्राम वेस्ट’ ( कचरे से कीमत) के फार्मूले पर चले और पृथ्वी के वातावरण को हर प्रकार के प्रदूषण से मुक्त रखे। सबसे बड़ा सवाल यह है कि किसानों की उपज का उन्हें अधिक मूल्य देने का प्रभाव सीधे आम आदमी की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। अऩाज महंगा कर देने से किसानों की आय तो बढ़ सकती है परन्तु उनकी क्रय शक्ति नहीं बढ़ सकती। इसकी वजह यह है कि जिस अनुपात में अनाज महंगा होता है उससे कहीं अधिक अनुपात में किसानों द्वारा ही उपयोग किये जाने वाले जीवनोपयोगी सामान के दामों में वृद्धि हो जाती है, जिसे महंगाई कहा जाता है। किसानों की वास्तविक क्रय शक्ति में तभी वृद्धि होगी जब उसकी उपज के मुख्य उत्पादों के साथ सह उत्पादों की भी उसे वाजिब कीमत मिले। पराली से पेट्रोल ऐसा  ही प्रयोग माना जा सकता है।
 भारत तो ऐसा देश है जिसके किसानों ने ही अपनी धरती के ज्ञान का उपयोग करते हुए नदियों के जलग्राह्य क्षेत्रों (कैचमेंट एरिया)  रेत  खादर की जमीन पर उगने वाले सरकंडे या सरुए में रस भर कर उसे गन्ना बनाया और दुनिया को मीठा बांटा। इसी देश के किसानों ने चावल में विभिन्न खुशबुएं भर कर उसे सुगन्धित बनाया। यहीं के किसानों ने आम फल की सैकड़ों किस्में विकसित कीं। प्रकृति से मिलने वाले पदार्थों का ही उसने अपने ज्ञान व कौशल से मूल्य व गुण संवर्धन किया। परन्तु यह जमाना विज्ञान उन्नयन और नवाचार का जमाना है। इसमें समृद्धि का मन्त्र केवल नया उत्पाद देने से फलीभूत नहीं होता है बल्कि नवाचार के द्वारा उसे सस्ता से सस्ता उपलब्ध कराने पर होता है। प्रयोगशाला का प्रयोग तभी सफल माना जाता है जब उसका उपयोग वाणिज्यिक आधार पर होने लगे । पराली से पैट्रोल तैयार करके भारत अपने यहां उपलब्ध कच्चे माल से ही उपयोगी उत्पाद पैदा करके यही सिद्ध कर रहा है कि विकास और आर्थिक सम्पन्नता की कुंज्जी राजनीतिज्ञों से मुफ्त उपहार पाकर नहीं बल्कि उनके द्वारा प्रकृति जन्य बेकार समझी जाने वाली वस्तुओं को मूल्यवान बनाने में छिपी हुई है। इसी प्रकार कूड़े से बिजली उत्पादन के प्रयोग भी चल रहे हैं। भारत में इसकी सस्ती से सस्ती टैक्नोलोजी विकसित करने के प्रयोग हो रहे हैं। वाणिज्यिक स्तर पर यह कब मुनासिब रूप में आयेगी इसकी प्रतीक्षा है।

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